हां, ट्रेन हत्यारा मनोरोगी है, मगर उस रोग का वायरस कौन है?

जयपुर-मुम्बई ट्रेन में जो हुआ वह भयानक है-अत्यंत खतरनाक स्तर का भयानक है; लेकिन अचानक नहीं है। यह एक संक्रमण का परिणाम तो है ही इसी के साथ उसके भीषण रूप से संक्रामक होने का ऐलान भी है। आरपीएफ जवान चेतन सिंह ने हत्याओं की शुरुआत एएसआई टीकाराम मीणा से की, क्योंकि उसके साथ राजनीतिक बहस के बीच जब वह मुसलमानों के बारे में आपत्तिजनक टिप्पणियां कर रहा था, तब मीणा ने उससे असहमति जताई थी और उसकी टुकड़ी के इंचार्ज होने के नाते इस एएसआई ने उसे टोका था और ऐसी बातें न करने के लिए कहा था।

मीणा की असहमति का जवाब इसने गोली से उनकी जान लेकर दिया। वह यहीं तक नहीं रुका। उसके बाद बी 4, बी 5 और पैंट्री कार- तीन अलग-अलग डिब्बों-में जाकर बिना किसी उकसावे, बिना किसी व्यक्तिगत जान-पहचान के सिर्फ उनकी मुस्लिम पहचान के बिना पर तीन सवारियों को भून दिया। यह सुबह-सुबह की, साढ़े पांच बजे भोर की बात है, जब यह माना जाता है कि मानसिक शान्ति सबसे उत्तम होती है।

बात इतने तक ही नहीं रुकी, इस दिल दहला देने वाले हत्याकाण्ड को अंजाम देने के बाद उसने बिना किसी भावावेश में आये, लाश के सिरहाने खड़े होकर बाकायदा “भाषण” दिया, इसमें उसने कहा कि; “ये लोग (मुसलमान) पाकिस्तान से ऑपरेट होते हैं, (ऐसा) हमारी मीडिया कवरेज दिखा रही है। पता चल रहा है उनको, सब पता चल रहा है। इनके आका हैं वहां। अगर वोट देना है, हिंदुस्तान में रहना है तो मैं कहता हूं मोदी-योगी को दीजिये। यही दो हैं!”

अत्यंत संयत शब्दों में दिए इस भाषण में कही गयी उसकी बातें इस बीमारी के अब महामारी बनने की ओर अग्रसर होने के लक्षण दिखाने वाली हैं, इसकी व्याप्ति और उसके उदगम दोनों को साफ़-साफ़ सामने लाने वाली हैं। बीमारी का यह नया प्रकार है। इसे धर्मोन्माद नहीं कहा जा सकता, यहां कोई कथित आहत भाव का मसला नहीं था। यह भीड़ हत्या का मसला भी नहीं था- दूर-दूर तक न कोई गाय थी, न कोई पशुओं का व्यापारी ही था। एएसआई मीणा तो मुस्लिम भी नहीं था।

भारत के साम्प्रदायिक खूंरेजी के इतिहास की यह पहली घटना है जहां किसी भगवान या खुदा या गॉड या पैगम्बर के बहाने नहीं घोषित रूप से दो नेताओं- मोदी और योगी का नाम लेकर चार लोग मार दिए गए; वह भी उसके द्वारा जिसकी ड्यूटी ही उनकी सुरक्षा के लिए लगाई गयी थी। जाहिर है कि ये हत्याएं किसी झक्की, सनकी, चिड़चिड़े व्यक्ति द्वारा किया गया काण्ड नहीं है। ये एक ख़ास राजनीति के पक्ष में की गयी राजनीतिक हत्याएं हैं; उसके बाद दिया गया भाषण किसी मनोरोगी का प्रलाप नहीं है-एक राजनीतिक वक्तव्य है। जिन मोदी और योगी का नाम लिया गया है उनकी राजनीति का निर्दोषों के खून की स्याही और एके 47 की राईफल से लिखा गया आख्यान है।

