Thursday, April 25, 2024

इन मासूमों को नशे में कौन झोंक रहा है?

कुछ दिनों पहले एक खबर आयी थी, पटना रेलवे स्टेशन पर छोटे-छोटे बच्चे सुलेशन का नशा कर रहे हैं। वे अपनी किसी फर्जी मजबूरी का रोना रोकर भीख मांगते हैं, और उस पैसे से नशा खरीदते हैं। ध्यान रहे, कुछ स्वार्थी तत्व इन बच्चों को पहले नशे की लत लगाते हैं, फिर उन्हें न केवल अपना ग्राहक बना कर, उनकी जिंदगी बर्बाद करके उनसे पैसे वसूलते हैं, बल्कि उन्हें जाल में फंसा कर उनसे ढेर सारे अन्य अपराध भी कराते हैं।

पटना की यह घटना कोई अनोखी घटना नहीं है। बेहिसाब मुनाफे के लालच में नशे के कारोबारियों ने जाल बिछा रखा है। अबोध और मासूम बच्चों को आसानी से शिकार बनाया जा रहा है। इसी तरह से प्रत्यारोपण के लिए अंगों की खरीद-फरोख्त, मानव ट्रैफिकिंग, वेश्यावृत्ति के धंधे में झोंकने के लिए बच्चों की ट्रैफिकिंग, आदिवासियों को अगवा करके उनसे बंधुआ मजदूरी कराने जैसे असंख्य व्यवसाय पैदा हो गये हैं जो हमारे युग से पहले नहीं थे।

यह पूंजीवाद है। पैसा जैसे भी आये, आना चाहिए। किसी भी क़िस्म की नैतिकता की दुविधा मूर्खता है। मुनाफा खुद एक विचार है। हमारे परिवेश से यह लगातार हमारी रगों में रिसता रहता है और हमारे रक्त को जहरीला बनाता रहता है। यह हमारे रिश्तों-नातों, यारियों-दोस्तियों में से संवेदनाओं को सुखा देता है और उनमें चालाकियां भर देता है। मुनाफे की खातिर यह आपकी जान भी ले लेता है। यह आपका खून चूस कर और मांस नोच कर ही छोड़ नहीं देता, बल्कि आपकी हड्डियों का भी सुरमा बनाकर बाजार में बेच देता है। इंसानी विकास यात्रा में यह अब तक की सर्वाधिक कांइयां और अमानवीय व्यवस्था है।

पूंजीवाद, जिसने एक समय लोकतंत्र का वादा और दावा किया था, उसी ने लोकतंत्र को अपहृत कर लिया है। चाहे जैसे भी हो, सत्ता को केंद्रीकृत करके इसे अधिक सै अधिक मुनाफा निचोड़ने की मशीन में तब्दील कर देना इसका एकमात्र उद्देश्य बन गया है।

यह पूंजीवाद हमारे लोकतंत्र को अपनी तिकड़मों से मुखौटे में तब्दील कर देता है। मंच पर अपनी भूमिकाएं अदा कर रहे किरदार मात्र कठपुतलियां बन कर रह जाते हैं, जिनको नचाने वाले धागे उनके कॉरपोरेट आकाओं की उंगलियों में फंसे रहते हैं। वे न केवल इस नाटक के नाटककार, निर्देशक और सूत्रधार होते हैं, बल्कि उसके समीक्षक भी वही होते हैं। पूरा ड्रामा ही प्रायोजित है।

यह खुद ही हमारी जरूरतें तय कर रहा है और अपने बारे में निर्णय स्वयं करने के हमारे अधिकार को छीन लेता है, और धीरे-धीरे हमें अपना गुलाम बना लेता है। जिन घरों में 50 रु. प्रति लीटर दूध नहीं खरीदा जा पा रहा है, वहां मेहमान के आने पर कोल्ड ड्रिंक की 100 रु. की 2 लीटर वाली बोतल तुरंत आ जा रही है। नतीजा यह होता है कि हमारे पड़ोस के ग्वाले या डेरी शुरू करने वाले किसी उद्यमी की जेब में दो रुपये जाने की बजाय किसी वैश्विक कॉरपोरेट की जेब में 98 रुपये चले जाते हैं। और वह भी भविष्य में हमारा स्वास्थ्य और ज्यादा खराब करने, और इस तरह नयी बीमारियों के साथ डॉक्टरों, अस्पतालों, पैथोलॉजी, रेडियोल़ॉजी और फार्मा कंपनियों के एक नये जाल में फंसने के एक नये सिलसिले की गारंटी के साथ।

अगर मजदूर को उसकी उत्पादकता के हिसाब से मजदूरी मिलना शुरू हो जाए तो पूंजीवाद खतम हो जाएगा। अगर डॉक्टर के मन में सेवा भाव और इंसानों के प्रति प्रेम जाग जाए तो पूंजीवाद खतम हो जाएगा। अगर नर्सिंग होम, पैथोलॉजी और रेडियोलॉजी में बेईमानी बंद हो जाए और जरूरत के हिसाब से काम होने लगे तो पूंजीवाद मरने लगेगा। अगर सेठ माल बेचते समय केवल अपनी मेहनत भर का नफा निकाले तो पूंजीवाद खतम हो जाएगा। अगर कॉरपोरेट टैक्स देने लगे और सरकारों को खरीद कर मनमाफिक मुनाफा लूटने वाले क़ानून बनवाना बंद कर दे तो पूंजीवाद खतम हो जाएगा।

लेकिन ऐसा अपने आप कभी संभव नहीं होगा। जो लोग इस व्यवस्था से बेहिसाब मुनाफा बटोर रहे हैं, वे भला उसे क्यों छोड़ेंगे? हमारी भोजपुरी में एक कहावत है, ‘लाजे भयउ बोले ना, सवादे भसुर छोड़े ना।’ भयउ, यानि हम जनता को ही अपना लाज-संकोच छोड़कर एक दिन जोर लगा कर दहाड़ना शुरू कर देना होगा। बल्कि अवतार सिंह पाश के शब्दों में कहना होगा कि,

“मैंने टिकट खरीद कर

तुम्हारे लोकतंत्र की नौटंकी देखी है

अब तो मेरा रंगशाला में बैठ कर

हाय हाय करने और चीखें मारने का

हक़ बनता है

तुमने भी टिकट देते समय

टके भर की छूट नहीं दी

और मैं भी अपनी पसंद का बाजू पकड़ कर

गद्दे फाड़ दूंगा

और परदे जला डालूंगा।”

दरअसल पूंजीवादी शोषण की यह  व्यवस्था हमारे बल पर टिकी हुई है। जिस तरह से एक मछली चारे के एक छोटे से टुकड़े के लालच में अपनी पूरी स्वतंत्रता और अपनी जान तक गंवा देती है, उसी तरह हम भी इस व्यवस्था के साथ अपने छोटे-छोटे स्वार्थों से जुड़े रह कर अपनी वृहत्तर स्वतंत्रताओं, सुखों और अपने जीवन की बलि चढ़ाते रहते हैं और इसे मजबूत करते रहते हैं।

लोभ, लालच, बेईमानी, भ्रष्टाचार, लूट, तिकड़म, अमानवीयता पर ही पूंजीवाद टिका हुआ है और जहां प्रेम, आत्मीयता, भाईचारा, सहकारिता, संवेदना, परोपकार, ईमानदारी, पारदर्शिता होती है वहां वह टिक ही नहीं पाएगा।

(शैलेश का लेख )

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