खोट नो-डिटेंशन पॉलिसी में नहीं, जन-शिक्षा के प्रति राज्य के नजरिये में है  

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दिसंबर 2024 को केंद्र सरकार ने निर्णय लिया कि अब से केंद्र सरकार के द्वारा संचालित स्कूलों में विद्यार्थियों को फेल न करने की नीति पांचवी तथा आठवीं कक्षा में लागू नहीं रहेगी। इसका मतलब यह है कि केंद्र सरकार द्वारा संचालित स्कूलों में पांचवीं तथा आठवीं कक्षा में विद्यार्थियों को फेल किया जा सकता है। केंद्र सरकार द्वारा संचालित स्कूलों में केंद्रीय विद्यालय, नवोदय विद्यालय, सैनिक स्कूल और एकलव्य मॉडल स्कूल आदि करीब 3000 स्कूल आते हैं।

अब से पहले इन स्कूलों में नो-डिटेंशन पॉलिसी लागू थी, जिसके तहत किसी भी विद्यार्थी को उसकी वर्तमान कक्षा में नहीं रोक जा सकता था। लेकिन केंद्र सरकार के नये निर्णय के अनुसार नर्सरी, पहली, दूसरी, तीसरी, चौथी, छठी और सातवीं में तो नो-डिटेंशन पॉलिसी लागू रहेगी, लेकिन कक्षा 5 और 8 में नो-डिटेंशन पॉलिसी लागू नहीं रहेगी।

अगर फेल होने के कारण कोई विद्यार्थी कक्षा 8 पास करने से पहले ही 14 साल का हो जाए तो क्या ऐसी स्थिति में उस विद्यार्थी के पास अपनी एलिमेंट्री एजुकेशन पूरी करने का अधिकार रहेगा या नहीं? नये नोटिफिकेशन के हिसाब से ऐसी स्थिति में भी उस विद्यार्थी के पास अपनी एलिमेंट्री एजुकेशन पूरी करने का अधिकार रहेगा, क्योंकि राइट टू एजुकेशन एक्ट के अनुसार हर विद्यार्थी को 6 से 14 साल तक शिक्षा और एलिमेंट्री एजुकेशन पूरी करने का अधिकार है।

राइट टू एजुकेशन एक्ट के cluse 16 के अनुसार “No child admitted in a school shall be held back in any class or expelled from school till the completion of elementary education” ।  इसका मतलब है कि किसी भी विद्यार्थी को आठवीं कक्षा तक किसी भी कक्षा में रोका नहीं जाएगा और ना ही उसकी प्रारंभिक कक्षा पूरी होने हो जाने तक उसे स्कूल से निकाला जा सकता हैI

राइट टू एजुकेशन एक्ट में विद्यार्थियों के पक्ष में इस अधिकार को रखने के आधार में दो उद्देश्य हो सकते हैं I एक तो यह कि साल भर विद्यार्थियों की प्रगति पर नजर रखी जाएगी और अगर कोई कमी पाई गयी तो उसमें सुधार करने के लिए राज्य उपयुक्त व्यवस्था करेगा I यह माना गया था कि ऐसा करने से विद्यार्थियों पर सीखने का दबाव कम हो जाएगा, लेकिन वे सीखते रहेंगेI

विद्यार्थियों को फेल न करने के आधार में दूसरा कारण यह लगता है कि अगर राज्य सभी विद्यार्थियों के लिए समतामूलक गुणवत्ता वाली शिक्षा का वादा कर रहा है तब किसी विद्यार्थी के न सीख पाने की संभावना ही ख़त्म हो जाती हैI

राइट टू एजुकेशन एक्ट के क्लॉज़ 16 को रखने का मतलब यह था कि राज्य स्कूलों के अंदर ऐसा वातावरण विकसित करेगा जिसमें विद्यार्थियों के सीखने की संभावना अधिकतम होगी और ऐसी संभावना में विद्यार्थियों को फेल करने की या उन्हें उनकी वर्तमान कक्षा में रोकने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी।

