आज के समय में जातिगत जनगणना और “जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी” जैसे विषय राजनीति के ज्वलंत मुद्दे हैं। ध्यान दिला दें कि इनकी आधारशिला महात्मा ज्योतिबा फुले ने रखी। 11 अप्रैल 1827 में महाराष्ट्र के पुणे में जन्मे ज्योतिबा फुले आजीवन बहुजनों, दलितों और वंचितों के हक-अधिकारों की लड़ाई लड़ते रहे।
जब दलितों, वंचितों, उपेक्षितों और हाशिए के लोगों को समाज व्यवस्था द्वारा जीव-जंतुओं जैसा भी नहीं समझा जाता था, उस समय उन्हें इंसानी हक और मानवीय गरिमा के साथ जीने का हौसला देने वाले हमारे देश में गिने-चुने महापुरुष हुए हैं, जिनमें महात्मा ज्योतिबा का नाम बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है। जातिवादी और पितृसत्तावादी इस देश में वंचितों को उनका हक-अधिकार दिलाने और उन्हें इंसान की तरह इज्जत की जिंदगी जीने के लिए वह आजीवन संघर्षरत रहे। उन्होंने शिक्षा, महिला सशक्तिकरण और सामाजिक न्याय के लिए अथक प्रयास किए। उनके समाज सुधार के कार्यों से देश के दलित, वंचित, उपेक्षित व महिला वर्ग में नई जागृति आई।
ज्योतिबा फुले माली जाति से थे, जो सामाजिक रूप से पिछड़ी मानी जाती है। समाज में व्याप्त जाति आधारित भेदभाव के कारण उन्होंने अनेक कठिनाइयों का सामना किया। उनके पिता ने उनकी शिक्षा के प्रति रुचि को प्रोत्साहित किया। ज्योतिबा ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा मराठी भाषा में प्राप्त की और बाद में अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई की। उन्होंने अपने जीवन में शिक्षा के महत्व को समझा और इसे समाज सुधार का सबसे प्रभावी माध्यम माना।
ज्योतिबा फुले ने सामाजिक सुधारों के लिए सत्यशोधक समाज की स्थापना 1873 में की थी। उनका मुख्य उद्देश्य था शूद्र-अतिशूद्रों को धार्मिक और सामाजिक गुलामी से मुक्ति दिलाना। फुले यह भली-भाँति जानते थे कि कानून के कोड़े बिना रूढ़िवादी मानसिकता के लोगों में सुधार होना बहुत कठिन है। अंग्रेजों के कानून के बल पर कई अमानवीय प्रथाएँ, जो धर्म के नाम पर चल रही थीं, समाप्त की गईं। उस समय शूद्र-अतिशूद्रों को संपत्ति रखने का अधिकार नहीं था।
ज्योतिबा फुले ने देखा कि समाज के आम लोग धर्म के नाम पर शोषित किए जा रहे हैं। उनका दमन किया जा रहा है। ये लोग अंधविश्वास में पूरी तरह डूबे हुए थे। उन्हें जागरूक करने के लिए महात्मा ज्योतिबा फुले ने लगातार प्रयास किए। उन्होंने विवाह, मृत्यु संस्कार और अन्य सामाजिक गतिविधियों में ब्राह्मण पुरोहितों की अनिवार्यता को समाप्त करने की कोशिश की।
उस समय महिलाओं की स्थिति बहुत दयनीय थी। विधवाओं को दोबारा विवाह करने की अनुमति समाज नहीं देता था। बाल विवाह के प्रचलन के कारण अनेक बालिकाएँ बाल विधवा हो जाती थीं। महात्मा ज्योतिबा फुले ने इसका पुरजोर विरोध किया। वे विधवा विवाह के कट्टर समर्थक थे। उन्होंने विधवाओं के विवाह को प्रोत्साहन दिया। विधवा माँओं के बच्चों का पालन-पोषण किया। इसमें उनकी जीवन संगिनी सावित्रीबाई फुले ने भी उनका पूरा साथ दिया।
महात्मा ज्योतिबा फुले जानते थे कि दलितों, वंचितों और महिलाओं की स्थिति को बदलने के लिए उन्हें शिक्षित करना बहुत जरूरी है। इसके लिए फुले दंपति ने महिलाओं की शिक्षा पर उस समय जोर दिया, जब महिलाओं को समाज द्वारा पढ़ने-लिखने की अनुमति नहीं थी। उन्होंने 1848 में पुणे में लड़कियों के लिए पहला स्कूल खोला। इसके लिए उन्हें समाज का बहुत विरोध सहना पड़ा। पर फुले दंपति ने हिम्मत नहीं हारी और लगातार संघर्ष करते रहे। यही कारण है कि ज्योतिबा की पत्नी सावित्रीबाई को प्रथम शिक्षिका कहा जाता है। फुले दंपति ने बहुजनों, दलितों-वंचितों की शिक्षा के लिए अनेक स्कूल खोले।
विधवा और गर्भवती विधवाओं के रहने, खाने-पीने की व्यवस्था करते हुए उन्होंने विधवा आश्रम खोले, जहाँ उनकी और उनके नवजात शिशुओं की देखभाल और पालन-पोषण किया जाता था।
