रिटायरमेंट के बाद सत्ता में पद के ख्वाहिशमंदों से न्याय की उम्मीद करना बेकार

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सेवा में रहते हुए राजद्रोह कानून के दुरुपयोग और बहुसंख्यकवाद के खिलाफ खुलकर बोलने वाले जस्टिस दीपक गुप्ता ने न्यायपालिका को बिना किसी लाग लपेट के जमकर उसके अधिकारों और कर्तव्यों को नये सिरे से याद दिलाया। जस्टिस गुप्ता ने अपने संबोधन में न्याय व्यवस्था पर सवाल उठाए। निर्भीकता से अपने निर्णयों या व्याख्यान में बेबाक विचार व्यक्त करने वाले जस्टिस दीपक गुप्ता ने अपने एक फैसले में कहा था कि जो लोग रिटायरमेंट की दहलीज़ पर हैं और सत्ता के गलियारों में रिटायरमेंट के बाद आराम दायक नौकरी पाने की कशमकश में हैं, उनसे न्याय की उम्मीद नहीं की जा सकती। जस्टिस दीपक गुप्ता ने एक निर्णय में यह भी कहा था कि भारत जैसे देश में जहां लोकतंत्र फर्स्ट पास्ट द पोस्ट सिस्टम पर आधारित है, वहां सत्ता में आने वाले मतदाताओं के बहुमत का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं।

बुधवार को अपने विदाई भाषण में उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश जस्टिस दीपक गुप्ता ने कहा कि संविधान जजों की पवित्र पुस्तक है और जब एक न्यायाधीश अदालत में बैठता है, तो उसे अपनी धार्मिक मान्यताओं को भूलना होगा और केवल इस संविधान के आधार पर मामले तय करने होंगे जो हमारी बाइबिल, हमारी गीता, हमारे कुरान, हमारे गुरु ग्रंथ साहिब और अन्य ग्रंथ हैं।

सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस दीपक गुप्ता बुधवार को रिटायर हो गए। उन्हें वीडियो कॉन्फ्रेंसिग के जरिए फेयरवेल दिया गया। देश के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ। जस्टिस गुप्ता ने अपने संबोधन में न्याय व्यवस्था पर सवाल उठाए। उन्होंने कहा कि देश का लीगल सिस्टम अमीरों और ताकत वरों के पक्ष में हो गया है। जज ऑस्ट्रिच की तरह अपना सिर नहीं छिपा सकते, उन्हें ज्यूडिशियरी की दिक्कतें समझकर इनसे निपटना चाहिए।

जस्टिस गुप्ता ने कहा कि कोई अमीर सलाखों के पीछे होता है तो कानून अपना काम तेजी से करता है लेकिन, गरीबों के मुकदमों में देरी होती है। अमीर लोग तो जल्द सुनवाई के लिए उच्च अदालतों में पहुंच जाते हैं लेकिन, गरीब ऐसा नहीं कर पाते। दूसरी ओर कोई अमीर जमानत पर है तो वह मुकदमे में देरी करवाने के लिए भी वह उच्च अदालतों में जाने का खर्च उठा सकता है।

उन्होंने कहा कि न्यायपालिका को खुद ही अपना ईमान बचाना चाहिए। देश के लोगों को ज्यूडिशियरी में बहुत भरोसा है। जब कोई किसी गरीब की आवाज उठाता है तो सुप्रीम कोर्ट को उसे सुनना चाहिए और जो भी गरीबों के लिए किया जा सकता है वो करना चाहिए। किसी भी परिस्थिति में संस्थान की अखंडता ( ईमानदारी)  को दांव पर नहीं लगाया जा सकता है। न्यायपालिका को हर अवसर पर उठना चाहिए। मुझे यकीन है कि मेरे भाई जजों के चलते यह सुनिश्चित किया जाएगा कि लोगों को अदालत से जो चाहिए वह मिल जाए।

