भगत सिंह पर चिंतन की कथित तीसरी धारा का दिवालियापन

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शहीदे आजम भगत सिंह को लेकर एक असमय और अनावश्यक बहस चल रही है। कहा जा रहा है, “भगतसिंह की शहादत कोई मायने नहीं रखती”, “वे एक कोरे भावुक राष्ट्रवादी थे”, “उन्हें क्रांतिकारी कहना बन्द करो”; अगर किसी को यह पता न हो कि उक्त टिप्पणी किसकी है, तो इसे पक्का वह हेडगेवार की परम्परा के किसी “गणमान्य” की टिप्पणी समझेगा। लेकिन कोई गैर संघी चिंतक इस तरह की टिप्पणी करे यह किसी को शायद ही विश्वास हो।

दरअसल इसी तर्क के आधार पर तो हेडगेवार ने कई युवाओं को भगत सिंह की धारा में जाने से रोका था और हेडगेवार से लेकर गोलवलकर ने भगत सिंह और उनके साथियों के बलिदान को निरर्थक करार दिया था। इसी चिंतन प्रक्रिया का विस्तार था कि इतिहास की पाठयपुस्तकों में लंबे समय तक स्वाधीनता आंदोलन की इस क्रांतिकारी धारा को आतंकवादी बताया जाता रहा!

सफलता या विफलता किसी क्रांति या आंदोलन, संघर्ष की क्रांतिकारिता या प्रगतिशीलता का मापदंड नहीं हो सकती। इतिहास में कई विफल क्रांतिकारी संघर्ष अक्सर असली क्रांतियों के ड्रेस रिहर्सल साबित हुए हैं। स्वयं हमारा स्वतंत्रता आंदोलन कितने बड़े बड़े आंदोलनों के बाद जाकर अंततः सफल हुआ।

भगत सिंह को अगर शहीदे आजम का दर्जा मिला तो वह मूलतः उनके क्रांतिकारी विचारों के कारण मिला, यह सच है कि शुरुआत में उनके ऊपर अराजकतावादी विचारकों का असर था, लेकिन उनका तेजी से मार्क्सवादी क्रांतिकारी रूपांतरण हुआ। हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी का राजनीतिक नामकरण हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन उन्होंने ही करवाया। इसमें उस दौर में सोशलिस्ट शब्द जुड़वाना और आर्मी को एसोसिएशन बनाना बेहद मानीखेज है।

21 वर्ष के युवा भगत सिंह ने साम्प्रदायिकता के मूल कारण के बतौर अगर अंग्रेजों की बांटो और राज करो नीति को चिन्हित किया तो इसमें बुनियादी रूप से गलत क्या था? यह इतिहास का स्थापित तथ्य है कि 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में कायम हुई चट्टानी हिंदू मुस्लिम एकता ने ब्रिटिश राज की चूलें हिला दी थीं।उसी के बाद से अंग्रेजों ने इस एकता को तोड़ने के लिए हर सम्भव यत्न किया।

अगर भगत सिंह ने इसके समाधान के बतौर धर्म और राजनीति को अलग करने की वकालत किया तो इसमें क्या गलत था? भगत सिंह ने अपने संगठन नौजवान भारत सभा में ऐसे किसी व्यक्ति के प्रवेश पर रोक लगा दी थी जो किसी भी सांप्रदायिक संगठन से जुड़ा हो।

अगर उन्होंने इसके लिए वर्ग चेतना के विकास को मौलिक समाधान माना, तो यह कहां से गलत था? आखिर इस सबसे अलग और कौन सा रास्ता अन्य लोग सुझा रहे हैं ?वर्ग सचेत इलाकों में सांप्रदायिक ताकतों का बोलबाला कम होना इस बात का प्रमाण है कि किसानों मजदूरों तथा अन्य तबकों की मजबूत वर्गीय एकता सांप्रदायिकता के खिलाफ सबसे बड़ा एंटीडोट है।