फुले केवल जाति और महिला सशक्तिकरण के ही पक्षधर नहीं थे, बल्कि उन्होंने किसानों और श्रमिकों की समस्याओं पर भी ध्यान केंद्रित किया। उन्होंने ब्रिटिश सरकार की नीतियों और जमींदारी व्यवस्था की आलोचना की, जिसमें गरीब किसान और मजदूर आर्थिक रूप से शोषित होते थे। उनका कहना था कि किसानों को उनके श्रम का उचित मूल्य मिलना चाहिए और उनके शोषण को समाप्त किया जाना चाहिए।
ज्योतिबा फुले ने अपने विचारों को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुँचाने के लिए कई पुस्तकें लिखीं। उनकी एक चर्चित पुस्तक है- गुलामगिरी । यह पुस्तक 1873 में लिखी गई। इस पुस्तक में उन्होंने भारतीय समाज में व्याप्त जातिगत गुलामी और ब्राह्मणवादी शोषण पर तीखा प्रहार किया। बाद में यह पुस्तक दलित और पिछड़े वर्गों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनी, जो आज भी है।
इसी प्रकार 1883 में लिखी गई उनकी पुस्तक किसान का कोड़ा भी महत्वपूर्ण है। इसमें उन्होंने किसानों की दुरदशा को दर्शाया है। उन्होंने यह बताने की कोशिश की कि किस प्रकार जमींदारों या वर्चस्वशाली वर्ग द्वारा साधारण किसानों और मजदूरों का शोषण किया जाता था।
ज्योतिबा फुले ने समाज में फैली छुआछूत का विरोध किया। जातिगत भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाई। लिंग भेद को मिटाने और स्त्री-पुरुष समानता पर बल दिया। ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के खिलाफ जीवन भर संघर्ष करते रहे। वे सच्चे समाज सुधारक थे, जो सामाजिक असमानता और आर्थिक असमानता के विरुद्ध आजीवन लड़ते रहे। उनका निधन 28 नवंबर 1890 को हुआ।
महात्मा ज्योतिबा फुले के विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं। हम छुआछूत और जातिगत भेदभाव से उपजी मैला ढोने की प्रथा को आज भी ढो रहे हैं। आज भी हमारी महिलाएँ शुष्क शौचालय साफ कर रही हैं। आज भी हमारे सफाई कर्मचारी भाई सीवर-सेप्टिक टैंक साफ करते हुए जहरीली गैस से दम घुटने से मर रहे हैं, बल्कि कहिए कि सीवर-सेप्टिक टैंक में घुसाकर सरकार द्वारा मारे जा रहे हैं।
ज्योतिबा की मानवतावादी विचारधारा से प्रभावित होकर बाबासाहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर ने महात्मा ज्योतिबा फुले को अपना गुरु माना था। उनके विचारों को आगे बढ़ाते हुए संविधान में कई अच्छे प्रावधान किए। पर हमारे देश पर ब्राह्मणी पितृसत्ता अभी भी हावी है।
आज भी देश में छुआछूत है। जातिवाद है। असमानता है। महिलाओं के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार है। ऐसे में महात्मा ज्योतिबा फुले के विचार हमें प्रेरणा देते हैं कि हम इन सामाजिक बुराइयों से लड़ें और एक लोकतांत्रिक समाज बनाएँ, जहाँ हर इंसान को बराबरी का हक हो, आत्मसम्मान से जीने का अधिकार हो, वह पूरी मानवीय गरिमा के साथ अपना जीवन यापन करे। इसके लिए जरूरी है कि हम ज्योतिबा फुले और उनकी जीवन संगिनी सावित्रीबाई फुले को याद रखें। उनके बताए मार्ग पर चलते हुए देश और समाज से मैला ढोने जैसी अमानवीय प्रथा का खात्मा करें और एक बेहतरीन समाज का निर्माण करें।
आज जब देश में जाति और धर्म के नाम पर इतनी हिंसा हो रही है, इतने दंगे-फसाद हो रहे हैं, इंसान को इंसान का दुश्मन बनाया जा रहा है, ऐसे में हम ज्योतिबा फुले के विचारों को अपनाते हुए सामाजिक सौहार्द और सद्भाव लाने का प्रयास करें। यही ज्योतिबा फुले का सच्चा अनुयायी होने का प्रमाण होगा। ज्योतिबा फुले जैसे महापुरुषों ने छुआछूत, जात-पात, भेदभाव व अत्याचार के खिलाफ जो लड़ाई शुरू की थी, उसे हम आगे बढ़ाएँ। देश में लोकतांत्रिक मूल्यों और संवैधानिक व्यवस्था को लागू करने में अपना योगदान दें। समतामूलक और एक बेहतरीन मानवतावादी समाज के निर्माण में अपना योगदान दें। ज्योतिबा फुले के विचार हमें इसी के लिए प्रेरित करते हैं और करते रहेंगे। इसलिए आज के समय में उन्हें याद करना और उनके विचारों पर चलना जरूरी है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और सफाई कर्मचारी आंदोलन से जुड़े हैं।)
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