ऐसा नहीं है कि नो-डिटेंशन पॉलिसी का किसी ने विरोध न किया होI  BAMCEF नाम का एक संगठन हैI जिसका फुल फॉर्म है The All India Backward and Minority Communities Employees Federation I इस संगठन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं वामन मेश्रामI

वामन मेश्राम ने अपने एक पब्लिक एड्रेस में राइट टू एजुकेशन की नो-डिटेंशन पॉलिसी की आलोचना की है I उनका कहना था कि अगर आप बिना परीक्षा के आठ क्लास तक विद्यार्थियों को अगली कक्षा में भेजते जाएंगे तो इसका सबसे बुरा असर दलित, पिछड़े, और अल्पसंख्यक समुदायों से आने वाले बच्चों की शिक्षा पर पड़ेगाI

इस तरह से पास हुए बच्चे जब नवीं-दसवीं कक्षाओं में पहुंचेंगे तो वे उन तमाम बच्चों से बिछड़ जाएंगे जिनके घरों में पढ़ाई-लिखाई की सांस्कृतिक पूंजी है और जो शिक्षा और रोजगार में प्रतियोगिता के महत्त्व को समझते हैंI

वामन मेश्राम का कहना था कि नो-डिटेंशन पॉलिसी की वजह से कमजोर तबके के बच्चे पास तो हो जायेंगे, लेकिन उन्हें आता कुछ नहीं होगा I

एक बात और कही जाती है कि नो-डिटेंशन पॉलिसी की वजह से कमजोर तबके के बच्चों के परिवार अपने बच्चों की पढ़ाई के प्रति संजीदा नहीं रह पाएंगे क्योंकि उन्हें लगेगा कि बच्चे पढ़ें या नहीं पढ़ें, उन्हें पास तो हो ही जाना हैI नो-डिटेंशन पॉलिसी की वजह से बच्चों पर पढ़ने के पक्ष में पड़ने वाला पीयर प्रेशर भी खत्म हो जाएगाI

ऐसा नहीं है कि यह ऑब्जर्वेशन सिर्फ बामसेफ जैसे संगठनों का रहा है, बल्कि अनेक गार्जियन और टीचर्स भी ऐसा मानते हैं कि नो-डिटेंशन पॉलिसी की वजह से विद्यार्थियों में पढ़ने के प्रति रुचि कम होगी और स्कूलों में पढ़ाने को लेकर एक ढीला-ढाला रवैया जगह बनाने लगेगाI

सवाल यह है कि नो-डिटेंशन पॉलिसी के कारण पढ़ने-पढ़ाने के प्रति उदासीन रवैये में बढ़ोतरी क्यों देखी गयी? इसकी एक वजह तो यह है कि स्कूल में प्रवेश और स्कूल में बने रहने के संदर्भ में तो कानून में जिम्मेदारी सुनिश्चित की गई है, लेकिन विद्यार्थी सीख सकें इस संदर्भ में जिम्मेदारी सुनिश्चित नहीं है।

यह तय नहीं है कि नो-डिटेंशन पॉलिसी के कारण जिन विद्यार्थियों को अगली कक्षाओं में प्रमोट कर दिया जाएगा उनकी कुशलताओं और क्षमताओं को कैसे परखा जाएगा?

और इस बात को कैसे सुनिश्चित किया जाएगा कि अगली कक्षाओं में प्रमोट किये जा रहे विद्यार्थियों ने वे न्यूनतम कुशलताएं और क्षमताएं हासिल कर ली हैं जिनके बल पर वे अगली कक्षाओं के पाठ्यक्रम की अपेक्षाओं को पूरा कर पाएंगे?

