इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायाधीश राम मनोहर नारायण मिश्र की अदालत ने एक ऐसा फैसला सुनाया है, जिसे पढ़कर समूचा देश हैरत में है। यह फैसला 17 मार्च 2025 को सुनाया गया, जिसने कासगंज की निचली अदालत के फैसले को पलटकर अभियुक्तों को फौरी राहत पहुंचाने का काम किया है। यह मामला 2021 का है, जिसमें एक 11 वर्षीय नाबालिग बालिका अपनी माँ के साथ जा रही थी। रास्ते में आरोपी पवन और आकाश ने उन्हें लिफ्ट ऑफर की, लेकिन आगे जाकर उन्होंने लड़की के साथ जबर्दस्ती करने का प्रयास किया।
जज साहब ने अपने फैसले में लिखा है कि पीड़िता के प्राइवेट पार्ट को पकड़ना, उसके पायजामे के नाड़े को तोड़ देना और उसके बाद उसे पुलिया के नीचे खीँच ले जाने की कोशिश रेप या रेप की कोशिश नहीं मानी जा सकती।
लाइव लॉ ने भी आज इस खबर को स्थान दिया है। लाइव लॉ के अनुसार, “इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल ही में एक समन आदेश को संशोधित करते हुए यह देखा कि पीड़िता के स्तनों को पकड़ना, उसकी पायजामे की डोरी तोड़ना और उसे पुलिया के नीचे खींचने की कोशिश करना, फिर घटनास्थल से भाग जाना, बलात्कार या बलात्कार के प्रयास के अपराध के अंतर्गत नहीं आता है। इस निर्णय के तहत, न्यायालय ने दो आरोपियों के खिलाफ लगाए गए आरोपों को बदल दिया। पहले उन्हें IPC की धारा 376 (बलात्कार) और POCSO ACT की धारा 18 के तहत मुकदमे का सामना करने के लिए बुलाया गया था, लेकिन हाईकोर्ट ने निर्देश दिया कि अब आरोपियों के खिलाफ IPC की धारा 354-B (अनावश्यक बल प्रयोग या कपड़े उतारने के इरादे से हमला) और POCSO ACT की धारा 9/10 (गंभीर यौन उत्पीड़न) के तहत मुकदमा चलाया जाएगा।”
लाइव लॉ ने अपनी ओर से कोई टिप्पणी नहीं की है। उसके मुताबिक, जस्टिस राम मनोहर नारायण मिश्रा की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने अपने फैसले में कहा, “आरोपी पवन और आकाश के खिलाफ लगाए गए आरोप और मामले के तथ्य बलात्कार के प्रयास के अपराध को साबित करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। बलात्कार के प्रयास का आरोप लगाने के लिए यह स्थापित करना आवश्यक होता है कि अपराध की तैयारी से आगे बढ़कर वास्तविक प्रयास किया गया हो। तैयारी और वास्तविक प्रयास के बीच का अंतर मुख्य रूप से दृढ़ संकल्प की अधिकता में निहित होता है।”
किसी अपराधिक कृत्य के लिए किन शब्दों का उपयोग कर उसकी गंभीरता को कम या बढ़ाया जा सकता है, यह तो न्यायपालिका और उससे जुड़ी संस्थाएं ही बता सकती हैं, लेकिन कोई भी आम नागरिक अपने स्वविवेक का इस्तेमाल कर बता सकता है कि यह मामला स्पष्ट रूप से बलात्कार की कोशिश का है, और अपराधियों को पोस्को एक्ट के तहत कड़ी सजा दी जानी चाहिए थी।
लेकिन न्यायाधीश महोदय ने स्तन पकड़ने और पायजामे का नाड़ा खोल देने को रेप का प्रयास मानने से इंकार कर दिया है। ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या बलात्कार की पुष्टि हो जाने पर ही बलात्कार की कोशिश मानना ठीक रहेगा? इस मामले में यह भी बताया जा रहा है कि पीड़िता और उसकी माँ ने जब शोर मचाया तो पुलिया के पास कई आने-जाने वाले लोग जमा हो गये थे, जिसके कारण आरोपी अपने मकसद में कामयाब न हो सके, और वे वहां से रफूचक्कर हो गये थे।
जहां तक भारतीय दंड संहिता/न्याय संहिता (हालाँकि नई वाली संहिता क्या कहती है, के बारे में स्वंय अभी देश की पुलिस प्रशिक्षण प्राप्त कर रही है) का प्रश्न है, यदि किसी स्त्री पर फब्ती भी कसने का आरोप हो, तो उसके लिए भी दंड का विधान मौजूद है।
अब रेप की कोशिश के लिए कोई अपराधी क्या करता है? उक्त अपराधियों ने लड़की के स्तनों को पकड़ा। इतना ही नहीं उसके कपड़े भी उतार दिए। उसे घसीटकर पुलिया के नीचे खीँच ले गये। क्या इन हरकतों को यह कहा जा सकता है कि वे पीड़िता को पुलिया के नीचे कोई अनोखी चीज दिखाने के लिए ले जा रहे थे? क्या किसी भी अन्य व्यक्ति के प्राइवेट पार्ट्स के साथ छेड़छाड़ कर या उसे नग्न करने के बाद उसे घसीटते हुए दुनिया में कोई भी व्यक्ति कोई अजूबा दिखाने ले जाता है?
