देश की अर्थव्यवस्था इन दिनों निरंतर बर्बादी की ओर अग्रसर है ऐसे में मंदिर ही क्या वर्तमान भारत शासन की गिरती अर्थव्यवस्था को उबार सकते हैं तथा करोड़ों लोगों को रोजगार देने की सामर्थ्य रखते हैं। मंदिरों के प्रति इस सरकार ने जो आस्था फैलाई है लगता है उसका इस्तेमाल अब सरकार के सुचालन में होने वाला है। अंधश्रद्धा के दीवाने लोग अभी भी मंदिरों के घंटे बजाकर रोज़ी रोटी और नौकरी मांगते हैं। वे बाबाओं के पास भी अपनी आरजुएं पूरी कराने श्रद्धा पूर्वक जाते हैं अब सरकार भी दंडवत वहां पहुंच रही है। केदारनाथ, अयोध्या, बनारस मंदिरों में जो विकास हुआ है उससे राष्ट्रीय कोष में कितनी वृद्धि हुई। कितने लोगों को रोजगार मिला। यह बताना चाहिए।
अभी पिछले दिनों की ही बात प्रयागराज के महाकुंभ में महाभीड़ के जुड़ाव स्थल पर कई लाख लोगों ने अपने व्यवसाय से अभूतपूर्व कमाई की उससे उत्तर प्रदेश सरकार और राष्ट्रीय संपदा में जो वृद्धि हुई वह एक उदाहरण बतौर बताया जाएगा। क्या आस्था का यही दोहन, देश विकास में काम आने वाला है।
पिछले दिनों आई एक जानकारी के मुताबिक 250 से लेकर 300 शहरों की रीढ़ मंदिर ही बने हुए हैं। तिरुपति, वाराणसी, पुरी, अयोध्या, उज्जयिनी, मथुरा, मदुरै और शिरडी जैसे नगर मंदिर व्यवसाय से फल फूल रहे हैं। मंदिरों के जरिए दान, पर्यटन, व्यापार और धार्मिक गतिविधियों से हज़ारों करोड़ की अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिलने का ज़िक्र है।
बताया जा रहा है कि भारत में कुल मंदिरों की संख्या: लगभग 10-12 लाख (रजिस्टर्ड और गैर-रजिस्टर्ड मिलाकर) हैं।
इनके मुताबिक इससे प्रत्यक्ष रोजगार: लगभग 3 करोड़ लोग (पुजारी, प्रशासनिक कर्मचारी, सुरक्षा कर्मी, सफाई कर्मचारी, प्रसाद बनाने वाले आदि) को मिलता है जबकि अप्रत्यक्ष रोजगार: लगभग 7 करोड़ लोगों में (होटल, ट्रांसपोर्ट, फूल-विक्रेता, हस्तशिल्प, गाइड, मूर्ति निर्माता, रेस्टोरेंट, टैक्सी चालक आदि) शामिल हैं। यह संख्या केंद्र और राज्य सरकारों के कर्मचारियों से अधिक बताई जा रही है।
यह भी गर्व से बताया जा रहा है इन कार्यों में संलग्न लोग आजीवन काम करते हैं।लेकिन इस क्षेत्र में कम वेतन स्वास्थ्य, बीमा आदि की सुविधाएं नहीं हैं।
हालांकि भारत सरकार मंदिर विकास के नाम पर उसकी अकूत सम्पदा को अपने और अडानी की डगमगाती स्थिति को सुधारने की मंशा के साथ मंदिरों-मठों को पूर्णकालिक व्यवसाय में बदल देने की इच्छुक नज़र आ रही है। केदारनाथ का सोना पीतल बन जाता है। राम मंदिर की जनसहयोग से आई सोने की ईंटें, और धनराशि कहां लुप्त हो गई। कुछ पता नहीं। इतना ही नहीं मंदिर के निर्माणाधीन होने के बावजूद उद्घाटन के दौर जो अमीरजादे आए।उनके द्वारा प्रदत्त हीरा, सोना, चांदी भेंट में आया चढ़ावे का कुछ अता पता नहीं। वो तो पुरी में खैरियत रही जय जगन्नाथ के घोष को वहां के पंडों ने समझा और उसे लूट से बचा लिया।
जहां तक रोज़ गार का सवाल है वह स्थानीय लोगों से छीनकर कारपोरेट और अपने गुजराती भाइयों को सौंप दिया। अयोध्या, बनारस और उज्जैन जाकर इस रोजगार की असलियत देखी जा सकती है।
अकेले मंदिर केंद्रित अर्थव्यवस्था, वर्तमान में ढाई ट्रिलियन डालर की है। मंदिरों में भक्तों द्वारा चढ़ाया गया धन सरकार द्वारा लेना भी संविधान के अनुच्छेद 25-26 का उल्लंघन है। सरकारी कब्जे के कारण ही मंदिरों से सर्विस-टैक्स वसूला जाता है। कई मंदिरों में ऑडिट फीस, प्रशासन चलाने की फीस और दूसरे तरह के टैक्स वसूले जाते हैं। किसी-किसी मंदिर की आय का लगभग 65-70 फीसद तक सरकार हथिया लेती है। तमिलनाडु में मंदिरों की हजारों एकड़ जमीन उनसे छिन गई। हजारों एकड़ पर अवैध अतिक्रमण हो चुका है। यह सब सरकारी कब्जे की व्यवस्था का नमूना है।
सुप्रीम कोर्ट की एडवोकेट पिंकी आनंद ने संवैधानिक अधिकारों की चर्चा करते हुए कहा कि कानून के प्रावधानों के आधार पर सरकार द्वारा मंदिरों को कब्जे में लेना और धार्मिक रीति-रिवाजों के लिए धनराशि को मंजूरी देना पूरी तरह से अवैध है और तर्कसंगत भी नहीं है। हर साल लगभग 1 लाख करोड़ रुपये का हिंदू धन जो हम धर्म के लिए मंदिर में देते हैं, वह सरकार की जेब में जाता है और सरकार इसका इस्तेमाल करती है।
इन तमाम स्थितियों पर गौर करते हुए लगता है कि सरकार के सभी खजाने खाली हैं और उसकी नजर मंदिरों में संचित धन पर लग चुकी है। यदि मंदिर ट्रस्ट स्वत: इस राशि का सदुपयोग देश हित में नहीं करते हैं और सरकार की लूट पर आपत्ति नहीं करते हैं तो वह दिन दूर नहीं जब घर के गज़नबी हमारे मंदिरों की सम्पत्ति लूट लेंगे और हम देखते रह जाएंगे। सरकार का मददगार दोस्त भी अब भारत की लूट में लग गया है। एलन मस्क की टेस्ला के बहाने वह देश में अपने पैर जमाने भेजा गया है। ज़रूरी यह है कि अपने मंदिरों और देश की सम्पत्ति को लूटने वालों की भरपूर खिलाफत करें।
(सुसंस्कृति परिहार लेखिका और एक्टिविस्ट हैं।)
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