अगर सीखने के संदर्भ में भी जिम्मेदारी तय की गयी होती तो ASER की रिपोर्ट्स में बार-बार यह तथ्य उजागर नहीं होता कि प्राथमिक और मिडिल स्तर के सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे विद्यार्थी ना तो भाषा जानते हैं और ना ही गणित। अनेक अध्ययनों में यह बात उभरकर सामने आई है कि विद्यार्थी सीख नहीं रहे हैं।

केंद्र सरकार ने राइट टू एजुकेशन के क्लाज 16 के एक हिस्से को, केंद्र सरकार द्वारा संचालित स्कूलों के संदर्भ में रद्द कर दिया है I राइट टू एजुकेशन का क्लाज 16 कहता है कि कक्षा 8 तक के विद्यार्थियों को ना तो फेल किया जा सकता है और ना ही स्कूल से निकाला जा सकता है।

केंद्र सरकार के ताज़ा संशोधन के अनुसार अब विद्यार्थियों को पांचवीं और आठवीं कक्षा में फेल किया जा सकता है। उदाहरण के लिए अबसे अगर कोई विद्यार्थी पांचवीं या आठवीं कक्षा की परीक्षा में फेल हो जाती/जाता है तो परिणाम आने के 2 महीने के भीतर उसे परीक्षा देने का एक मौका और दिया जाएगा और अगर वह फिर से फेल हो जाती/जाता है तो उसे उसकी वर्तमान कक्षा में ही रोक लिया जाएगा।

हालांकि केंद्र सरकार के ऐसा करने से पहले ही दिल्ली समेत कम-से-कम16 राज्य हैं और दो केंद्र शासित प्रदेश नो-डिटेंशन पॉलिसी को रद्द कर चुके हैंI पब्लिक डोमेन में इस बात का कोई अध्ययन नहीं मिला जो बता सके कि जिन राज्यों में नो-डिटेंशन पॉलिसी लागू है और जिनमें इसे रद्द कर दिया गया, उनके विद्यार्थियों के बीच सीखने के मामले में कितना अंतर है?

दरअसल 2016 में सेंट्रल एडवाइजरी बोर्ड ऑन एजुकेशन ने सरकार से सिफारिश की थी कि नो-डिटेंशन पॉलिसी को समाप्त किया जाए, क्योंकि इस नीति के कारण विद्यार्थी पढ़ाई के बारे में गंभीर नहीं होते।

2019 में केंद्र सरकार ने राइट टू एजुकेशन एक्ट में संशोधन किया I जिसके तहत “एप्रोप्रियेट गवर्नमेंट” पांचवीं और आठवीं कक्षाओं में विद्यार्थियों को रोक लेने के बारे में निर्णय ले सकती है। उस संशोधन का लाभ उठाते हुए कम-से-कम 16 राज्यों और दो केंद्र शासित प्रदेशों ने पांचवीं और आठवीं कक्षाओं में नो-डिटेंशन पॉलिसी को समाप्त कर दिया था।

सवाल यह है कि नो-डिटेंशन पॉलिसी क्यों फेल होती दिख रही है? क्यों बच्चों के न सीखने के लिए नो-डिटेंशन पॉलिसी को जिम्मेदार माना जा रहा है? कहीं ऐसा तो नहीं की नो-डिटेंशन पॉलिसी को बलि का बकरा बनाया जा रहा हो, जबकि विद्यार्थियों के नहीं सीख पाने के और भी कारण हों?

विद्यार्थियों के नहीं सीख पाने का सबसे बड़ा कारण तो यह है कि शिक्षा और स्वास्थ्य और पब्लिक ट्रांसपोर्ट जैसी सुविधाओं के लिए बजट में प्रावधान काफी कम हैI 1966 के कोठारी कमीशन ने यह सिफारिश की थी कि 1986 तक शिक्षा के लिए बजट को जीडीपी का कम-से-कम 6% तक कर दिया जाना चाहिएI

कोठारी कमीशन की सिफारिश यह थी कि 1966 के बाद के 20 सालों के भीतर शिक्षा के बजट को जीडीपी का 6% होना चाहिए। लेकिन शिक्षा का बजट अमूमन 3% के आसपास रहा हैI यानी 1966 में की गयी उम्मीद का भी आधाI जबकि 1966 से अब-तक शिक्षा की ज़रूरतों और उसके लिए मांग में बढ़ोतरी हुई है।

बजट की कमी की सबसे बड़ी समस्या के बाद तीन ऐसे कारण और हैं जिनका सीधा रिश्ता प्रारंभिक स्कूलों में शिक्षा की गुणवत्ता के साथ है I यह तीन कारण हैं –

