सबसे पहले : केरल में वामपंथी सरकार का दूसरी दफे ‘लाल परचम’ फहराने के लिए वाम नेतृत्व, विशेष रूप से मुख्यमंत्री पिनराई विजयन, को मुबारकबाद और लाल सलाम। विजयन मंत्रिमंडल बन चुका है और ईश्वर की भूमि (केरल) के आकाश की धुंध समाप्त हो चुकी है। वाम क्षितिज पर युवा नेतृत्व उभर रहा है।
पूंजीवादी निज़ाम में कम्युनिस्टों का लोकतान्त्रिक चुनावों के माध्यम से सत्ता में आना और शासन करना इतिहास की अभूतपूर्व घटना है। जवाहरलाल नेहरू के होते हुए 1957 में ई.एम.एस. नम्बूदरीपाद के नेतृत्व में पहली कम्युनिस्ट सरकार बनी थी। हालांकि, केंद्र की कांग्रेस सरकार ने अल्पावधि में ही उसकी हत्या कर दी थी। नेहरू जी ने अनुदारता का परिचय दिया था। तब कांग्रेस की अध्यक्षा इंदिरा गांधी थीं।
नेहरू काल में ही वामपंथी संसद में प्रमुख विपक्षी दल थे। 1964 में विभाजन के बाद भी बिहार, उत्तर प्रदेश और दक्षिणी राज्यों में वाम शक्ति की प्रभावशाली मौजूदगी रह चुकी है।
यह भी अभूतपूर्व ऐतिहासिक उपलब्धियां हैं कि पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में सीपीएम के नेतृत्व में वाम मोर्चा की सरकारें तीन दशक से अधिक समय तक सत्ता में रहीं और अनेक क्रांतिकारी कदम उठाये। भूमि सुधार लागू किये। केंद्र में मध्यम मार्गी पूंजीवादी सरकारों ( इंदिरा गांधी से लेकर डॉ. मनमोहन सिंह तक) के बावज़ूद जनवादी ढंग से शासन चलाने की कोशिश की; नृपेन चक्रवर्ती, ज्योति बसु, मानिक सरकार जैसे मुख्यमंत्रियों के योगदान को कौन भुला सकता है? केरल में भी उत्तर नम्बूदरीपाद – मुख्यमंत्रियों की भूमिकायें ऐतिहासिक रही हैं; बहु भुजी संघ की हज़ार कोशिशों के बावजूद केरल राज्य को हिंदुत्व के ज्वार से आज तक बचाये रखा है!
मार्क्सवादी योद्धा ज्योति बसु को 1996 में प्रधानमंत्री पद का प्रस्ताव था लेकिन पार्टी ने अस्वीकार कर दिया था। इससे पहले भी उन्हें दो बार अनौपचारिक रूप से प्रधानमंत्री पद संभालने के लिए कहा गया था। पार्टी नेतृत्व तैयार नहीं हुआ। अब मेरे मत में 1996 के प्रस्ताव को न मानना ‘पोलिटिकल ब्लंडर’ था। यदि कॉमरेड बसु प्रधानमंत्री बनते तो राष्ट्रीय स्तर पर देश को वाम शासन की विशिष्टताओं का पता चलता। चूंकि, ज्योति बाबू को मोर्चा सरकारों के संचालन का पुख्ता अनुभव था इसलिए केंद्र में प्रभावशाली सरकार दे सकते थे। इस ऐतिहासिक अवसर को छोड़ना बड़ी भूल थी। (मैं प्रस्ताव के विरोधी लोगों में शामिल था। अब मुझे इसका अफ़सोस है।)
इसके विपरीत भाजपा ने तो सत्ता के लालच में अटल के नेतृत्व में 13 दिनों की सरकार चलाई थी। सत्ता की तृष्णा से कौन ग्रस्त है : वामपंथी या दक्षिणपंथी? तय करें।
वाम नेतृत्व बेदाग़ रहा है; क्या किसी मुख्यमंत्री या छोटे- बड़े नेता के खिलाफ सीबीआई और केंद्र की अन्य एजेंसियां कुकुर शैली में पीछे पड़ीं? क्या किसी सांसद को कठघरे में खड़ा किया गया ? क्या यह बात विश्वास के साथ भाजपा या अन्य दक्षिणपंथी नेताओं – मुख्यमंत्रियों के संबंध कही जा सकती है? यह भी आप तय करें।
संसदीय राजनीति में वाम शक्तियों का इतना शानदार इतिहास रहा है तब अपनी कमियों पर नज़र मारना अवैज्ञानिक नहीं होगा। पहली दफा बंगाल विधानसभा में वाम गैरमौज़ूद रहेगा। यह सही है कि युवा नेतृत्व को आगे लाया जाना चाहिए लेकिन सरकार में अनुभव और जोश के बीच संतुलन बनाए रखना भी ज़रूरी है।
बेशक़ मुख्यमंत्री को पूरा अधिकार है कि वह सरकार में किसका चयन करता है, लेकिन उससे यह भी अपेक्षित है कि उसकी चयन -प्रक्रिया विवादास्पद न रहे; मुख्यमंत्री विजयन ने अपने दामाद मोहम्मद रियास और पार्टी सचिव विजयराघवन की पत्नी आर बिंदु को मंत्री बना कर अनावश्यक विवाद मोल लिया है। निश्चित ही रियास और बिंदु की सार्वजनिक भूमिका से इंकार नहीं है। दोनों स्वयं में नेता हैं। लेकिन उनकी पारिवारिक विशिष्टता उनके मार्ग में बाधक है।
इससे भाई भतीजावाद की गंध आती है। इस आधार पर मार्क्सवादी पार्टी दक्षिण पंथी पार्टियों को कैसे कठघरे में खड़ा कर सकती है? इस आरोप से कॉमरेड विजयन बच सकते थे। कुछ समय रुक सकते थे। सत्ता की अपनी डायनामिक्स होती है। वह अपना रंग दिखाती है। छोटी सी असावधानी विकृतियों का कारण बन जाती है। भविष्य में गलत परिपाटी को भी स्वीकार कर लिया जाता है। इस अप्रिय कदम में पार्टी नेतृत्व हठ के स्थान पर ‘आत्म निरीक्षण‘ को अपनाये तो अधिक उपयोगी रहेगा और वाम समर्थक कह सकेंगे ‘लेफ्ट गवर्नमेंट विथ डिफरेंस’।
(राम शरण जोशी वरिष्ठतम पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)