चीन के सवाल में हैं कुछ ‘क्यों’ और ‘कैसे’ भी 

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भारतीय वित्त मंत्रालय के आर्थिक सर्वेक्षण में लगातार दूसरी बार चीन की आर्थिक सफलताओं पर ‘क्या करें और क्या नहीं’ जैसी दुविधा देखने को मिली है। वैसे तो यह अच्छी बात है कि अब ना सिर्फ मौजूदा सरकार, बल्कि विपक्ष भी आर्थिक एवं तकनीकी प्रगति में भारत के चीन से पिछड़ जाने की हकीकत को स्वीकार कर रहा है। मगर लगे हाथ इस पर उनमें एक तरह का भौंचक्कापन देखने को मिलता है। 

संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने कहा कि चीन हमसे दस साल आगे निकल गया है। ऐसे वाक्यों से अक्सर एक तरह के भोलेपन का अहसास होता है, क्योंकि आगे निकलने या पीछे छूट जाने का सवाल तब आता है, जब धावक एक ही दिशा में दौड़ रहे हों। धावक अगर उलटी दिशा में दौड़ रहे हों, तो फिर लाजिमी है कि वे अलग मुकाम पर ही पहुंचेंगे। 

हकीकत यह है कि जिन नीतियों और आर्थिक दर्शन पर चलते हुए चीन ने बेमिसाल कामयाबियां हासिल की हैं, भारत ने 1991 में ही उनसे उलटी दिशा अपना ली थी। इस जिस दिशा में जहां पहुंचा जा सकता था, भारत उसी ओर गया है। और ये कहानी सिर्फ भारत की नहीं है।

जो भी देश इस दिशा में चले, वे इसी ओर गए हैं। राहुल गांधी ने अमेरिका के सहयोग से भारत को चीन का मुकाबला करने की सलाह दी, जबकि तथ्य यह है कि इन नीतियों की यह राह का सरदार अमेरिका ही है। इस राह पर चलते हुए उसने खुद अपनी उत्पादक क्षमता खो दी है और वह खुद चीन का मुकाबला करने के लिए संघर्ष कर रहा है। 

नेता विपक्ष की बातों पर बाद में आएंगे। पहले देखते हैं कि बीते 31 जनवरी को संसद में पेश हुए 2024-25 के आर्थिक सर्वे में क्या कहा गया है। आर्थिक सर्वे में दो टूक स्वीकार किया गया है कि,

  • भारत का मैनुफैक्चरिंग सेक्टर महत्त्वपूर्ण चुनौतियों का सामना कर रहा है, जिसका एक खास कारण चीन के सप्लाई चेन पर बनी भारत की निर्भरता है। 
  • सौर ऊर्जा उपकरणों और रेयर अर्थ सामग्रियों जैसी अति-महत्त्वपूर्ण चीजों की सप्लाई के लिए चीन पर भारत की निर्भरता को लेकर रिपोर्ट में गंभीर चिंता जताई गई है। 
  • ध्यान दिलाया गया है कि वैश्विक मैनुफैक्चरिंग उत्पादन में चीन का हिस्सा 28.8 प्रतिशत है, जबकि भारत का हिस्सा सिर्फ 2.8 फीसदी है। यह दोनों देशों की औद्योगिक क्षमता में भारी अंतर का संकेत है। 
  • कहा गया है कि इलेक्ट्रॉनिक्स, अक्षय ऊर्जा, औषधि आदि क्षेत्रों में चीन के वर्चस्व और वहां की आक्रामक औद्योगिक नीतियों के कारण भारत की मैनुफैक्चरिंग महत्त्वाकांक्षाओं के आगे रुकावटें आ रही हैं। 
  • जिक्र किया गया है कि अमेरिका और यूरोपियन यूनियन ने चीनी आयात पर निर्भरता घटाने के कदम उठाए हैं, लेकिन भारत अभी तक इन परिवर्तनों का लाभ नहीं उठा पाया है। 
  • कहा गया है कि चीन की वर्तमान आपूर्ति शृंखलाओं (supply chains) से अलग होने के लिए भारत में बहुत बड़े निवेश की जरूरत है।
  • इसके बाद प्रोडक्शन लिंक्ड इनेसेंटिव्स (PLI) जैसे उन उपायों का जिक्र कहा गया है, जिनके जरिए भारत सौर ऊर्जा एवं इलेक्ट्रॉनिक मैनुफैक्चरिंग में आत्म-निर्भरता हासिल करने पर ध्यान केंद्रित कर रहा है। “लेकिन मौजूदा उत्पादन स्तर अभी भी घरेलू मांग को पूरा करने के लिहाज से अपर्याप्त है।” (file:///C:/Users/satye/Downloads/echapter.pdf)

