उत्तराखंड का ताजा राजनीतिक घटनाक्रम भाजपा के ‘पार्टी विद ए डिफरेंस’ यानी अन्य पार्टियों से अलग होने के दावे की ही नहीं बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘डबल इंजन वाली सरकार’ के नारे की बुरी तरह खिल्ली उड़ा रहा है। पार्टी नेतृत्व ने 122 दिन पुराने मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत को हटा कर जिन पुष्कर सिंह धामी को राज्य का नया मुख्यमंत्री बनाने का फैसला किया है, उन्हें पार्टी के कई वरिष्ठ विधायकों ने नाराजगी जताते हुए अस्वीकार कर दिया है। पार्टी का शीर्ष नेतृत्व इन नाराज विधायकों को मनाने की कोशिशों में जुटा हुआ है। हो सकता है कि वह इन विधायकों को समझाने-बुझाने में कामयाब भी हो जाए, मगर इस घटनाक्रम से यह तो जाहिर हो ही गया है कि पार्टी नेतृत्व इन दिनों बदहवासी के दौर से गुजर रहा है और उसकी हनक अपने कार्यकर्ताओं के बीच फीकी पड़ रही है।
पार्टी नेतृत्व की ओर से तीरथ सिंह रावत को हटा कर उनकी जगह पुष्कर सिंह धामी को मुख्यमंत्री बनाए जाने को लेकर जो दलील दी जा रही है, वह भी बेहद अजीब-ओ-गरीब है। कहा जा रहा है कि संवैधानिक संकट की वजह से उत्तराखंड के मुख्यमंत्री तीरथ सिह रावत को इस्तीफा देने को कहा गया। सोचे, जब मार्च में त्रिवेन्द्र सिंह रावत को हटा कर गढ़वाल सीट के लोकसभा सदस्य तीरथ सिंह रावत को मुख्यमंत्री बनाया जा रहा था तब क्या किसी के दिमाग में यह बात नहीं आई थी कि उनको छह महीने के अंदर विधायक बनना होगा और अगर नहीं बने तो इस्तीफा देना पड़ सकता है? क्या उस समय भाजपा के आला नेतृत्व में किसी को यह नियम नहीं पता था कि अगर किसी सदन का कार्यकाल एक साल से कम बचा हुआ हो तो उसकी किसी सीट के लिए उपचुनाव नहीं कराया जा सकता है?
भाजपा नेतृत्व इतना तो नादान नहीं है कि जो यह सब नहीं जानता था और इसलिए एक सांसद को मुख्यमंत्री बना दिया! दूसरी हैरानी इस बात को लेकर है कि भाजपा के नेता संवैधानिक संकट का हवाला क्यों दे रहे हैं? सीधे सीधे यह भी तो कहा जा सकता था कि कोरोना वायरस की दूसरी लहर का संकट अभी टला नहीं है और इसलिए अभी उपचुनाव कराना ठीक नहीं होगा। इस आधार पर तीरथ सिंह रावत के इस्तीफ़े को जायज ठहराया जा सकता था। लेकिन कोरोना की बजाय संवैधानिक संकट का हवाला दिया जा रहा है। यह भी हैरानी है कि भाजपा नेतृत्व इस संकट का हवाला देकर इस्तीफा कराता, उससे पहले ही चुनाव आयोग के हवाले से यह खबर आई थी कि उत्तर प्रदेश की सात और उत्तराखंड की दो खाली विधानसभा सीटों के लिए उपचुनाव नहीं होंगे।
क्या चुनाव आयोग ने अपने मन से यह बयान दे दिया था? पश्चिम बंगाल चुनाव के बाद तो आयोग के बारे में यह धारणा बन गई है कि वह केंद्र सरकार की मर्जी के बगैर कुछ नहीं करता है। इसीलिए यह भी कहा जा रहा है कि भाजपा आलाकमान को हर हाल में रावत को हटाना था इसलिए ऐसे हालात पैदा किए गए। वरना अगर सरकार चाहती तो चुनाव आयोग अब भी उपचुनाव कराता, चाहे नियम कुछ भी होते। सवाल है कि भाजपा नेतृत्व आखिर तीरथ सिह रावत से क्यों छुटकारा पाना चाहता था?
इसका कारण यह है कि अगले साल फरवरी-मार्च मे विधानसभा के चुनाव होने वाले है और 115 दिन के तीरथ सिह रावत के कार्यकाल के आधार पर भाजपा आलाकमान को अंदाजा हो गया था कि उनकी कमान में चुनाव जीतना संभव नहीं है। इसलिए उनको हटाया गया है। उनके विवादित बयानों की वजह से कई समूह नाराज थे तो यह भी कहा जा रहा है कि साधु-संतों का समुदाय भी उनसे खुश नहीं था। उनकी स्थिति इतनी कमजोर थी कि वे मुख्यमंत्री रहते गंगोत्री की खाली सीट से उपचुनाव नही लड़ना चाहते थे। वे अपने गढ़वाल लोकसभा क्षेत्र की किसी विधानसभा सीट से चुनाव लड़ने के इच्छुक थे। इसके लिए किसी बड़े नेता से इस्तीफा कराना होता। कोई बड़ा नेता इसके लिए शायद ही तैयार होता, इसीलिए उनके लिए किसी से इस्तीफा कराने की बजाय पार्टी आलाकमान ने उनसे ही इस्तीफा कराने का फैसला तो कर लिया लेकिन रावत से इस्तीफा दिलवा कर धामी को कमान सौंपने के फैसले को भी पार्टी के बड़े नेता चुनौती देते नजर आ रहे हैं।
(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं।)
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