  1. प्यूपिल-टीचर रेश्यो  
  2. नॉन-एजुकेशनल वर्क
  3. Promotion to and Expansion of Privatization

सबसे पहले बात करते हैं प्यूपिल-टीचर रेश्यो कीI इस रेश्यो का समान्य सा मतलब यह है कि किसी स्कूल को कितने विद्यार्थियों पर कितने टीचर्स दिये जायेंगेI राइट टू एजुकेशन एक्ट के अनुसार प्राथमिक स्तर पर 30 विद्यार्थियों पर एक टीचर और अपर-प्राइमरी स्तर पर 35 विद्यार्थियों पर एक टीचर दिया जाएगाI

इसका अर्थ यह हुआ कि पांचवी कक्षा तक प्रत्येक 30 विद्यार्थियों की संख्या पर एक टीचर होना चाहिए और छठी से आठवीं कक्षा तक प्रत्येक 35 विद्यार्थियों पर एक टीचर होना चाहिए। अब सवाल यह है कि इस नियम की व्याख्या कैसे की जाए ? और सरकार इस नियम की व्याख्या कैसे करती है ? इस नियम के दो अर्थ निकाले जा सकते हैं I

एक अर्थ तो यह है कि शिक्षकों की गणना हर कक्षा में विद्यार्थी की संख्या के आधार पर की जाए और दूसरा अर्थ यह है कि शिक्षकों की गणना स्कूल में विद्यार्थियों की संख्या के आधार पर की जाए। यानि गणना की यूनिट क्लास को माना जाए या स्कूल को। सरकार गणना की इकाई स्कूल को मानती है, क्लास को नहीं और इससे एक समस्या पैदा हो जाती है, जिसका जिक्र मैं अब करने जा रहा हूं।

मान लीजिए कि एक प्राइमरी स्कूल में 30 विद्यार्थी है I ये किसी पहाड़ी इलाके का स्कूल हो सकता है, किसी आदिवासी इलाके का स्कूल हो सकता है, किसी बॉर्डर एरिये का स्कूल हो सकता है, किसी रेगिस्तानी या बर्फीले रेगिस्तान का स्कूल हो सकता हैI

यानि ऐसे इलाके जहां पर जनसंख्या का घनत्व काफी कम होता हैI मान लीजिए कि इस स्कूल की हर कक्षा में 6-6 विद्यार्थी हैंI सरकार के अनुसार इस स्कूल को केवल एक टीचर दिया जा सकता हैI क्योंकि इस प्राइमरी स्कूल में कुल 30 विद्यार्थी हैंI इस स्कूल में कक्षाएं तो पांच है, लेकिन टीचर केवल एक हैI

इस स्थिति को कुछ और समझने के लिए यह सवाल उठाया जाए कि कोई शिक्षक प्रत्येक कक्षा को हर दिन अधिकतम कितना समय दे पाएगा? अगर स्कूल में क्लास रूम टाइम को कुल 5 घंटे मान लिया जाए तो एक कक्षा को हर रोज औसतन 1 घंटा ही मिल पाएगा। ऐसा इसलिए होगा क्योंकि प्यूपिल-टीचर रेश्यो की गणना करते हुए स्कूल को यूनिट मानने से प्रत्येक स्तर के विद्यार्थियों के लिए अलग से टीचर का प्रावधान नहीं है।

इस स्थिति में एक और तथ्य पर गौर करें। स्कूल का कोई भी पाठ्यक्रम 220 दिनों के अनुसार तैयार किया जाता है। उदाहरण के लिए पहली से पांचवी कक्षा तक, हर कक्षा का पाठ्यक्रम 220 दिनों में पूरा किया जाना चाहिए। यानि यह माना गया है कि हर पाठ्यक्रम को पूरा करवाने के लिए 220 दिनों की जरूरत हैI

