सरकार ने जब कुछ पाबंदियों के साथ अनलॉक की घोषणा की तब कोरोना के डर के बावजूद मुम्बईकर निकलने लगे थे अपने-अपने घरों से बाहर।
सरकारी गैर सरकारी दफ्तरों में काम करने वाले
छोटे-मोटे व्यापारी
आखिर कब तक रह सकते हैं बिना काम ?
ऑटो, टैक्सी कुछ बसें और लोकल ट्रेन भी चालू हुईं कुछ ।
मास्क लगाए लोग फिर दिखने लगे सड़कों दुकानों दफ्तरों में।

अभी ये मुम्बई धीरे-धीरे खुलने लगी ही थी कि पिछले तीन दिनों में बारिश ने भी जैसे तय कर लिया था कि मैं भी देखती हूँ कैसे निकलोगे बाहर?
कहीं-कहीं तो लग रहा था जैसे समुंदर आ गया हो सड़कों पर, पानी फ्लाईओवर ब्रिज तक पहुंच रहा था। मकानों की छतें उड़-उड़कर गिर रहीं थी, पॉश कहे जाने वाले इलाकों में भी पानी ज़रूरत से ज्यादा जमा हो रहा था और निचले इलाकों का तो हाल बेहाल था ही। ट्रेनें बन्द, पटरियों पर लोगों की जान बचाती नाव।
डर लग रहा था कि कहीं वापस 26 जुलाई, 2005 की तरह ना हो जाये।
सवाल ये है कि मानसून हर साल आता है और मुम्बई की म्युनिसिपल कॉरपोरेशन भारत की सबसे ज्यादा अमीर कॉरपोरेशन! फिर भी हर साल मानसून में मुम्बई की हालत इतनी खराब क्यों हो जाती है?
क्यों नहीं हम उससे निपटने की तैयारियां समय रहते कर पाते?
कहीं तो कुछ गड़बड़ है?
या हम ये मान कर चलते हैं कि हाँ, दो-चार दिनों की तो बात है। जब होती है मुम्बई अस्त-व्यस्त
हो जाती है लगभग बन्द
फिर लोग भूल जाएंगे और ज़िंदगी सामान्य तरह से चलने लगेगी
क्या हम सभी दोषी हैं ?
क्योंकि भूल जातें हैं हम बड़ी-बड़ी आपदाओं को

चाहे कोरोना हो या उससे लगातार बढ़ते मरीजों की संख्या
लाखों बेघर भूखे-प्यासे मजबूर गरीब सड़कों पर हों, पैदल जा रहें हों सुरक्षित स्थानों को
मर रहे हों सड़कों पर
हॉस्पिटल्स में बिना इलाज के बेबसी में मरना हो
करोड़ों की संख्या में नौकरियाँ का जाना हो
या हो ये खतरनाक मानसून
मतलब कुछ समय में ही भूल जाते हैं हम
सिर्फ मुम्बई की नही दुर्घटनाएं देश-दुनिया की
वो दुर्घटनाएं जो रोकी जा सकती थीं
याद रहता है सिर्फ और सिर्फ वो जो याद रखवाना चाहता है मीडिया …
बस सवाल नहीं करते हम उनसे जो ज़िम्मेदार हैं इन दुर्घटनाओं के….
(अजय रोहिल्ला फिल्म अभिनेता हैं और मुंबई में रहते हैं।)
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