इसके पहले पिछली जुलाई में (2024 के आम चुनाव के बाद नई सरकार बनने के बाद) पेश आर्थिक सर्वेक्षण में और भी अधिक दो टूक ढंग से कुछ महत्त्वपूर्ण बातें कही गई थीं। उस सर्वे रिपोर्ट में एक अध्याय A Growth Vision for New India (नए भारत के लिए विकास दृष्टि) शीर्षक से शामिल किया गया था। उसी अध्याय में एक उप-शीर्षक थाः The Chinese Conundrum (चीन संबंधी पहेली)। उसमें कहा गयाः 

  • ‘’भारत और चीन के बीच आर्थिक संबंधों का गतिशास्त्र लगातार बेहद जटिल और अंतर्संबंधित बना हुआ है। विभिन्न उत्पाद श्रेणियों में विश्व आपूर्ति शृंखलाओं पर चीन का दबदबा आज एक प्रमुख वैश्विक चिंता है- खास कर यूक्रेन युद्ध के साथ आपूर्ति बाधाएं उत्पन्न होने के बाद ये स्थिति बनी है। हालांकि जी-20 के भीतर भारत सबसे तेज गति से उभरती अर्थव्यवस्था है और अब चीन से भी अधिक तीव्र गति से विकसित हो रहा है, मगर आज भी भारत चीन की अर्थव्यवस्था की तुलना में एक छोटा हिस्सा ही है। रेयर-अर्थ सामग्रियों के उत्पादन और प्रोसेसिंग पर चीन की लगभग एकाधिकार की स्थिति वैश्विक चिंता का कारण बन चुकी है। भारत के अक्षय ऊर्जा कार्यक्रम पर भी इसका खास असर पड़ेगा। भारत की स्थिति कमजोर है, क्योंकि आयातित कच्चे माल पर भारत की अति निर्भरता है। इस पृष्ठभूमि के कारण यह सोचना विवेक-सम्मत नहीं होगा कि हलके मैनुफैक्चरिंग के क्षेत्र में चीन जो जगह खाली कर रहा है, उसे भारत भर देगा। असल में हाल के आंकड़ों से इस बारे में संदेह पैदा हो गया है कि क्या सचमुच चीन हलके मैनुफैक्चरिंग के क्षेत्र से हट भी रहा है। भारत के सामने उपस्थित प्रश्न हैः (क) चीन के सप्लाई चेन से जुड़े बिना क्या भारत के लिए यह संभव है कि वह वैश्विक सप्लाई चेन से जुड़ पाए? और, (ख) चीन से सामग्रियां आयात करने और पूंजी आयात करने के बीच सही संतुलन क्या होना चाहिए? जब विभिन्न देश अपने कारोबार का स्थानांतरण कर रहे हैं, उन्हें दोस्त देशों में ले जा रहे हैं, उस समय चीन के बारे में भारत के सामने नीति संबंधी चयन की कठिन चुनौती है।” ((Economic Survey Complete PDF.pdf)
  • इस रिपोर्ट में इस बात की स्वीकारोक्ति महत्त्वपूर्ण है कि फिलहाल अर्थव्यवस्था संबंधी और व्यापार के क्षेत्र में भारत चीन के साथ प्रत्यक्ष होड़ में नहीं है।
  • अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों की कथित decoupling और derisking रणनीति का लाभ उठाते हुए उत्पादन और विश्व आपूर्ति शृंखलाओं में चीन की जगह भारत ले लेगा, इसकी फिलहाल कोई संभावना नहीं है। कारण यह कि भारतीय अर्थव्यवस्था अभी उतनी सक्षम नहीं है।
  • इसलिए भारत को अगर विश्व आपूर्ति शृंखला में भागीदारी निभानी है, तो उसके पास इसके अलावा कोई और विकल्प नहीं है कि पहले वह चीन की आपूर्ति शृंखलाओं से जुड़े। कहा गयाः इस क्रम में दो विकल्प हैं। एक तो यह कि अभी की तरह भारत चीन से सामग्रियों का आयात बढ़ाए, जिससे उसका व्यापार घाटा बढ़ता जाएगा। यह व्यापार संबंधी एक बड़ी चुनौती है। दूसरा विकल्प यह है कि चीनी पूंजी, तकनीक, और विशेषज्ञता को भारत आमंत्रित किया जाए, ताकि वे यहां उत्पादन शृंखला निर्मित करने में सहायक बनें।

यह तो भारत सरकार की समझ हुई। अब आइए, विपक्ष की राय पर गौर करते हैं। इंडिया गठबंधन की काल्पनिक सरकार की तरफ से दिए जाने वाले काल्पनिक अभिभाषण में राष्ट्रपति क्या कहेंगे, इसका जिक्र राहुल गांधी ने किया। कहा- हम जीवाश्म ऊर्जा से चलने वाले इंजन से बिजली संचालित इंजन की तरफ बढ़ रहे हैं। हम पेट्रोल से बैटरी के युग में जा रहे हैं।