अगर इस स्कूल की पहली से पांचवी कक्षा तक की पांच कक्षाओं के लिए केवल एक टीचर है तो 5 कक्षाओं का पाठ्यक्रम पूरा करवाने में उसे 1100 दिन लगेंगे I लेकिन पांच कक्षाओं के लिए एक टीचर होने पर यह माना जा रहा है कि वह टीचर 1100 दिनों के लिए बनाया गया पाठ्यक्रम 220 दिनों में पूरा करवा देगा।

जैसे कि 1100 दिनों के लिए बने पाठ्यक्रम को 220 दिनों में पूरा करवाने का जादू दूरदराज के इलाकों के टीचर को ही आता है, शहरों के टीचर्स को नहीं ! जैसे कि दूरदराज के इलाकों के टीचर्स की ट्रेनिंग के दौरान उन्हें ऐसा जादू करना सिखाया जाता हो ! लेकिन हम जानते हैं कि ना तो ऐसा कोई जादू होता है और न ही ऐसा कोई जादू सिखाया जाता है।

ऐसी स्थिति में उस स्कूल की प्रत्येक कक्षा को अपेक्षित समय से पांच गुना कम समय मिलेगा और विद्यार्थियों के सीखने की संभावना भी बहुत कम होगी I यही सच है। सरकार प्यूपिल-टीचर रेश्यो को कैलकुलेट करने का कोई अन्य तरीका नहीं निकल रही है और बच्चों के न सीखने का ठीकरा नो- डिटेंशन पॉलिसी पर फोड़ा जा रहा हैI

अब हम सरकारी स्कूलों में शिक्षा की गुणवत्ता के कमजोर होने के दूसरे कारण को समझते हैं। सरकारी स्कूलों में शिक्षा की गुणवत्ता के कमजोर होने का दूसरा कारण यह है कि सरकारी टीचर्स से ऐसे अनेक “नॉन-एजुकेशनल” काम करवाए जाते हैं जो प्राइवेट स्कूल के टीचर्स को नहीं करने पड़ते।

राइट टू एजुकेशन एक्ट के Cluse 27 में कहा गया है कि “No teacher shall be deployed for any non-educational purposes other than the decennial population census, disaster relief duties or duties relating to elections to the local authority or the State Legislatures or Parliament, as the case may be.”

एक्ट के अनुसार टीचर्स को जनगणना, आपदा राहत, और चुनाव के कामों में लगाया जा सकता हैI लेकिन ये तो भारत देश हैI यहां गुरुओं का बहुत सम्मान किया जाता है। इसलिए कुछ राज्य सरकारों ने टीचर्स को खुले में शौच कर रहे लोगों के फोटो और वीडियो बनाने जैसे कामों में भी लगाया। जैसा कि स्वच्छ भारत अभियान के दौरान देखने में आया।

राजस्थान में टीचर्स से कहा गया कि वे खुले में शौच कर रहे लोगों के साथ अपनी सेल्फी को व्हाट्सएप पर शेयर करेंगे I वाह भई वाह! “विश्व गुरु” भारत ने, गुरुओं को कितना डिग्निफाइड काम करने को कहा गया! स्वच्छ भारत अभियान के दौरान टीचर्स से कहा गया कि वे कक्षाओं को छोड़कर अपने फोन के साथ खेतों झाड़ियां में जाएं और वहां शौच के लिए बैठे नर-नारियों की वीडियो बनाएं और उन्हें व्हाट्सएप पर शेयर करें।

क्या ऐसे टीचर्स अपने विद्यार्थियों को राइट टू प्राइवेसी जैसे फंडामेंटल राइट का बोध कराने में सफल हो पाएंगे, जो खुद दूसरों की प्राइवेसी में केवल प्रवेश ही नहीं कर रहे, बल्कि उसका वीडियो बना रहे हैं और उसे शेयर भी कर रहे हैं।

जिन आदेशों के तहत टीचर्स को शौच करते लोगों के साथ सेल्फी खिंचवाने के लिए कहा गया, ऐसे आदेश बताते हैं कि सरकारों की नजर में शिक्षा के काम के लिए सम्मान बेहद कम हैI क्योंकि याद रखिए कि वो अपमानजनक और किसी की प्राइवेसी को भंग करने का काम टीचर्स को करने के लिए कहा गया, बैंक के क्लर्क को नहींI