जस्टिस गुप्ता ने बार को भी नहीं बख्शा। उन्होंने कहा कि जब आप एक मानवीय न्यायपालिका की उम्मीद करते हैं, तो बार को भी मानवीय होना चाहिए। आप अपने मुवक्किलों से आसमान छूते शुल्क नहीं ले सकते हैं। जस्टिस गुप्ता ने कहा कि मुझे यह कहते हुए खेद है, पिछले एक महीने में दायर की गई कुछ रिट याचिकाएं इतनी खराब तरीके से तैयार की गई हैं और नीतियों को बदलना चाहिए। इसलिए, वकीलों से मेरा अनुरोध है कि वे बंदूक न उठाएं और कोर्ट का दरवाजा खटखटाने से पहले इस पर विचार करें। संस्थान की अखंडता को किसी भी परिस्थिति में दांव पर नहीं लगाया जा सकता है।

जस्टिस गुप्ता कई उल्लेखनीय निर्णयों का हिस्सा रह चुके हैं, परंतु उन्हें राजद्रोह कानून के दुरुपयोग और असहमतिपूर्ण आवाजों को दबाने की बढ़ती प्रवृत्ति पर उनके स्पष्ट और बेबाक भाषणों के लिए विशेष रूप से याद किया जाता है। सितंबर 2019 में अहमदाबाद में न्यायमूर्ति पीडी देसाई मेमोरियल लेक्चर में उन्होंने भाग लिया था और अपने विचार प्रकट किए थे।

न्यायमूर्ति गुप्ता ने कहा था कि पिछले कुछ वर्षों में कई ऐसे मामले सामने आए हैं, जहां राजद्रोह कानून या असामंजस्य पैदा करने के कानून का पुलिस ने दुरुपयोग किया है। इन मामलों में पुलिस ने ऐसे लोगों को गिरफ्तार करके प्रताड़ित किया है, जिन्होंने सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ द्वारा देशद्रोह के अपराध के लिए दी गई निर्धारित व्यवस्था के अनुसार ऐसा अपराध नहीं किया था। आईपीसी धारा 124 ए के प्रावधानों का जिस तरह से दुरुपयोग हो रहा है, उससे यह सवाल उठता है कि क्या हमें इस पर फिर से ध्यान देना चाहिए।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को संवैधानिक अधिकार होने के कारण राजद्रोह के कानूनों पर प्रधानता या तरजीह मिलनी चाहिए। कार्यपालिका, न्यायपालिका, सशस्त्र सेनाओं की आलोचना राजद्रोह नहीं है।न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता सरकार पर सवाल उठाने वालों को देशद्रोही कहने की प्रवृत्ति पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा था कि कोई व्यक्ति सत्ता में आई सरकार के साथ सहमत नहीं है या सत्ता में आई सरकार की आलोचना करता है, सिर्फ इस आधार उसे यह नहीं कहा जा सकता है कि वह देशभक्त नहीं है या सत्ता में बैठे लोगों की तुलना में उसकी देशभक्ति कम है।

उन्होंने यह भी कहा था कि लोकतंत्र का एक बहुत महत्वपूर्ण पहलू यह है कि नागरिकों को सरकार से कोई डर नहीं होना चाहिए। उन्हें उन विचारों को व्यक्त करने में कोई डर महसूस नहीं होना चाहिए, जो सत्ता में रहने वाले लोगों को पसंद न आते हों। इसमें कोई संदेह नहीं है कि हिंसा को भड़काए बिना विचारों को सभ्य तरीके से व्यक्त किया जाना चाहिए, लेकिन इस तरह के विचारों की अभिव्यक्ति केवल कोई अपराध नहीं हो सकता है। वहीं इन्हें नागरिकों के खिलाफ उपयोग नहीं किया जाना चाहिए। अगर लोग केस दायर होने या सोशल मीडिया पर ट्रोल होने के किसी डर के बिना अपनी राय रख पाएं तो यह दुनिया रहने के लिए एक बेहतर जगह होगी।उन्होंने जोर देते हुए कहा कि कार्यपालिका, न्यायपालिका, नौकरशाही या सशस्त्र बलों की आलोचना को देशद्रोह नहीं कहा जा सकता।