चीन इस क्रांति में अग्रणी रहे, यह जोखिम हम नहीं उठा सकते। हम अपने युवा सहभागियों को इस मोबिलिटी (संचालन) क्रांति में भागीदार बनाएंगे। हम उनमें अपना यह भरोसा जताएंगे कि वे चीनियों का मुकाबला करने में सक्षम हैं। राहुल गांधी ने यह सुझाव भी दिया कि भारत को अपने “रणनीतिक सहभागी” अमेरिका के साथ मिल कर मोबिलिटी क्रांति का लाभ उठाना चाहिए।

(https://www.youtube.com/watch?si=QkV-VnyIePJujMoK&v=aACgqdEq0F4&feature=youtu.be)

कथित इंडिया गठबंधन में शामिल एक अन्य प्रमुख दल समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने भी अपने भाषण में भारत के चीन से पिछड़ जाने का जिक्र किया, हालांकि इसका काफी दोष उन्होंने कांग्रेस के माथे ही मढ़ दिया। उन्होंने कहा कि 1990 के बाद जिस समय अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र को खोल दिया गया, उसी समय उचित ध्यान दिया गया होता, तो आज चीन नहीं, बल्कि भारत आगे होता। 

(https://www.youtube.com/watch?si=IpeNuHzsP_zk_jVS&v=duiUHh-K2tA&feature=youtu.be)

आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट हों, या विपक्षी नेताओं के भाषण, उनमें चीन की तुलना में भारत के पिछड़ जाने की बात को स्वीकार किया जाना अच्छा संकेत है। मगर राहुल गांधी ने दावा किया कि उपभोग, जिसे उन्होंने सेवा क्षेत्र के साथ जोड़ कर देखा, बढ़ाने की दिशा में भारत की प्रगति अच्छी रही है। इसका श्रेय उन्होंने तत्कालीन कांग्रेस सरकारों को दिया, जिन्होंने “तब हो रही कंप्यूटर क्रांति को समझा और उसके मुताबिक रणनीति अपनाई”। बेशक सेवा क्षेत्र में भारत ने मैनुफैक्चरिंग की तुलना में बेहतर प्रदर्शन किया है। मगर तुलना चीन से हो, तो यहां भी भारत की सूरत अच्छी नहीं उभरती। सिर्फ ताजा आंकड़ों पर गौर कीजिएः 

  • 2024 में चीन का सेवा निर्यात एक ट्रिलियन डॉलर तक पहुंच गया। 

(https://news.cgtn.com/news/2025-02-03/China-s-annual-trade-in-services-exceeds-1-trillion-for-first-time-1AGof3wfbd6/p.html)

  • यानी चीन सेवा क्षेत्र में भी भारत से लगभग पौने तीन गुना अधिक निर्यात कर रहा है।

यह तथ्य है कि भारत और चीन ने नए दौर में अपनी यात्रा लगभग एक साथ शुरू की थी। भारत 1947 में आजाद हुआ और चीन में 1949 में कम्युनिस्ट क्रांति हुई। उस समय विकास के पैमानों पर दोनों देशों की स्थिति एक जैसी थी। अब दोनों देश अपनी विकास यात्रा में जिस मुकाम पर हैं, उसकी तुलना चर्चा या अध्ययन का एक तार्किक विषय है।

अच्छी बात है कि अब भारत में कम-से-कम इस मामले में खुल कर बात हो रही है। मगर इस सवाल में जो ‘क्यों’ और ‘कैसे’ हैं, वे अभी भी बातचीत से बाहर हैं। अभी जो चर्चा चल रही है, उसमें-

  • अगर आप भाजपा नेताओं से बात करें, तो वे कहते मिलेंगे कि उनकी पार्टी के सत्ता में आने के पहले कुछ नहीं हुआ, इसलिए भारत के पिछड़ जाने का सारा दोष नेहरू और नेहरूवादी नीतियों पर है
  • कांग्रेस के नेता इसके लिए नरेंद्र मोदी सरकार की विफलताओं पर दोष मढ़ते नजर आएंगे
  • और अब एक धारा अखिलेश यादव जैसे नेताओं का है, जो इसके लिए दोनों बड़ी पार्टियों को जिम्मेदार मानते हैं। लेकिन वे यह नहीं बताते कि अगर देश की कमान उनकी सोच के नेताओं के हाथ में आती, तो वे क्या करते? क्या वे चीन ने जो मॉडल अपनाया, उसी का अनुपालन करते या उनके पास कोई ऐसा मॉडल है, जो अब तक चर्चा के दायरे से बाहर बना हुआ है?  

