हाल ही में आए सर्वे ने बिहार की जनता के मूड की निरंतरता को ही साबित किया है। बिहार विधानसभा का कार्यकाल 22 नवंबर को समाप्त होगा। उससे पहले वहां चुनाव संपन्न हो जाना है। जाहिर है, बिहार अब चुनावी मोड में प्रवेश कर चुका है और सभी पार्टियां तैयारियों में जुट गई हैं।
ताजा ओपिनियन पोल के अनुसार, इंडिया गठबंधन को 44.2%, एनडीए को 42.8% और प्रशांत किशोर की जनसुराज पार्टी को मात्र 2.7% वोट मिलने का अनुमान है। बिहार विधानसभा की कुल 243 सीटों में बहुमत के लिए 122 सीटें चाहिए। पोल ट्रैकर के नवीनतम ओपिनियन पोल के अनुसार, इंडिया गठबंधन को 126 सीटें मिल सकती हैं, जो बहुमत के आंकड़े से अधिक है। वहीं, एनडीए को 112 सीटें, जनसुराज को 1 सीट और अन्य दलों को 8 सीटें मिलने का अनुमान है। इससे पहले 8 जून को हुए पोल ट्रैकर के सर्वे में इंडिया गठबंधन को 121-131 सीटें और एनडीए को 108-115 सीटें मिलने की बात कही गई थी। दोनों सर्वे में इंडिया गठबंधन को बढ़त मिलती दिख रही है।
पोल ट्रैकर के ओपिनियन पोल में बिहार के अगले मुख्यमंत्री के लिए जनता की पसंद भी सामने आई है। राजद नेता तेजस्वी यादव 43% लोगों की पहली पसंद बनकर उभरे हैं, जबकि वर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को केवल 31% लोग दोबारा मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं। जनसुराज के प्रशांत किशोर को 9% लोग पसंद कर रहे हैं। सर्वे में यह भी खुलासा हुआ कि बिहार के युवाओं में राहुल गांधी की लोकप्रियता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से अधिक है। राहुल गांधी को 47% युवा पसंद करते हैं, जबकि नरेंद्र मोदी को 39% का समर्थन प्राप्त है।
2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में एनडीए ने 125 सीटें जीती थीं और किसी तरह सरकार बनाने में सफल रहा था। बीजेपी ने 110 सीटों पर चुनाव लड़ा और 74 सीटें जीतीं, जबकि जेडीयू ने 115 सीटों पर लड़कर 43 सीटें हासिल कीं। हिंदुस्तान अवाम मोर्चा (HAM) को 4 और विकासशील इंसान पार्टी (VIP) को भी 4 सीटें मिली थीं। दूसरी ओर, महागठबंधन में राजद ने 144 सीटों पर चुनाव लड़कर 75 सीटें जीतीं, कांग्रेस ने 70 सीटों पर 19 सीटें हासिल कीं, और वाम दलों ने मिलकर 16 सीटें जीतीं। इस बार VIP महागठबंधन के साथ है, जो चुनाव में निर्णायक साबित हो सकता है।
इसी बीच, बिहार में चुनाव आयोग ने आठ करोड़ मतदाताओं की गहन जांच का ऐलान किया है, जिसका भाकपा-माले, अन्य विपक्षी दल और विश्लेषक विरोध कर रहे हैं। माले का आरोप है कि जुलाई के खेती के व्यस्त महीने में इस तरह की जांच का असली उद्देश्य बड़े पैमाने पर मतदाताओं के नाम खारिज करना और उन्हें मताधिकार से वंचित करना है।
माले के प्रदर्शन की ओर लोग उम्मीद भरी निगाहों से देख रहे हैं। इसका कारण पिछले चुनाव में उसका प्रदर्शन और स्ट्राइक रेट है। माले को केवल 19 सीटें लड़ने को मिली थीं, जिनमें उसने 12 सीटें जीत ली थीं। वामपंथ को कुल 16 सीटें मिली थीं।
पिछले पांच वर्षों में, एक सदस्य का चुनाव निरस्त होने के बाद माले ने उस सीट को फिर से जीत लिया। इतना ही नहीं, माले ने समझौते में मिली तीन में से दो लोकसभा सीटें जीतकर 36 साल बाद न केवल संसद में जगह बनाई, बल्कि पहली बार उसके दो सांसद विजयी हुए। सच तो यह है कि राजद को भी माले के प्रभाव वाले इलाकों में ही जीत हासिल हुई।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि सिवान जैसी सीटें यदि माले को मिली होतीं, तो वे जीतकर गठबंधन के खाते में आ सकती थीं। पार्टी को निश्चित रूप से सांसद सुदामा प्रसाद की विधायक सीट पर अपनी पराजय के कारणों पर गहन आत्ममंथन करना होगा। बहरहाल, माले ने इसी बीच विधान परिषद में प्रवेश किया। पार्टी की जुझारू महिला नेता शशि यादव ने गठबंधन की ओर से परिषद की सीट पर जीत हासिल की।