इस हत्याकाण्ड के बाद ज्यादातर मीडिया, हमारी नजर में आये हिंदी अखबारों, ने इस भाषण के बारे में, खासतौर से उसके आख़िरी हिस्से के बारे में, चुप्पी साधने का रास्ता चुना। मोदी- योगी वाली बात छुपाने की कोशिश की। पुलिस द्वारा दर्ज प्रकरण में भी इसका संज्ञान नहीं लिया गया, खबर तो यह भी है कि ट्विटर को हुकुम दिया गया है कि वह इस वीडियो को हटा ले। इसी के साथ, इसी लाइन की निरंतरता में आरपीएफ और पुलिस सहित पूरे का पूरा सरकारी महकमा उसे मानसिक रोगी साबित करने के काम में लग गया है। अनेक लोगों ने सरकारी अधिकारियों के इस बयान को लीपापोती की कोशिश बताया है। यकीनन यह एक तरह से हत्याओं की असली वजह से ध्यान बंटाने की चतुराई है भी मगर इसी के साथ यह सच को दूसरी तरह स्वीकार लेने की स्थिति भी है। एक तरह की फ्रायडियन चूक है जिसमें सच छुपाने की लाख कोशिश करने के बाद भी वह निकल ही जाता है। 

निस्संदेह चेतन सिंह एक मनोरोगी है; एक ऐसे खतरनाक मनोरोग का शिकार जिसने उसके मनुष्यत्व को समाप्त करके उसे एक हिंसक, आदमखोर प्राणी में बदल कर रख दिया है। वह एक ख़ास किस्म के नफरती प्रोपेगंडा का शिकार होकर एक अति विषाक्त मानव गन में तब्दील होकर रह गया है। यह नफरती प्रचार और उसके जरिये उन्माद पैदा करने का काम कौन कर रहे हैं इसे खुद उसने अपने ह्त्या उपरान्त दिए गए भाषण में स्वीकार कर लिया है। यही नफरती प्रचार था जिसने गांधी के हत्यारे को प्रेरित किया था।

गांधी हत्या के बाद संघ पर लगे प्रतिबंध को लेकर आयी श्यामा प्रसाद मुखर्जी की चिट्ठी के जवाब में तबके गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने 18 जुलाई, 1948 को लिखा था कि “:… इन दो संस्थाओं, खासकर आरएसएस की गतिविधियों के कारण देश में ऐसा वातावरण बना, जिसकी वजह से ऐसी (गांधी हत्या जैसी) भयानक घटना घटी।” 

उन्होंने लिखा कि “….आरएसएस नेताओं के सारे भाषण सांप्रदायिकता के जहर से भरे होते हैं….इस जहर का ही नतीजा देश को गांधी जी के बलिदान से चुकाना पड़ा।”

और यह भी कि “आरएसएस की गतिविधियां सरकार और राज्य के अस्तित्व के लिए जोखिम भरी थीं। रिपोर्ट्स बताती हैं कि (प्रतिबंध के बाद भी) ऐसी गतिविधियां बंद होने के बावजूद खत्म नहीं हुईं। समय के साथ-साथ आरएसएस का संगठन और अवज्ञा करता जा रहा है। उनकी विद्रोही गतिविधियां बढ़ती जा रही हैं।”

यह चिट्ठी सरदार पटेल ने 74 वर्ष पहले लिखी थी। आजादी की 75वीं वर्षगांठ के ठीक पहले फिर एक बार वही जहर उबल कर उफन रहा है। चेतन कुमार सिंह उसी जहर से भरा मानव-बम था! ऐसे अनेक मानव बम घूम रहे हैं। 

