निर्लज्जता की पराकाष्ठा है प्रधानमंत्री का संक्रमित मौतों की बढ़ती संख्या की अनदेखी करना

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मादी का एक सूत्रीय एजेंडा है कि अपनी बात कह दो बस। उन्हें किसी की नहीं सुननी है। बात भी उन्हें वही कहनी है जो वह कहना चाहते हैं। परिस्थतियों, समस्याओं से उन्हें कोई लेना देना नहीं। कोरोना महामारी को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 10 राज्यों के 54 जिलाधिकारियों के साथ जो बैठक की है, उसमें उनका जो रवैया रहा क्या इस संकट के समय प्रधानमंत्री को बैठक में मौजूद मुख्यमंत्रियों के साथ ही जिलाधिकारियों की भी राय नहीं जाननी चाहिए थी। क्या उन्हें कोरोना संक्रमण से बढ़ रही मौतों पर चर्चा नहीं करनी चाहिए थी? क्या ब्लैक फंगस उनकी बैठक में प्राथमिकता से नहीं लेना चाहिए था। क्या चरमराई स्वास्थ्य सेवाओं को दुरुस्त करने के लिए उन्हें चर्चा नहीं करनी चाहिए थी।

पर उन्हें जरूरत ही क्या है? देश का मीडिया तो उनका भक्त बना हुआ है। तमाम परेशानी झेलने के बावजूद देश का एक बड़ा तबका अभी भी उनकी अंधभक्ति से बाहर नहीं निकला है। वैसे भी प्रधानमंत्री से कुछ अच्छे की उम्मीद करना आज की तारीख में बेवकूफी ही होगी। उन्हें एक ही काम आता है कि लोगों को कैसे बरगलाना है और वह वही कर रहे हैं। चर्चा होनी चाहिए आने वाले खतरे पर और वह चर्चा कर रहे हैं वाहवाही लूटने वाले मुद्दे पर, वह जिसमें उनका कोई योगदान नहीं है। कारोना संक्रमण के मामले यदि कम हुए हैं तो इसमें मोदी सरकार का क्या योगदान है? सरकार तो हर मोर्चा पर विफल साबित हुई है। हां, यदि मौतों के मामले बढ़ रहे हैं तो सरकार को इन मामलों पर जवाबदेह होना चाहिए।

इस बैठक मुख्मयंत्री के तौर पर बुलाई गईं। ममता बनर्जी को बोलने न देना प्रधानमंत्री का गैर जिम्मेदाराना और तानाशाहीपूर्ण रवैया है। क्या प्रधनामंत्री भाजपा शासित प्रदेशों के ही प्रधानमंत्री हैं? राज्यों की समस्याएं तो वहां के मुख्यमंत्री ही बताएंगे। वैसे भी यदि जिन राज्यों के मुख्यमंत्री बैठक में मौजूद थे वहां के जिलाधिकारी चुप बैठक कर सुनने के अलावा कुछ नहीं करेंगे।

क्या हम प्रधानमंत्री की यह बात सुनकर संतुष्ट हो जाएं कि कोरोना संक्रमण के मामले कम हो गये हैं। क्या यह जमीनी हकीकत नहीं है कि मौतों के मामले लगातार बढ़ रहे हैं। असली चिंता का विषय तो यही है कि कोरोना संक्रमित मरीजों के ठीक होने के बाद भी उन पर मौत का खतरा मंडरा रहा है। ऐसे बहुत मामले आ रहे हैं जिनमें संक्रमित मरीज पूरी तरह से ठीक हो गया फिर ब्लैक फंगस की चपेट में आ गया। किसी की आंखें निकालनी पड़ी रही हैं तो कोई दम ही तोड़ दे रहा है। किसी के फेफड़े खराब हो जा रहे हैं तो किसी को हर्ट-अटैक आ जा रहा है। कौन इन सबके लिए जिम्मेदार? तेलंगाना, राजस्थान और हरियाणा ने तो ब्लैक फंगस को महामारी घोषित कर दिया है और प्रधानमंत्री को यह कोई समस्या ही नहीं दिखाई दे रही है। 24 घंटे में 4,329 लोगों की मौत क्या डरावरा आंकड़ा नहीं है? ब्लैक फंगस के चलते देश में बड़े स्तर पर हाहाकार मचने का पूरा अंदेशा पैदा हो गया है।

भले ही मामले कम हो रहे हैं पर यदि पूरे देश में टेस्ट हों तो देश का हर तीसरा आदमी संक्रमित है या फिर संक्रमित हो गया है। हर किसी की जान को खतरा है। देश की यह विडंबना ही है कि स्वाथ्य सेवाओं के चरमराने के साथ ही डॉक्टर भी कोरोना मरीजों के साथ प्रयोग ही करते रहे। जब लाखों लोग कोरोना संक्रमण से दम तोड़ चुके हैं, जब देश में रेमडेसिविर इंजेक्शन और प्लाज्मा थेरेपी को कोरोना मरीज के लिए अंतिम उपचार माना जाता रहा, जब इनके नाम पर जमकर लूटखसोट मचाई जाती रही। तब रेमडेसिविर इंजेक्शन और प्लाज्मा थेरेमी कोरोना मरीजों के लिए रामबाण थी। अब जब लाखों लोग कोरोना संक्रमण से दम तोड़ गये तो अब आकर डाक्टरों को पता चला कि कोरोना मरीजे के लिए ये दोनों ही कारगर नहीं हैं।

मतलब इलाज के नाम पर मात्र धुप्पलबाजी ही चलती रही। कहना गलत न होगा कि शासन-प्रशासन के साथ ही अस्पताल प्रशासन ने मिलकर लाखों लोगों की जान ले ली। यदि नये मामले कम हो भी रहे हैं तो इसमें सरकार या फिर स्वास्थ्य सेवाओं का क्या योगदान है। हर वायरस कुछ समय बाद कमजोर पड़ता है। कोरोना भी पड़ रहा है जैसा कि गत साल पड़ा था। वह बात दूसरी है कि लॉकडाउन के नाम पर देश में रोजी-रोटी के संकट को और बढ़ा दिया गया और अर्थव्यवस्था की कमर तोड़कर रख दी गई। देश में सर्वे कर लिये जाएं तो अस्पतालों से ज्यादा लोगों ने कोरोना संक्रमण का इलाज अपने घरों में किया है। अब तो लोगों की यह धारणा बन गई है कि अस्पताल जाने का मतलब लौटकर न आना है। यह है मोदी सरकार की स्वास्थ्य सेवाएं। प्रधानमंत्री को यह समझ में नहीं आता कि कोरोना संक्रमण से स्वास्थ्य सेवाएं बचाएंगी न जिलाधिकारी। जो बुरी तरह से चरमराई हुए हैं। जिलाधिकारी जो कर सकते थे वे कर चुके हैं। वैसे भी प्रधानमंत्री को निर्देश देने की आदत है राय-मशविरा तो उनकी डिक्सनरी में है ही नहीं। हां, ढोंगी की तरह वह लगातार लोगों की राय मांगते रहते हैं वह बात दूसरी है कि वे सब रद्दी की टोकरी में जाती है। जैसे कि उनकी ही टीम द्वारा दिये गये कोरोना की दूसरी लहर के अंदेशे को उन्होंने नकार दिया था।

(चरण सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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