लाला लाजपत राय की सांप्रदायिकता का विरोध करना एक बात है, लेकिन जब वे साइमन कमीशन के खिलाफ राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे, तब उन पर पड़ी लाठियों का विरोध करना बिल्कुल अलग बात थी, वह एक व्यक्ति पर हमले का नहीं अंग्रेजी दमन के प्रतिरोध में उठ खड़ी हुई जनता के बर्बर उत्पीड़न का प्रतीक बन गया था। भगत सिंह और उनके साथियों ने संभवतः इसी रूप में इसे ग्रहण किया। लाला लाजपत राय के सांप्रदायिक विचलन के खिलाफ, जिनको युवा भगत सिंह एक समय पंजाब का नेशनल हीरो मानते थे,उन्होंने बाकायदा पर्चा निकालकर विरोध किया और उन्हें The lost leader घोषित किया।

यह मानना कि भारत में तमाम विविधतापूर्ण समुदायों की उपस्थिति और उनके बीच वैमनस्य ही सांप्रदायिकता का मूल कारण था, यह सांप्रदायिकता के उत्स की नितांत सतही सोच है। सामंती जातिवादी उत्पीड़न और एथनिक लड़ाइयों को सांप्रदायिकता की समस्या मान लेना भी गलत है। कम से कम आज तो यह दिन के उजाले की तरह साफ हो चुका है। किस तरह सवर्णों ही नहीं ओबीसी, दलित और आदिवासी समुदायों के अच्छे खासे हिस्से के समर्थन के बल पर भाजपा देश में राज कर रही है। इन विभाजनों को किसी भी तरह हिंदू मुस्लिम के सांप्रदायिक विभाजन के समतुल्य दिखाना बचकानापन और हास्यास्पद है।

बेशक जातियों और एथनिक समुदायों के बीच लड़ाइयां भी समाज के लिए कम घातक नहीं हैं, लेकिन उनकी भारत में हिंदू राष्ट्रवाद के उभार से तुलना नहीं हो सकती क्योंकि भारत में फासीवादी शासन थोपने का माध्यम और दूसरी कोई फॉल्ट लाइन नहीं बल्कि हिंदू राष्ट्रवाद का मिशन है जो मुसलमानों को राजनीतिक अधिकारविहीन दूसरे दर्जे के शहरी में बदल देने का लक्ष्य लेकर आगे बढ़ रहा है।

दलितों की समस्या पर भी भगत सिंह ने अपने अछूत समस्या लेख में जिस संवेदनशीलता और रेडिकल विजन से विचार किया है वह दुर्लभ है। वे उनकी समस्या पर किसी उदारवादी सहानुभूति या दयादृष्टि से, न ही किसी समाज सुधारक की तरह विचार करते। बल्कि वर्गीय दृष्टि से विचार करते हैं और उन्हें असली सर्वहारा घोषित करते हैं। वे इनसे कहते हैं , “तुम असली सर्वहारा हो….संगठनबद्ध हो जाओ। तुम्हारी कुछ भी हानि नहीं होगी। बस गुलामी की जंजीरें कट जाएंगी। उठो और वर्तमान व्यवस्था के विरुद्ध बगावत खड़ी कर दो।…सामाजिक आंदोलन से क्रांति पैदा कर दो तथा राजनीतिक और आर्थिक क्रांति के लिए कमर कस लो।तुम ही तो देश का मुख्य आधार हो, वास्तविक शक्ति हो, सोए हुए शेरों ! उठो और बगावत खड़ी कर दो।”

इससे अधिक क्रांतिकारी दृष्टि से दलितों की वर्गीय भूमिका के बारे में रेडिकल विजन के साथ उस दौर में और कितने लोगों ने सोचा? दलित और दबंग समुदायों के बारे में उन्होंने वर्गीय दृष्टि से सोचा। उन्होंने नौकरशाही की चालों में न फंसने की भी दलितों से अपील की। जाहिर है यह दृष्टि न तो अर्थवाद तक सीमित थी, न महज सामाजिक उत्पीड़न तक। बल्कि यह एक समग्र दृष्टि थी जिसका लक्ष्य राजनीतिक सत्ता पर कब्जा कर सामाजिक आर्थिक हर तरह की गैर बराबरी और उत्पीड़न का अंत करना था।

(लाल बहादुर सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं)

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