एससीबीए द्वारा पिछले साल फरवरी में आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान न्यायमूर्ति गुप्ता ने बहुसंख्यकवाद या बहुमतवाद के खतरों के बारे में बात की थी। उन्होंने ने कहा कि बहुमतवाद लोकतंत्र का विरोधी है। उन्होंने कहा कि अगर किसी पार्टी को 51 प्रतिशत वोट मिलते हैं, तो इसका मतलब यह नहीं है कि अन्य 49 फीसद को बिना किसी विरोध के वह सब स्वीकार कर लेना चाहिए, जो बहुमत वाली पार्टी करेगी।अगर किसी पार्टी को 51 फीसद वोट मिले हैं तो इसका मतलब यह नहीं कि 49 फीसद लोग उसकी सारी बातें बिना किसी विरोध के मान लें। जस्टिस दीपक गुप्ता ने कहा था कि भारत जैसे देश में जहां लोकतंत्र फर्स्ट पास्ट द पोस्ट सिस्टम पर आधारित है, वहां सत्ता में आने वाले मतदाताओं के बहुमत का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं।

जस्टिस गुप्ता ने कहा कि अगर किसी देश को समग्र रूप से विकसित होना है तो न केवल आर्थिक विकास और सैन्य जरूरी है बल्कि नागरिकों के नागरिक अधिकारों की रक्षा भी की जानी चाहिए। सवाल करना, चुनौती देना, सत्यापन करना, सरकार से जवाब मांगना, ये हर नागरिक के अधिकार हैं। इन अधिकारों को वापस लेने से हम एक निर्विवाद, रुग्ण समाज बन जाएंगे, जो आगे विकसित नहीं हो पाएगा।

जस्टिस दीपक गुप्ता और जस्टिस एमबी लोकुर की पीठ ने निपुण सक्सेना मामले में फैसला सुनाया था, जिसमें बलात्कार के अपराधों की रिपोर्टिंग करते समय बलात्कार पीड़िताओं की गोपनीयता और गरिमा की रक्षा के लिए विस्तृत दिशानिर्देश दिए गए थे। इंडिपेंडेंट थॉट बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के मामले में भी जस्टिस दीपक गुप्ता बेंच का हिस्सा थे। जहां एससी ने आईपीसी की धारा 375 के अपवाद-दो को पढ़ते हुए माना था कि नाबालिग पत्नी के साथ सेक्स करना भी बलात्कार होता है। जस्टिस  गुप्ता ने उस पीठ का भी नेतृत्व किया जिसने स्वत: संज्ञान लेते हुए विशेष अदालतों के गठन और पक्षों के मामलों के लिए विशेष लोक अभियोजकों की नियुक्ति के निर्देश दिए थे।

जस्टिस गुप्ता ने संविधान पीठ के फैसले में अलग परंतु निर्णायक फैसला दिया था, जो रेजर मैथ्यू बनाम साउथ इंडियन बैंक लिमिटेड व अन्य के मामले में दिया गया था। न्यायिक स्वतंत्रता और सेवानिवृत्ति के बाद के लाभों पर टिप्पणियों के लिए यह उल्लेखनीय है। उन्होंने अपने फैसले में कहा था कि जो लोग रिटायरमेंट की दहलीज़ पर हैं और सत्ता के गलियारों में रिटायरमेंट के बाद आराम दायक नौकरी पाने की कशमकश में हैं, उनसे न्याय की उम्मीद नहीं की जा सकती।

(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार होने के साथ कानूनी मामलों के जानकार हैं।)

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