वैसे राइट टू एजुकेशन एक्ट में आपदा कोई पारिभाषिक शब्द नहीं है। इसलिए खुले में शौच करना भी आपदा मान लिया गया और राइट टू एजुकेशन एक्ट के क्लॉज 27 को खुले में शौच करने पर भी लागू कर दिया गया। इसे कहते हैं डिस्ट्रक्टिव क्रिएटिव माइंड।

उत्तर प्रदेश सरकार ने आदेश निकाला कि टीचर्स कांवड़ियों की सेवा करेंगे। उत्तर प्रदेश सरकार को कांवड़ियों के पैर के दर्द में राष्ट्रीय आपदा दिखाई दे गयीI इसलिए उसने टीचर्स को कांवड़ियों के पैर दबाने के काम में लगा दिया। जिस समय स्कूल टीचर्स कांवड़ियों के पैर दबा रहे होंगे, उस समय उनके स्कूल के बच्चे क्या करेंगे? इसलिए उत्तर प्रदेश सरकार ने कांवड़ यात्रा के दौरान स्कूल ही बंद करवा दिएI

ऐसी स्थिति में विद्यार्थी को मिलने वाले समय में और भी कटौती हो जाती है। जो देश धार्मिक अंधविश्वास फैलाने में मदद करने को, बच्चों की शिक्षा के अधिकार से ज्यादा महत्त्वपूर्ण मानता हो, उसे शिक्षा की गुणवत्ता की चिंता क्यों कर होने लगी !

अभी तक मैंने शिक्षा की गुणवत्ता को नकारात्मक रूप से प्रभावित करने वाले दो कारकों को आपके सामने रखा। वे दो कारक थे प्यूपिल-टीचर रेश्यो की व्याख्या और दूसरा टीचर्स से लिए जाने वाले नॉन-एजुकेशनल काम I

अब मैं तीसरे कारण को आपके सामने रख रहा हूं। तीसरा कारण है प्राइवेट स्कूलों का विस्तारI

मानव संसाधन विकास मंत्रालय की एक  रिपोर्ट हैI जिसका शीर्षक है “स्टैटिस्टिक्स आफ स्कूल एजुकेशन, 2009-10”. इस रिपोर्ट के अनुसार 2009-10 में भारत के कुल स्कूलों में से 15% प्राइवेट अन-एडेड स्कूल थे I यानि 100 में से 15 स्कूल प्राइवेट अन-एडेड थेI

2009-10 में ही सीनियर सेकेंडरी लेवल के 34% स्कूल प्राइवेट अन-एडेड थेI थोड़ा इतिहास में पीछे जाएं और पता करें कि प्राइवेट स्कूलों की संख्या में किस रफ्तार से वृद्धि हुई है तो हमें पता चलेगा कि 1973-74 में 6% सीनियर सेकेंडरी स्कूल प्राइवेट अन-एडेड थे। 1973 से 2009 के बीच सीनियर सेकेंडरी लेवल के प्राइवेट अन-एडेड स्कूलों की संख्या 6% से बढ़कर 34% हो गयीI

2023-24 में कुल स्कूलों में से 22% प्राइवेट अन-एडेड स्कूल हैं। 2009 में राइट टू एजुकेशन एक्ट आने के बाद भी प्राइवेट अन-एडिड स्कूलों का विस्तार रुका नहीं। 2009 से 2023 के बीच प्राइवेट अन-एडिड स्कूलों की संख्या में 7% की बढ़ोतरी हुईI

राइट टू एजुकेशन आने के बाद भी प्राइवेट अन-एडेड स्कूलों की संख्या में 7% की वृद्धि होने का मतलब यह है कि सरकार ने फ्री और अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध करवाने के प्रति अपनी जिम्मेदारी को कम किया हैI जिसका परिणाम प्राइवेट अन-एडेड स्कूलों की बढ़ोतरी के रूप में सामने दिख रहा है।