हकीकत यह है कि इन तीनों तरह की सोच में एक खास समानता है। वे इस सवाल में नहीं जाना चाहते कि चीन देखते-देखते ‘क्यों’ आर्थिक एवं तकनीक क्षेत्र में महाशक्ति बन गया और उसने ये सफलताएं ‘कैसे’- यानी किस रास्ते पर चलते हुए हासिल कीं? इन सवालों में जाना भारत के तमाम राजनीतिक दलों के लिए असुविधाजनक है, क्योंकि उस क्रम में उन सबकी वैचारिक दिशा, तबकाई नजरिया और प्राथमिकताएं सवालों से घिरे नजर आएंगे।

इस लेख में हम भी इन सवालों पर विस्तार से चर्चा में नहीं जाएंगे। लेकिन चंद पहलुओं का यहां हम सूत्र रूप में उल्लेख अवश्य करेंगे। पहले ‘क्यों’ को लें, तो यह स्पष्ट होगा कि चीन ने हमसे बिल्कुल अलग विकास मॉडल को अपनाया। खासकर 1991 के बाद तो यह मॉडल परस्पर विरोधी दिशा में चला गया। चीनी मॉडल में,

  • पहला जोर मानव क्षमताओं के सर्वांगीण विकास पर दिया गया।
  • इसमें एक स्तर हासिल कर लेने के बाद समृद्ध समाज बनाने की यात्रा शुरू की गई। इसमें राज्य की हमेशा नेतृत्वकारी भूमिका रही। नियोजन इसका प्रमुख पहलू रहा।
  • व्यावहाहिक लक्ष्य तय करना और उसे हासिल करते हुए आगे बढ़ना उसकी रणनीति रही।
  • अनुभवों से सीखते हुए रणनीतियां बदली गईं, लेकिन लक्ष्य हमेशा स्पष्ट रहा। इस लक्ष्य को आज वहां साझा समृद्धि (common prosperity) और पारिस्थिकीय सभ्यता (ecological civilization) के निर्माण के रूप में व्यक्त किया जाता है।
  • लंबे समय तक चीन hide strength, bide time (ताकत को परदे के अंदर रखते हुए समय काटने) की नीति पर चला। इसीलिए इस सदी के दूसरे दशक में आकर उसकी ताकत का अहसास दुनिया को हो पाया।

‘कैसे’ को समझने की ओर जाएं, तो सामने आएगा कि उस दौर में भी जब ‘इतिहास के अंत’ की घोषणा कर दी गई थी, चीन ने पश्चिम से आए नव-उदारवादी विचारों को स्वीकार नहीं किया। वहां के नेतृत्व ने यह स्वीकार नहीं किया कि अब नव-उदारवाद का युग आ गया है, और विक्टर ह्यूगो के मुताबिक ‘जिस विचार का समय आ जाए, उसे कोई नहीं रोक सकता है।’ (भारत में इसी उक्ति का हवाला देते हुए डॉ. मनमोहन सिंह ने 1991 के बहुचर्चित बजट पेश किया था।) 

तो चीन ने,

  • अपनी नीतियों वास्तविक अर्थव्यवस्था के विकास को केंद्रीय स्थल पर बनाए रखा।
  • उसने अर्थव्यवस्था का समग्र वित्तीयकरण नहीं होने दिया।
  • मौद्रिक व्यवस्था को अपने हितों के मुताबिक निर्देशित किया।

(https://americanaffairsjournal.org/2024/11/america-china-and-the-death-of-the-international-monetary-non-system/)

  • जब कभी वित्तीयकरण एक सीमा से आगे जाने लगा, बाजार में बबूले (market bubble) निर्मित हुए, या नव-धनिक शख्सियतों ने राजनीतिक हस्तक्षेप की कोशिश की, तो जिसे nip in the buds कहा जाता है- यानी आरंभ में ही दबा देने की नीति पर चला गया।
  • इस क्रम में मुक्त बाजार (Laissez faire market) के बरक्स बाजार समाजवाद (market socialism) का एक अभिनव प्रयोग वहां देखने को मिला है। 

भारत में चीन से पिछड़ने की चर्चा में इन पहलुओं को नजरअंदाज कर कोई समाधान नहीं ढूंढा जा सकता। आज हम जिस मुकाम पर हैं, वह अफसोसनाक जरूर है, लेकिन उससे हताश होने की जरूरत नहीं है। हर बीमारी का इलाज हो सकता है, अगर सही निदान हो। अब चूंकि बीमारी को समझा जा रहा है, तो आवश्यक है कि पहले उचित निदान किया जाए। इसके बाद अपने लिए व्यावहारिक रास्ते ढूंढे जा सकते हैं। कहा जाता है- जागो तभी सवेरा। अब जागने का वक्त है।

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं।)  

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