जो मनोदशा इस हत्यारे की बनाई गयी है वह इसी तक महदूद नहीं रहने वाली। जिस मीडिया का वह सबूत के रूप में जिक्र कर रहा था, जिस व्हाट्सएप्प यूनिवर्सिटी ने उसमें यह विस्फोटक विष भरा था वह 24 घंटा सातों दिन इसी तरह के जहर का उत्पादन कर रही है। इसलिए नफरत का कारोबार यहीं तक रुकने वाला नहीं है। जो नाजी जर्मनी और मुसोलिनी अपने भारतीय संस्करणों का प्रेरणास्रोत है, उनके जमाने की मनोदशा और सबको उस मनोदशा में पहुंचा देने की प्रक्रिया और तकनीक को लेकर अनेक अध्ययन हुए हैं। ऐसी सैकड़ों किताबें हैं इनमें से एक विलियम एल. शीरर की किताब ‘राइज एंड फॉल ऑफ द थर्ड राइख’ उस पूरी कवायद का दस्तावेजीकरण करती है जिसके द्वारा इस उन्मादी मानसिकता को उत्तरोत्तर उच्च से उच्चतर स्तर तक पहुंचाया गया।

किस तरह “हम” और “वे” की धारणा को पक्का कर जो “वे” करार दिए गए उनके साथ  हर तरह की बर्बरता को जायज बनाया गया। इन्हें पढ़ते में ऐसा लगता है जैसे इन दिनों यही सब ठीक उसी तरह दोहराया जा रहा है। ‘नाज़ी जर्मनी (शार्ट ऑक्सफ़ोर्ड हिस्ट्री ऑफ़ जर्मनी)’ इन सबके अलावा इस प्रक्रिया के तीव्र से तीव्रतर होते जाने के उस दौर की कई राजनीतिक पार्टियों और सामाजिक संगठनों की समर्पणकारी और बचकाना उम्मीदों वाली दिवालिया भूमिका को सामने लाती है। नाजियों पर चले न्यूरेमबर्ग मुकदमे के मुजरिमों के साथ मनोवैज्ञानिकों के लम्बे साक्षात्कारों पर आधारित एक पूरा अध्ययन भी है, नाजियों के साथ पूछताछ पर आधारित ‘इंटेरोगेशन’ सहित अनेक प्रामाणिक अध्ययन और भी हैं।

इन्ही में एक छोटी सी किताब ‘नाजीवादी जर्मनी की मनोदशा’ है जिसे स्विस मनोविज्ञानी और मशहूर लेखक कार्ल गुस्ताव यंग ने लिखा है। कार्ल ने 1928 से 1941 के दौरान कोई  15 हजार से ज्यादा जर्मनों के मनोविज्ञान का अध्ययन किया था। इनमें हर तबकों के लोग थे। इस शोध के आधार पर उन्होंने पता लगाया कि हिटलर और उसके प्रचारतंत्र ने कैसे उनका विवेक छीनकर उन्हें एक उन्मादी भीड़ में बदल दिया और किस तरह सिर्फ 32-33 प्रतिशत जर्मनवासियों का समर्थन पाने वाला हिटलर और उसका नाज़ी गिरोह पूरी जर्मनी को आत्मविनाश के लिए तैयार करने में कामयाब हो गया।

किस तरह उसने पढ़े-लिखे लोगों की एक जमात, पत्रकारों, कलाकारों को भी राजनीतिक हत्याओं का समर्थन करने वालों में बदल दिया। अंध भक्तों की एक बड़ी फ़ौज खड़ी कर दी जो हर तरह के दमन, यहां तक कि नरसंहार को भी देश के लिए जरूरी मानने लगी। ऐसी भीड़ तैयार कर दी जो सत्ता के खिलाफ उठने वाले सवालों का खुद ही जवाब देने और उसे सही साबित करने के काम में लग गयी, हिटलर को उन्माद भडकाने वाले भाषण देने (और आखिर में आत्महत्या करने) के सिवाय कुछ नहीं करना पड़ा।

