कल बुधवार को सुप्रीम कोर्ट में दिल्ली में रह रहे बेघरबार लोगों के लिए आश्रय की मांग करने वाली एक जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ न्यायाधीश बीआर गवई ने अपनी टिप्पणी में जो कुछ कहा, वह राष्ट्रीय चर्चा का विषय बन चुका है।
माननीय न्यायाधीश ने अपनी टिप्पणी में कहा है कि, “मुझे यह कहते हुए खेद हो रहा है कि, फ्रीबी (मुफ्तखोरी) के कारण, जब चुनावों की घोषणा होती है…लोग काम करने के लिए तैयार नहीं होते। बिना काम किये ही उन्हें मुफ्त राशन मिल रहा है।”
यहां पर मामला था दिल्ली के बेघरबार लोगों के लिए उचित मात्रा में पर्याप्त शेल्टर होम का, लेकिन न्यायाधीश महोदय को व्यापक आर्थिक-राजनीतिक परिदृश्य में हो रहे बदलाव का चित्र घूम रहा था। उन्होंने आगे कहा, “क्या यह बेहतर नहीं होगा कि उन्हें मुख्यधारा के समाज का हिस्सा बनाया जाए ताकि वे राष्ट्र के निर्माण में अपना योगदान दे सकें?
इसके जवाब में वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण का सिर्फ यह कहना था कि, कम से कम जो किया जाना चाहिए वह यह है कि इन्हें शेल्टर मिल जाए।
पूरे देश में बेघर लोगों के लिए आश्रय के मुद्दे पर एक जनहित याचिका के मुद्दे पर यह सुनवाई हो रही थी। अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी ने उपलब्ध आंकड़ों का हवाला देते हुए बताया कि 4 दिसंबर, 2024 तक देश में सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के द्वारा 2,557 आश्रय गृह स्वीकृत किए गए थे, जिनमें से 1,995 अभी भी (कुल 1,16,000 बिस्तरों की क्षमता) कार्यरत हैं।
इसके प्रतिउत्तर में प्रशांत भूषण ने दावा किया कि वास्तविक सर्वेक्षण के मुताबिक, सिर्फ दिल्ली में ही लगभग 3 लाख लोग बेघर हैं। इसलिए मौजूदा शेल्टर होम पूरी तरह से अपर्याप्त ही नहीं हैं, बल्कि उनकी स्थितियां भी अत्यंत दयनीय हैं।
इसके साथ ही दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड (DUSIB) के द्वारा जिन 17,000 शेल्टर होम की क्षमता का दावा किया जा रहा है, उसमें बोर्ड के अनुसार भी केवल 5,900 बेड्स की क्षमता है।
यानि मामले की पृष्ठभूमि में शहरी क्षेत्रों में बढ़ते आश्रयहीन लोगों का मुद्दा था, किंतु माननीय न्यायाधीश, जो जल्द ही देश के अगले मुख्य न्यायाधीश बनने की ओर मुखातिब हैं, के दिमाग में चुनावों में राजनीतिक दलों के द्वारा दी जा रही फ्रीबी के चलते आम लोगों में बढ़ता परजीवीकरण घूम रहा था।
जब वकील प्रशांत भूषण ने इसका प्रतिवाद भी किया तो न्यायाधीश महोदय का साफ़ कहना था कि उन्हें सिर्फ एक पक्ष ही पता है। उन्होंने बताया कि कृषक पृष्ठभूमि होने के कारण उन्हें पता है कि महाराष्ट्र में फ्रीबी की बदंरबांट के कारण ग्रामीण क्षेत्रों में चुनाव से पहले खेतों में काम के लिए श्रमिक उपलब्ध नहीं हो पा रहे थे।
कुछ इसी प्रकार का दर्द लार्सन एंड टुब्रो के चेयरमैन एस एन सुब्रमनियन के हालिया बयान में भी झलका है। उनका कहना है कि श्रमिक आजकल सरकार से मिलने वाली फ्रीबी योजनाओं की सुविधाओं को प्राथमिकता दे रहे हैं, अब वे पलायन के इच्छुक नहीं हैं।
सुब्रमनियन साहब को अपने प्रोजेक्ट्स में सप्ताह में 90 घंटे काम करने वाले सिविल इंजीनियर चाहिए, और गांवों से लगातार पलायन कर शहरों में श्रमिकों की भीड़, जिन्हें वे पहले से भी कम दाम चुकाकर अपने प्रोजेक्टस में हर बार मोटा मुनाफा कमा सकें।
अब मामला यह है कि सुब्रमनियन साहब का अपने स्टाफ से सप्ताह में 90 घंटे की मांग वाले मुद्दे पर तो कड़ी आलोचना का सामना करना पड़ा, लेकिन सस्ते दिहाड़ी मजदूरों की उनकी चाह को लेकर मध्य वर्ग शायद ही कोई तवज्जो दे।
सोशल मीडिया पर कई लोगों ने एल एंड टी में उनके पे चेक का ब्यौरा तक पेश कर दिया था, जिसके अनुसार 2023-24 में एल एंड टी के चेयरमैन सुब्रमण्यम साहब को वेतन और भत्ते के रूप में 51.05 करोड़ रुपए मिले, जो एक वर्ष पहले की तुलना में 43% ज़्यादा हैं।
इसके अलावा, सुब्रमनियन जी का दैनिक वेतन और भत्ते 14 लाख रुपए हैं। सोशल मीडिया यूजर्स का कहना था कि अगर किसी को इतना वेतन मिले तो वह ऑफिस में ही अपनी चड्ढी टांग लेगा, लेकिन हकीकत तो यह है कि कंपनी के आम कर्मचारियों का औसत वेतन सुब्रमनियन जी से से 535 गुना कम है।
इतना ही नहीं, सुब्रमनियन जी ने अपने कर्मचारियों को सिर्फ़ 1.32% वेतन वृद्धि दी, इसके बावजूद उनकी मांग है कि उनका स्टाफ अपनी पत्नियों को न घूरे और हफ़्ते में 90 घंटे काम करे।
परजीवी, आलसी, हरामखोर कौन है?