2023-24 में कुल स्कूलों की संख्या 14,71,891 है। इनमें से सीनियर सेकेंडरी स्कूलों की संख्या केवल 16,370 है। यानि भारत के कुल स्कूलों में से केवल एक प्रतिशत स्कूल ही सीनियर सेकेंडरी स्कूल हैंI

कुल 16,370 सीनियर सेकेंडरी स्कूलों में से 10,928 स्कूल प्राइवेट अन-एडेड हैं I इसका अर्थ यह हुआ कि कुल सीनियर सेकेंडरी स्कूलों में से 67% स्कूल प्राइवेट अन-एडेड हैं I शिक्षा के निजीकरण की यह एक डरावनी तस्वीर हैI

हमने देखा कि विद्यार्थियों के न सीख पाने के तीन प्रमुख कारण हैं। पहला कारण है प्यूपिल-टीचर रेश्यो को स्कूल में विद्यार्थी की कुल संख्या के आधार पर तय करना, ना कि प्रत्येक कक्षा में विद्यार्थियों की संख्या के आधार पर तय करनाI दूसरा कारण सरकारी स्कूल टीचर्स को नॉन-एजुकेशनल ड्यूटीज पर लगाना और तीसरा कारण है स्कूली शिक्षा का निजीकरण और व्यावसायीकरण I

स्कूलों के निजीकरण के कारण ऐसे वातावरण का निर्माण होता है जिसमें अनेक सरकारी शिक्षक या शिक्षिकाएं, सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों की पढ़ने की क्षमता के बारे में पूर्वाग्रह से ग्रसित हो जाते हैं। सरकारी स्कूलों के अनेक टीचर्स को यह कहते हुए सुना जा सकता है कि सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे सीख ही नहीं सकतेI

वे ऐसा इसलिए कह पाते हैं, क्योंकि उनके अपने बच्चे प्राइवेट स्कूल में पढ़ रहे होते हैं। इसलिए सरकारी स्कूल के टीचर होते हुए भी वे सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रसित होते हैं।

ऐसी स्थितियों में यह सवाल उठता है कि नो-डिटेंशन पॉलिसी के रद्द होने से सरकारी स्कूल के विद्यार्थियों पर क्या असर पड़ेगा?

विद्यार्थियों को फेल कर सकने की नीति के वापस आ जाने के कारण यह आशंका प्रबल हो गई है कि अब पांचवी कक्षा के बाद ड्रॉप आउट होने वाले विद्यार्थियों की संख्या में काफी वृद्धि होगी और इसी प्रकार आठवीं कक्षा के बाद ड्रॉप आउट विद्यार्थियों की संख्या में भी वृद्धि होगी।

क्योंकि जिन तीन कारणों से सरकारी स्कूलों में सीखने-सिखाने का वातावरण बिगड़ा है, उन कारणों को दूर करने पर कोई नीतिगत फैसला सामने नहीं आया है।

न तो यह कहा जा रहा है कि प्यूपिल-टीचर रेश्यो को कैलकुलेट करने के तरीके में बदलाव किया जाएगा, न ही यह कहा जा रहा है कि टीचर्स को किसी भी नॉन-एजुकेशनल काम में नहीं लगाया जाएगा, और न ही शिक्षा के निजीकरण को रोकने की कोई नीति सामने आई है।

इसलिए ऐसे में नो-डिटेंशन पॉलिसी के वापस आ जाने का सीधा-सीधा मतलब यह है कि आने वाले समय में मिडिल स्कूलों में विद्यार्थियों की संख्या और भी ज्यादा घटेगी और फिर स्कूलों की संख्या भी घटेगीI

पहले नो-डिटेंशन पॉलिसी थी और अब नहीं है I इसके होने या ना होने से  शिक्षा की गुणवत्ता पर बहुत बड़ा फर्क नहीं पड़ने वाला है, जब-तक कि सरकार उन कारणों को दूर नहीं करती जिनकी वजह से शिक्षा की गुणवत्ता नकारात्मक रूप से प्रभावित हो रही है।

(बीरेंद्र सिंह रावत, शिक्षा-विभाग, दिल्ली-विश्वविद्यालय)

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