चुनाव नजदीक आते देख नीतीश सरकार एक के बाद एक लोकलुभावन घोषणाएं कर रही है। लेकिन जाहिर है, जनता इस खेल को अब काफी हद तक समझ चुकी है। इसलिए इन वादों से चुनाव पर बहुत अधिक असर पड़ने की संभावना नहीं है। इस बीच, माले ने शाहाबाद, मगध, पटना पट्टी के बाहर मिथिला, पश्चिमी बिहार और सीमांचल में भी आंदोलनों के माध्यम से गरीबों के बीच अपनी पैठ बढ़ाई है। माले 40 सीटों के आसपास लड़ना चाहेगी।
इधर, लोकसभा चुनाव के बाद नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता में भारी गिरावट आई है, विशेषकर पहलगाम हमले के बाद हुई भारत-पाक झड़प के संदर्भ में। उनके समर्थकों के बीच इस बात को लेकर मायूसी है कि पीओके पर कब्जा किए बिना सीजफायर क्यों किया गया। उधर, ट्रंप ने दावा किया है कि यह सीजफायर उन्होंने व्यापार का लालच देकर करवाया, जबकि भारत की घोषित नीति रही है कि किसी तीसरे पक्ष का हस्तक्षेप स्वीकार्य नहीं है। भारत की विदेश नीति, जिसे अब तक गर्व से ‘नॉन-अलाइंड’ से ‘ऑल-अलाइंड’ कहा जाता था, के चलते भारत अंतरराष्ट्रीय मंच पर अकेला पड़ गया।
हाल ही में हुए इजरायल-ईरान युद्ध में, भक्तों के आदर्श इजरायल की अपराजेयता का मिथक चकनाचूर हो गया। अमेरिका और इजरायल मिलकर भी ईरान को झुका नहीं पाए, जिसकी पूरी दुनिया में चर्चा हो रही है। यह भक्तों के लिए बड़ा धक्का है। इसमें भी, जिस पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष हाल ही में ट्रंप के साथ लंच कर लौटे थे, उसने अमेरिकी हमले का विरोध किया, लेकिन मोदी सरकार अपने मित्र देश ईरान पर इस हमले का विरोध नहीं कर सकी। इस तरह, मोदी की वह छवि, जिसमें उनकी दुनिया में तूती बोलती थी, धूमिल हो गई।
नीतीश कुमार ने घोषणा की है कि ‘दीदी की रसोई’ में 40 रुपये के बजाय 20 रुपये में भोजन मिलेगा। प्रत्येक पंचायत में विवाह मंडप बनाए जाएंगे। गरीब महिलाओं को मिलने वाली धनराशि बढ़ाने और शिक्षकों की भर्तियों का ऐलान भी किया गया है। बहरहाल, नीतीश की छवि में भारी गिरावट आई है। उनके स्वास्थ्य को लेकर भी तरह-तरह की अफवाहें हैं। इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि सुशासन, भ्रष्टाचारमुक्त शासन और विकास के जिन नारों पर वे सत्ता में आए थे, उनकी हवा निकल चुकी है। सुशासन बाबू के 20 साल के शासन का कुल हासिल यह है कि मानव विकास के सभी सूचकांकों में बिहार सबसे निचले पायदान पर है। यही कारण है कि व्यक्तिगत लोकप्रियता में नीतीश कुमार तेजस्वी यादव से पिछड़ गए हैं।
रोजगार का सवाल बिहार में लगातार सबसे बड़ा मुद्दा बना हुआ है। पिछले चुनाव में भी यह सबसे बड़ा सवाल था, और जाति-संप्रदाय से ऊपर उठकर नौजवानों का भारी समर्थन मिलने के कारण महागठबंधन सरकार बनाने के मुहाने तक पहुंच गया था। तब से स्थिति और गंभीर हुई है। बेरोजगार युवाओं की आवाज पटना में लगातार गूंजती रही।
नीतीश-भाजपा सरकार ने उनकी न्यायोचित मांगें मानने और रोजगार की गारंटी देने के बजाय उनका दमन किया, जो राष्ट्रीय सुर्खियां बना। भाजपा की ‘बी टीम’ के रूप में नीतीश कुमार के काम करने से अल्पसंख्यकों के बीच उनका रहा-सहा जनाधार भी खत्म हो गया है। निषाद-मल्लाह समुदाय पर आधारित पार्टी भी एनडीए छोड़कर महागठबंधन का हिस्सा बन गई है।
यह स्पष्ट है कि यदि महागठबंधन समुचित ढंग से सीटों का बंटवारा कर सके और आम जनता, युवाओं, गरीबों के जीवन से जुड़े वास्तविक सवालों को चुनाव में आंदोलन का रूप दे सके, तो उसका पलड़ा भारी रहना तय है।
(लाल बहादुर सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं)