बिहार निर्दलीयों को संसद भेजता रहा है, क्या पप्पू यादव इस बार भी संसद पहुंचेंगे?

बिहार के सीमांचल जिले पूर्णिया में राजनीतिक सरगर्मी इतनी बढ़ी हुई है कि अगर आप बीच में किसी को टोक देंगे तो कोई भी खेला हो सकता है। वहां जातीय समुदाय भी बंटे हुए हैं और धार्मिक ध्रुवीकरण भी देखने को मिल रहे हैं। जब तक राजद उम्मीदवार बीमा भारती एनडीए उम्मीदवार संतोष कुशवाहा के मुकाबले में खड़ी थी तब तक तो पूर्णिया की राजनीति दो ध्रुवों में ही बंटी थी लेकिन अब पूर्णिया बहुत कुछ कहता नजर आ रहा है।

पूर्णिया क्या फैसला देगा यह कोई नहीं जानता लेकिन पूर्णिया में निर्दलीय उम्मीदवार पप्पू यादव की धूम मची हुई है। जिधर देखो पप्पू की जयकार हो रही है और गली-गली में पप्पू के समर्थन में पूर्णिया के युवा, महिला और बूढ़े बोलते, बकते और शोरगुल मचाते दिख रहे हैं।

पप्पू यादव शायद कांग्रेस के उम्मीदवार होते तो शायद इस तरह से पप्पू के समर्थन में शायद ही माहौल बनता लेकिन अब जो माहौल बन रहा है वह बीमा भारती के साथ ही संतोष कुशवाहा के माथे पर पसीने भी छुड़ा रहा है। बीमा भी परेशान हैं और संतोष कुशवाहा गंभीर संकट में फंसे दिख रहे हैं। हालांकि चुनाव परिणाम किसके पक्ष में जाएंगे इसकी भविष्यवाणी तो नहीं की जा सकती लेकिन आज यह तो कहा जा सकता है कि पप्पू यादव सब पर भारी होते दिख रहे हैं। 

लेकिन असली कहानी यह नहीं है कि पूर्णिया में किसकी प्रतिष्ठा दांव पर लगी है। कहानी यह भी नहीं है कि बीमा भारती और कुशवाहा का हश्र क्या होगा और कहानी यह भी नहीं है कि पप्पू यादव के साथ पूर्णिया की जनता क्या फैसला करती है। असली सवाल तो यह है कि क्या बिहार इस बार फिर से किसी निर्दलीय को संसद में फिर से भेजेगा ? पप्पू यादव पूर्णिया से सांसद रह चुके हैं। दो बार वे वहीं से सांसद रहे। दोनों बार निर्दलीय ही लड़े और जीते भी। ऐसे में क्या इस बार पूर्णिया पप्पू यादव को जिताकर संसद भेज देगा? 

बिहार के चुनावी इतिहास को  देखें तो पता चलता है कि आजादी के बाद और पहले चुनाव से अब तक बिहार ने 15 निर्दलीय उम्मीदवारों को जिताकर संसद तक पहुंचाया है। यह बिहार की जनता की खासियत है और बिहार का लोकतंत्र के प्रति अद्भुत रुझान भी। अगर इस बार भी पप्पू यादव निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर चुनाव जीत जाते हैं तो जाहिर है कि इसमें पप्पू की कम, पूर्णिया का इकबाल देखने को मिलेगा। लेकिन क्या होगा यह कौन जानता है ?

बिहार में अब तक हुए लोकसभा चुनाव में आम जनता ने विभिन्न राजनीतिक दल के राजनेताओं के साथ ही 15 निर्दलीय प्रत्याशियों को भी गले लगाया और उन्हें संसद तक पहुंचाया है।

भारतीय चुनावी तंत्र में निर्दलीय उम्मीदवारों की भूमिका हमेशा से एक महत्वपूर्ण और चर्चित विषय रहा है। ये उम्मीदवार, जो किसी भी राजनीतिक दल के बैनर तले नहीं लड़ते, अपने आप को चुनावी अखाड़े में उतरते हैं और विभिन्न सामाजिक एवं राजनीतिक मुद्दों पर अपनी निष्पक्ष और स्वतंत्र राय रखते हैं। 

चुनाव से पूर्व, निर्दलीय उम्मीदवारों का प्रमुख लक्ष्य होता है समाज के विभिन्न वर्गों तक पहुंचना और उनके मुद्दों को समझना। वे अक्सर उन मुद्दों को उठाते हैं जो प्रमुख राजनीतिक दलों द्वारा उपेक्षित रहते हैं। इसके अलावा, वे राजनीति में नैतिकता और पारदर्शिता के प्रतीक के रूप में उभरते हैं।

चुनाव के बाद, निर्दलीय उम्मीदवारों की भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो जाती है, खासकर जब कोई भी पार्टी स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं कर पाती। ऐसे में, निर्दलीय उम्मीदवार सरकार गठन में किंगमेकर की भूमिका निभा सकते हैं। वे समझौते की स्थिति में, सरकार के निर्माण या गिराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। 

निर्दलीय उम्मीदवार सत्तारूढ़ पार्टी और विपक्ष के बीच एक महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में काम करते हैं। हालांकि, निर्दलीय उम्मीदवारों को अपने अभियान और प्रचार में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। राजनीतिक दलों के समर्थन और संसाधनों के बिना, उन्हें अपनी पहचान बनाने और जनता तक पहुंचने में अधिक प्रयास करना पड़ता है। फिर भी, उनकी उपस्थिति और योगदान भारतीय राजनीति की विविधता और गतिशीलता को दर्शाता है।

देश में पहला आम चुनाव 1952 से शुरू होता है। बिहार में भी यह चुनाव तभी से जारी है। 1952 में बिहार से 49 निर्दलीय उम्मीदवार मैदान में खड़े थे। सबकी इच्छा यही थी कि जनता उन्हें अपना आशीर्वाद देगी और संसद तक पहुंचा देगी। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। 49 में से एक निर्दलीय उम्मीदवार की जीत हुई और वे संसद तक पहुँच गए। बता दें कि तब के चुनाव में जो एक निर्दलीय उम्मीदवार चुनाव जीतने में सफल हुए थे। कमल सिंह। उनकी लोगों में खूब पैठ थी और लोकप्रिय भी। उनकी जीत हुई और संसद तक पहुंचे भी। 

लोकसभा का दूसरा चुनाव 1957 में हुआ। इस चुनाव में बिहार के 60 निर्दलीय उम्मीदवार मैदान में उतरे थे। लेकिन इस बार भी उसी डुमराव  महाराज कमल सिंह को जीत मिली। 62 के चुनाव में बिहार से 34 निर्दलीय उम्मीदवार मैदान में उतरे थे लेकिन उस चुनाव में किसी की भी जीत नहीं हुई। 1967 के चुनाव में निर्दलीयों उम्मीदवारों की संख्या बिहार में 99 तक पहुंच गई थी। एक से बढ़कर एक धनुर्धर मैदान में उतरे थे। 

इस चुनाव में चार निर्दलीयों की जीत हुई। नवादा से सूर्य नारायण पूरा चुनाव जीते तो चतरा से विजय राजे चुनाव जीतीं। हजारीबाग से रामगढ़ के राजा बसंत नारायण सिंह चुनाव जीते और सिंहभूम से के बिरुआ चुनाव जीतने में सफल हुए। कह सकते हैं बिहार में पहली बार कोई महिला चुनाव जीतने में सफल हो पायी थी। वह विजय राजे रामगढ़ राजघराने की महारानी थी। हालांकि विजया राजे लगातार तीन बार सांसद बनी थीं।

पहली बार वह छोटानागपुर संथाल परगना जनता पार्टी की टिकट पर 1957 में चुनाव लड़ी थीं और जीतीं भी। इसके बाद वह 1962 में स्वतंत्र पार्टी की उम्मीदवार बनीं और जीतीं और फिर 1967 में वह निर्दलीय के रूप में जीत हासिल की थीं। चतरा का यह रिकॉर्ड आज तक किसी ने नहीं तोड़ पाया है। और मजे की बात तो यह है कि तीनों बार विजया राजे ने कांग्रेस उम्मीदवार को मैदान में हराया था। 1971 में कांग्रेस के डॉ शंकर दयाल सिंह ने जनता पार्टी उम्मीदवार विजया राजे  को हरा कर सांसद बने थे।

बिहार के मधेपुरा से 1968 में महान समाजवादी नेता और मंडल आयोग के अध्यक्ष रहे बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल ने निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव जीता था। 1971 के चुनाव में 183 निर्दलीय उम्मीदवार मैदान में उतरे थे लेकिन एक ही उम्मीदवार जीत पाए। उनका नाम था खूंटी के उम्मीदवार निराल होरो। इसी तरह 1977 के चुनाव में 188 निर्दलीय उम्मीदवार मैदान में उतरे लेकिन धनबाद से एमसीसी के संस्थापक रहे एके राय ही चुनाव जीतने में सफल रहे। 

1980 आते-आते राजनीति बदल गई थी। राजनीति कई तरह के परिवर्तन भी हो रहे थे। झूठ और ठगी वाली राजनीति कुलांचे मारने लगी थी। इस चुनाव में 391 निर्दलीय उम्मीदवार मैदान में उतरे लेकिन इस चुनाव में दो लोगों की जीत हुई। दुमका से शिबू सोरेन जीत पाए और धनबाद से एके राय की जीत हुई। 1984 के चुनाव में कहने को तो 492 निर्दलीय उम्मीदवार मैदान में खड़े थे लेकिन गोपालगंज से केवल काली पांडेय चुनाव जीतने में सफल हो पाए थे। 1989 के चुनाव में बिहार में 429 निर्दलीय खड़े थे लेकिन जनता ने सबको हरा दिया। 

1991 के चुनाव में 875 निर्दलीय चुनाव लड़े थे लेकिन इस चुनाव में पूर्णिया से पप्पू यादव की जीत हासिल हुई थी। यहीं से पप्पू यादव पहली बार सांसद बनकर संसद पहुंचे थे। फिर 1996 के चुनाव में भले ही 1103 निर्दलीय चुनाव लड़े लेकिन इस चुनाव में भी एक ही उम्मीदवार जीत पाए। जीतने वाले उम्मीदवार थे बेगुसराय से रामेन्द्र कुमार।

1998 के चुनाव में किसी भी निर्दलीय को जीत नहीं मिली जबकि इस चुनाव में 179 निर्दलीय खड़े थे। फिर 1996 में 1103 निर्दली के बीच में एक ही उम्मीदवार की जीत हुई पूर्णिया से एक बार फिर से पप्पू यादव की जीत दर्ज की गई। फिर 2000 के चुनाव में किसी की जीत नहीं हुई। इस चुनाव में 200 निर्दलीय खड़े थे। 

2009 के चुनाव में दो निर्दली को बिहार की जनता ने संसद भेजा। एक थे बांका से दिग्विजय सिंह और सिवान से ओमप्रकाश यादव। 2010 के उपचुनाव में दिग्विजय सिंह की पत्नी पुतुल कुमार की जीत हुई थी। वे निर्दलीय उम्मीदवार ही थी। इस चुनाव के बाद 2014 और 2019 के चुनाव में बिहार से कोई निर्दलीय चुनाव नहीं जीत सके।  

बिहार में अब तक हुए लोकसभा चुनाव में जीते तीन निर्दलीय प्रत्याशी में सर्वाधिक दो-दो बार डुमरांव महाराज कमल सिंह, वामपंथी नेता एके राय और राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव शामिल है। दिलचस्प बात यह है कि इस बार के चुनाव में भी पप्पू यादव निर्दलीय प्रत्याशी पूर्णिया संसदीय सीट से अपनी किस्मत आजमा रहे हैं। ऐसे में यह देखना रोचक होगा कि इस बार पूर्णिया की जनता पप्पू यादव के साथ क्या कुछ करती है। अगर पप्पू यादव चुनाव जीत जाते हैं तो उनके नाम के साथ रिकॉर्ड कायम हो सकता है।

(अखिलेश अखिल वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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