परजीवी एक ऐसी गाली है, जिसका इस्तेमाल सबसे ज्यादा महाजनी सभ्यता के लिए किया जाता है। सामंती युग में निर्धन कृषकों और खेत मजदूरों को गाढ़े वक्त में ऊंचे ब्याज पर महाजन कर्ज दिया करते थे। अच्छे फसल की उम्मीद टूट जाने पर इन गरीबों के खेत या गहने बड़ी आसानी से इनके द्वारा कुर्क कर लिए जाते थे।
कुछ वर्ष पहले दक्षिण कोरियाई फिल्म पैरासाइट भी काफी चर्चित रही थी, जिसे अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाजा गया था। इसमें भी शहरी झुग्गीवासी परिवार के एक धनाड्य परिवार के घर पैरासाइट बन जाने के भयावह चित्र को अंकित किया गया था, जबकि वास्तविकता इसके उलट होती है।
वर्ष 2023 में सूरत से एक आरटीआई कार्यकर्ता संजय एझावा के आवदेन पर आरबीआई ने अपने जवाब में खुलासा किया था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में पिछले नौ वर्षों के दौरान 25 लाख करोड़ रूपये तक के ऋण माफ़ किये जा चुके थे।
2014 से 2022 के बीच के वर्षों में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों द्वारा 10.41 लाख करोड़ रूपये और व्यावसायिक बैंकों के द्वारा 14.53 लाख करोड़ रूपये तक के ऋणों को बट्टे खाते में डाला जा चुका था।
इन 25 लाख करोड़ रूपये राईट ऑफ में से मात्र 2.50 लाख करोड़ रुपयों की ही वसूली हो सकी। इसमें से बड़ी रकम उन बड़े पूंजीपतियों की थी, जो सरकार के क्रोनी मित्र थे और उनमें से कई सूचना सार्वजनिक होने से पहले ही मोटा माल सेफ हेवेन में भेजकर देश से नौ-दो-ग्यारह हो चुके थे। इनमें से आज तक एक भी भगोड़े को मोदी सरकार प्रत्यर्पण करा पाने में कामयाब नहीं हो सकी है।
लेकिन न ही सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति और न ही एल एंड टी के चेयरमैन साहब ने इस बारे में कोई टीका-टिप्पणी की है। लेकिन उससे भी बड़ा सवाल यह है कि 80 करोड़ गरीबों को 5 किलो मुफ्त अनाज या सरकार के क्रोनी मित्रों के 25 लाख करोड़ रूपये की फ्रीबी को आखिर चुकाता कौन है?
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण हर साल इसी फरवरी माह को एक और बजट पेश और पारित कराने जा रही हैं। पहले यह 40 लाख करोड़ रूपये और अब 50 लाख करोड़ रूपये तक जा पहुंचा है। कुछ वर्ष पहले तक प्रत्यक्ष कर में होने वाली वसूली अप्रत्यक्ष करों पर भारी पड़ा करती थी, लेकिन अब जबसे देश में जीएसटी की व्यवस्था आई है, स्थितियां उलट हो चुकी हैं।
अब प्रत्यक्ष कर (आयकर, कॉर्पोरेट टैक्स) का पलड़ा नीचे की ओर होता जा रहा है, जिसे देश के अमीर और मिडिल क्लास से ही वसूला जा सकता है। उधर दूसरी ओर, जीएसटी जो कि वस्तुओं और सेवाओं पर चार्ज किया जाता है, को गरीब से गरीब व्यक्ति नमक, आटे से लेकर दवाई सभी उपभोक्ता वस्तुओं पर चुकता करता है।
एल एंड टी जैसी इन्फ्रास्ट्रक्चर से जुड़ी कंपनियों के लिए सरकार हर साल बजट से लाखों करोड़ रूपये के राजमार्ग, फ्लाईओवर इत्यादि पर खर्च करती है, जिसका उपभोग या तो बड़े व्यवसायों के लाभ को सुगम बनाने में इस्तेमाल होता है या फिर ऑटो लॉबी के लिए मध्य वर्ग के तौर पर वाहनों के खरीदार के रूप में। यानि पाई-पाई वसूली तो हर मजदूर और गांव के किसान से है, लेकिन बदले में उन्हें सिर्फ विकसित भारत का लॉलीपॉप सपना ही है।
फिर बजट घाटे या बैंकों से लाखों करोड़ रूपये की ऋण माफ़ी का बोझ भी आम लोगों के कंधों पर ही जाता है। 1947 से 2014 तक भारत सरकार 55 लाख करोड़ रूपये के कर्ज पर बैठी थी, लेकिन अगले 10 वर्षों में यह 55 लाख करोड़ रूपये से 155 लाख करोड़ रूपये पार कर गई, जिसका भुगतान किसी अडानी, अंबानी या माल्या को नहीं करना है।
इसे तो उन्हीं को चुकता करना होगा जो ग्रामीण भारत में अभी भी मनरेगा रोजगार को 100 दिन से 200 दिन करने की मांग कर रहे हैं, या शहरों में काम की तलाश में आपके द्वारा ही सेट किये गये ठेकेदारों के हाथों आपके प्रोजेक्ट्स में आपकी शर्तों के तहत काम करने के लिए अभिशप्त हैं। आप ही बताइए, पैरासाइट कौन है।
(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)