किसी भी दृष्टि से इस घटना को रेप की कोशिश से कमतर कृत्य बताना न सिर्फ न्याययिक प्रक्रिया की भ्रूणहत्या है, बल्कि इस फैसले के बाद देश में महिलाओं का जीना भी दूभर हो सकता है। इलाहाबाद हाई कोर्ट के इस फैसले को नजीर मानकर अब कोई भी व्यक्ति राह चलती किसी भी महिला के साथ छेड़छाड़ करने के लिए खुद को स्वतंत्र मान सकता है। उसका सीधा तर्क हो सकता है कि उसने न ही उक्त महिला के निजी अंगों के साथ खिलवाड़ किया, न ही नाड़ा ही खोला और घसीटकर किसी सुनसान जगह पर भी नहीं ले गया।
क्या मान लिया जाए कि भारत में अब न्यायपालिका का अब कोई अर्थ नहीं रह गया? वरिष्ठ वकील शोभा गुप्ता इस फैसले से बेहद आहत हैं। खबर है कि सुप्रीम कोर्ट के कई वरिष्ठ वकीलों ने आज कोर्ट से इस मामले में स्वतः संज्ञान लेकर उक्त न्यायाधीश महोदय के खिलाफ सख्त कार्रवाई का अनुरोध किया है।
सर्वोच्च न्यायालय की वरिष्ठ वकील इंदिरा जयसिंह ने अपने सोशल मीडिया हैंडल X पर द हिंदू अख़बार की खबर को साझा करते हुए अपनी टिप्पणी में कहा है, “इस शीर्षक को पढ़ें। सुप्रीम कोर्ट के द्वारा इसमें स्वतः संज्ञान लेकर कार्रवाई करने की आवश्यकता है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा अभी तक न्यायाधीशों को बहुत कम मामलों में फटकार लगाई गई है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा है कि, स्तन पकड़ना, पायजामे का नाड़ा तोड़ना बलात्कार के प्रयास के आरोप के लिए पर्याप्त नहीं है- द हिंदू”
इलाहाबाद उच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता और सामाजिक कार्यकर्ता, कमल कृष्ण रॉय की टिप्पणी कुछ इस प्रकार से है, “माननीय न्यायमूर्ति जी संभवतः मनु स्मृति को ही संविधान मान बैठे हैं। उनके अनुसार कुछ अपराध द्विज समाज पर लागू नहीं होते, जैसे हत्या और बलात्कार। जिस समाज में बिलकिस बानो के घिनौने बलात्कारियों को फूल-मालाओं और मिठाई से लाद जाता हो। जिस समाज में माब लिंचर्स का नागरिक अभिनन्दन किया जाता हो, उस समाज के हाईकोर्ट के न्यायाधीश की मानसिकता ऐसी ही विकृत होगी। यह बलात्कार, छेड़छाड़ को बढ़ावा देने वाला, पुरुष वर्चस्ववादी मानसिकता को बढ़ावा देने वाला जजमेंट है। मेरा चीफ जस्टिस से अनुरोध है न्यायमूर्ति से तत्काल सारे न्यायिक कार्य वापस ले लिए जायें। इस फैसले को लार्जर बेंच के द्वारा निष्प्रभावी बनाया जाये।”
इलाहाबाद उच्च न्यायालय के इस फैसले पर पर पूर्व एडिशनल सॉलिसिटर जनरल और सर्वोच्च न्यायालय की वरिष्ठ अधिवक्ता पिंकी आनंद तक हैरानगी जताते हुए कहती हैं, “जबरन प्रवेश के अभाव में संभवतः बलात्कार पर सवालिया निशान लग सकता है, लेकिन बलात्कार का प्रयास तो इसे निश्चित रूप से कहा जाना चाहिए। मुझे समझ में नहीं आता कि हम वास्तव में इस तरह के आदेश की कल्पना भी कैसे कर सकते हैं, जहां हम पूरी स्थिति को एक हास्यास्पद स्थिति में बदल देते हैं। मुझे नहीं लगता कि हमें इस बारे में बैठकर कोई बहस भी करनी चाहिए। यह दुखद है कि किसी को इस बारे में बहस करनी पड़ रही है। हम इस प्रकार के जघन्य अपराधों को इस तरह से बख्श दिए जाने को हर्गिज बर्दाश्त नहीं करने जा रहे हैं।”
(रविंद्र पटवल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं)
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