ऐसे लोगों के प्रोफाइल तैयार करते में कार्ल गुस्ताव इनमें जो समानता पाते हैं वे इनके पढ़े लिखे होने के बाद भी सूचनाओं और ज्ञान से वंचित होने इस तरह कुपढ़ होने, खुद और परिवार से दुखी और असंतुष्ट होने और ज्यादातर मामलों में कमतर क्षमता के बावजूद योग्यतम होने का भरम पालने वाला होने तथा अपनी असक्षमता की हीनग्रंथि से उबरने के लिए शुद्ध आर्य रक्त और आर्य राष्ट्रवाद का सहारा लेने वाला होने की थीं। 

लाश पर खड़े होकर दिया गया चेतन सिंह का भाषण इस बात का प्रमाण है कि वह इसी तरह की उन्मादी मशीन से ढला हुआ मनोरोगी है नफरती प्रचार ने उससे मनुष्य होने का विवेक छीन लिया है। उसे इस दशा में किसने पहुंचाया है यह बात भी, “हमारी मीडिया कवरेज दिखा रही है, जिससे पता चल रहा है सब पता चल रहा है।” कहकर वह स्वयं ही क़ुबूल कर रहा है। “अगर वोट देना है, हिंदुस्तान में रहना है तो मैं कहता हूं मोदी योगी को दीजिये” की धमकी देकर अपना मकसद भी स्पष्ट रूप से व्यक्त कर रहा है।

इतने भयानक काण्ड के बावजूद किसी केन्द्रीय अथवा महाराष्ट्र सरकार के मंत्री, भाजपा के किसी प्रवक्ता, संघ के किसी भी मुखौटे द्वारा इसकी निंदा या भर्त्सना तक नहीं की गयी है। पिल्ले के मर जाने पर भी दुःख होने का दावा करने वाले जब मणिपुर पर नहीं बोले तो इस पर क्या बोलेंगे। मौतों पर अफ़सोस तक व्यक्त नहीं किया गया है। अपने नाम का इस्तेमाल करने पर क्षोभ या रोष भी नहीं जताया गया। यह साधारण बात नहीं है- यह एक प्रकार से इस जघन्यता का अनुमोदन है; यह मौनम स्वीकृति: लक्षणम् है। इसे ठीक इसके अगले दिन से योजनाबद्ध तरीके से हरियाणा में शुरू किये गए साम्प्रदायिक हमलों और फटाफट उनके पूरे प्रदेश में फैल जाने के साथ जोड़कर देखने से साफ़ हो जाता है कि यह 2024 के चुनाव अभियान का शंख फूंका जाना है; उसके लिए एजेंडा तैयार किया जाना है।

यह साम्प्रदायिकता से आगे की चीज है-यह वहशी फासिस्टी उन्माद है और उसे जिस तरह  तेज से तेजतर किया जा रहा है उसे देखकर नहीं लगता कि यह यहीं तक रुकने वाला है या सिर्फ एक समुदाय विशेष तक ठहरने वाला है। असहमति जताने वाले, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र और क़ानून की राज की हिमायत करने वाले, अपने साथ हुए अन्याय के खिलाफ या अपने अधिकारों के लिए आन्दोलन करने वाले आदि इत्यादि जिन-जिन के खिलाफ यह उन्माद भड़काया जा रहा है वे सब भी  इन मानव गन के निशाने पर हैं, जॉन एलिया का शेर थोड़ा बदल कर कहें तो; “अब हुई हरेक बात खतरे की/अब सभी को सभी से खतरा है।”

ऐसे खतरों के समय, इन खतरों के खिलाफ जितना अधिक संभव हो उतनों को जोड़ना और जितनी शिद्धत से संभव है उससे कहीं ज्यादा जिद के साथ मैदान में उतरना ही एकमात्र विकल्प है।

(बादल सरोज, लोकजतन के सम्पादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।)

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