एनकाउंटर का यह जश्न पूरे समाज पर पड़ सकता है भारी

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हैदराबाद की घटना के बाद पुलिस एनकाउंटर से अगर किसी को सबसे अधिक ख़ुशी मिली है तो वह उस लड़की के मां-बाप को नहीं बल्कि हमारे समाज के ठेकेदारों को, मीडिया प्रबंधकों को मिली होगी। निश्चित ही वे इस बात के लिए अवश्य ही जगह-जगह स्वागत सत्कार, फूल माला लेकर उसी पुलिस के आदर सत्कार में जुटे होंगे, जिससे उन्हें अपने पापों से भी मुक्ति का मार्ग मिलता दिखता होगा, और वे इस पर कहीं न कहीं सफल भी होते देखे जा सकते हैं। (आपका इतने दिनों का लावा फूट कर निकल गया न।

अब दूसरा फोड़ा उससे भी बड़ा यही समाज के ठेकेदार कुछ समय तक करने के लिए स्वतंत्र हो गए, निश्चिंत हो गए। याद है कठुआ वाली लड़की? याद है उन्नाव की वह लड़की? जिसके बाप को थाने में ही पीट-पीट कर मार डाला गया? तब यही पुलिस किसके पक्ष में थी? अगर एनकाउंटर भी सच्चा होता तो भी यह बात गले उतारी जा सकती थी, कि जो हुआ ठीक ही हुआ।

लेकिन चारों के पांव पर गोली मारने के बजाय जान से मार दिया गया, ताकि देश के आक्रोश को जैसे दूध के उबाल में आधा लोटा पानी फेंक कर पूरी तरह से खत्म कर दिया जाये, क्या ऐसा कुछ नहीं हुआ? कहां है, नित्यानंद? चिन्मयानन्द? देखा होगा इन्हीं चिन्मयानन्द के लिए जब पुलिस गिरफ्तार करने गई थी, तो शक्ल उनकी कैसी हो रखी थी? जैसे बहुत बड़ा पाप कर रहे हों। कंधे झुके थे, जैसे उन कन्धों पर जिम्मेदारी का ऐसा बोझ हो, जिसे वे मौका मिलते ही झट उतार कर फेंक दें। लेकिन कोर्ट की मजबूरी थी, क्या करें। और वो लड़की, उसे तुरंत इसका मजा चखा दिया गया, कल ही छूटी है जमानत से।

आप लोग, मजाक बना रहे हो अपना ही। क्या आपको पता है कि निर्भया के बाद इस देश में महिलाओं के प्रति हिंसा, रेप की घटनाओं में बढ़ोत्तरी कितनी अधिक बढ़ गई है? कोर्ट और सरकार की तमाम घोषणाओं के बावजूद महिलाओं के प्रति समाज में ये घटनाएं क्यों रुकने का नाम नहीं ले रही हैं? नहीं मालूम? इसका साफ़ कारण यह है कि हमारे देश में बड़ी तेजी से पितृसत्तात्मक मूल्यों, सांप्रदायिक उन्माद और धर्माचार्यों की जहर खुरानी कई गुना बढ़ गई है। ये वे चीजें हैं, जो किसी इंसान की तर्कशक्ति, उसके लोकतान्त्रिक मूल्यों को खत्म करने और स्त्री को संपत्ति, जागीर, उपभोग और कुल्टा जैसी चालू परिभाषाओं में देखना सिखाती हैं। जब एक जज कह सकता है कि मोरनी आंसुओं से गर्भवती होती है। छोटे कपड़े पहन कर आदमी उत्तेजित हो सकता है। लड़कों से गलती हो जाती है।

मेरे समाज की लड़की किसी दूसरे समुदाय के लड़के से बात कैसे कर सकती है? फ्रेंडशिप दिवस पर हमें लड़के लड़कियों के मिलने पर उन्हें सबक सिखाना चाहिए। बुर्के में रहोगी, तो बलात्कार नहीं होगा। लड़कियों को अपने शील की रक्षा इस तरह से करनी चाहिए, जिससे किसी पुरुष को पता ही न चले आदि.. आदि। ये वही मानसिकता है, जिसे आज फलते-फूलते हम अपने आस-पास देख रहे हैं। लेकिन समाज जो है, वह पीछे तो जा नहीं सकता। जहां जरूरत यह है कि लड़कियों के बजाय अपने लड़कों को तमीज सिखाई जाये, कि तुम सिर्फ समाज के बराबर के एक सदस्य हो, न कम न ज्यादा। तुम्हारा दर्जा किसी भी स्तर पर तुम्हारी बहन से अधिक नहीं है, बल्कि कई मायनों में कम है, क्योंकि तुम उतने संवेदनशील नहीं हो घर, परिवार और समाज के प्रति जितनी तुम्हारी बहन है।

समाज में तुम्हारी बहन को भी प्रेम, दोस्ती और घूमने फिरने की वही आजादी होनी चाहिए, जितना कि तुम अपने लिए चाहते हो। रात को कहां से आ रहे हो जितना हिसाब तुम्हारी बहन देती है, उतना ही तुम्हें भी देना होगा। यह शायद ही घरों में लड़कों को आज भी सिखाया जाता है। क्यों? क्योंकि हमारे समाज में समाज को चलाने वाले ठेकेदार, राजनेता, धर्मगुरु तो कुछ और ही बता रहे हैं। हम तो नफरत सीख रहे हैं, अपने से नीची जाति के प्रति, अपने से दूसरे धर्म वाले के प्रति, अपने से गरीब के प्रति, अपने से अमीर के प्रति, अपने से दूसरे क्षेत्र वालों के प्रति। और यह सब सिखा कौन रहा है? वह सिस्टम, जिसे हर 5 साल बाद आपको इसी दमघोंटू माहौल में रखकर खुद के लिए जीवनदान चाहिए।

वह आपको इस भयानक दलदल में रखकर, चाहता है कि वह इस देश को लूटने के लिए स्वछंद बना रहे। न आपके अंदर लोकतान्त्रिक मूल्य होंगे, न आप अपनी आजादी का उपभोग करना सीख पायेंगे, न आप किसी महिला की आजादी के साथ जीने देने के लिए छोड़ सकते हैं। इस चक्करघिन्नी में पीढ़ियां निकल जायेंगी, लेकिन एक बेहतर इंसान, एक बेहतर समाज, और एक बेहतर प्रेम की गुंजाइश कतई संभव नहीं है।

आप ऐसे ही समाज में अगर नहीं रहना चाहते, तो आपको शिनाख्त करनी होगी, उन केन्द्रीय सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक मकड़जाल की, और उसे चकनाचूर करना होगा, जहां एक सभ्य समाज के लिए आंबेडकर के संविधान की कोई गरिमा होगी। यह रेप संस्कृति हमारे लोकतंत्र, हमारे संविधान, हमारी आजादी के मूल्यों को चकनाचूर कर रही है, क्योंकि जो इस पूरे समाज को अपनी आक्टोपसी जकड़ में बांध रखे हैं, उनके पास तक तो हम पहुंच ही नहीं पा रहे हैं। हम तो खुश हैं कि वाह! एक राज्य की पुलिस ने तो हमें भीड़ वाला न्याय एक झटके में दे दिया। उसने न्याय नहीं दिया, तुम्हारे साथ अन्याय का एक बड़ा दरवाजा खोल दिया है, आंखें खोलो।

(रविंद्र सिंह पटवाल स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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