विचारों के युद्ध में किताबें होती हैं हथियार

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23 अप्रैल को विश्व पुस्तक दिवस है। 23 अप्रैल 1564 को एक ऐसे लेखक दुनिया से अलविदा हुए, जिनकी कृतियों का विश्व की लगभग सभी भाषाओं में अनुवाद किया गया है। जिसने अपने जीवन काल में करीब 35 नाटक और 200 से अधिक कविताएं लिखीं। यह लेखक थे शेक्सपीयर। साहित्य जगत में शेक्सपीयर का जो स्थान है उसे देखते हुए यूनेस्को ने 1945 से विश्व पुस्तक दिवस का आयोजन शुरू किया। भारत सरकार ने 2001 से इस दिन को मनाने की घोषणा की।

इसी संदर्भ में 25 साल पहले 1996 में ‘भारत ज्ञान विज्ञान समिति’ की राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने समाज में पठन-पाठन की संस्कृति पैदा करने के लिए जनवाचन आन्दोलन के नाम से देश भर में एक बड़ी मुहिम शुरू करने का निर्णय लिया था। ‘भारत ज्ञान विज्ञान समिति’ के सचिव डॉ. काशीनाथ चटर्जी बताते हैं कि हमारा मकसद था, लोगों के बीच पुस्तकों को पढ़ने की आदत डालना। इसलिए समिति ने कविता, कहानी, नाटक, लोक कथाओं, कहावतों, विज्ञान, संस्कृति, पर्यावरण, स्वास्थ्य से लेकर अनेकों विषयों पर पुस्तकें तैयार कीं। अन्य भाषाओं की बेहतर पुस्तकों का हिन्दी में अनुवाद और हिन्दी की पुस्ताकें का अन्य भाषाओं में अनुवाद करके सैंकड़ों किताबों का प्रकाशन किया।

लोगों के बीच जाकर पढ़ा, उनमें किताबों के प्रति रुचि पैदा करने के प्रयास किए गए। पुस्तकों की कीमत, जिसे हमने कभी कीमत नहीं कहा, सहयोग राशि कहा, बहुत कम रखी गई, ताकि हर कोई किताबों को खरीद सके। प्रयास अद्भुत था और इसके परिणाम भी उत्साहजनक थे। जनवाचन आन्दोलन के बाद देश के कई राज्यों में ग्रामीण पुस्तकालय खुलने का सिलसिला भी शुरू हुआ। जैसा उदाहरण हम देश के सबसे साक्षर राज्य केरल में देखते थे।

पुस्तकें पढ़ना क्यों जरूरी है?
डॉ. काशीनाथ चटर्जी बताते हैं कि पुस्तकें समाज का उत्थान और पतन होती हैं। हिटलर ने जर्मनी में यूनिवर्सिटी के पुस्तकालय से किताबें जलवा डाली थीं। इस दहन के पीछे यह विचार था कि किताबें बड़ी से बड़ी सेनाओं को भी पराजित कर सकती हैं। नाज़ी यह समझने में चतुर थे कि विचारों की लड़ाई में सबसे शक्तिशाली अस्त्र पुस्तकें ही हैं। इस संदर्भ का महत्व आज इसलिए भी अधिक है क्योंकि आज भी सबसे बड़ी लड़ाई विचारों की है। प्रसिद्ध आयरिश नाटककार, आलोचक, राजनीतिज्ञ और राजनीतिक कार्यकर्ता बनार्ड शॉ ने कहा है, ‘‘विचारों के युद्ध में पुस्तकें ही हथियार हैं।’’

वैचारिक युद्ध में टीवी, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, सोशल मीडिया जानकारी तो दे सकता है, परन्तु ये माध्यम अक्सर निष्क्रिय स्वीकृति उपजाते हैं। जो जानकारी उधर से आती हैं, वह पहले से पकी-पकाई होती हैं। उसमें चुनाव की गुंजाइश केवल चैनल बदलने तक या ऑन-ऑफ करने तक ही होती है। टीवी आदि पर आने वाली छवियां तथा बिम्ब आपके दिमाग को चुपचाप ग्रहण करने पड़ते हैं, जो दिमाग की खुद की कल्पनाशीलता को कुंद कर देते हैं। पढ़ना निष्क्रिय गतिविधि नहीं है। इसके लिए मेहनत, ध्यान और एकाग्रता की आवश्यकता होती है। बदले में आपको विचारों तथा भावनाओं के लिए नई रोशनी व प्रोत्साहन मिलता है।

अमरीकी इतिहासकार और लेखक बारबरा डब्ल्यू तुचमन ने कहा था, ‘‘किताबें सभ्यता की वाहक हैं। किताबों के बिना इतिहास मौन है, साहित्य गूंगा हैं, विज्ञान अपंग हैं, विचार और अटकलें स्थिर हैं। ये परिवर्तन का इंजन हैं, विश्व की खिड़कियां हैं, समय के समुद्र में खड़ा प्रकाश स्तंभ हैं।’’

एक स्वयंसेवी कार्यकर्ता या नेता के लिए पढ़ना इसलिए ज़रूरी है, क्योंकि आप नेतृत्व सिर्फ श्रेष्ठ विचारों द्वारा ही दे सकते हैं। दूसरे लोग आपकी श्रेष्ठता तभी स्वीकार करेंगे जब आपके पास वैचारिक श्रेष्ठता है, साधारण से ज्यादा समझ है, बताने के लिए कुछ है। मानव समाज को समझने के लिए, अपने कार्य का महत्व समझने के लिए, प्रेरणा के लिए, अपनी लगातार वैचारिक प्रगति के लिए, पढ़ना अति आवश्यक है। यह हर उस व्यक्ति के लिए अति आवश्यक है, जो इंसानों की आम भीड़ से अलग होना चाहता है। पुस्तकें पढ़ना, विचार सुनने या भाषणों से बेहतर हैं। अमरीकी राष्ट्रपति अब्राहिम लिंकन कहते थे, ‘‘मेरा सबसे अच्छा मित्र वह है जो मुझे ऐसी किताब दे, जो मैंने पढ़ी न हो।’’

‘भारत ज्ञान विज्ञान समिति’ के सचिव डॉ. काशीनाथ चटर्जी लोगों को संबोधित करते हुए कहते हैं कि 23 अप्रैल को विश्व पुस्तक दिवस के अवसर पर हम जनवाचन की रजत जयंती भी मना रहे हैं, अत: इस अवसर पर हम देश वासियों से अपील करते हैं कि सभी लोग यह शपथ लें और खुद से वादा करें कि हम लोगों में किताब पढ़ने के लिए रुचि पैदा करने की कोशिश करेंगे। हम बता दें कि केवल वे ही लोग पुस्तकों को आगे बढ़ा पाएंगे जो पुस्तकों को प्यार करते हों। पुस्तकों से प्रेम करने के लिए उन्हें खुद पढ़ना आवश्यक है। पढ़े बिना उन्हें आगे बढ़ाना सम्भव नहीं है।

अंत में काशीनाथ चटर्जी कहते हैं, “हमारे मन में उठ रहे सवालों का जवाब पाने के लिए पुस्तकों से बेहतर ज़रिया कोई भी नहीं। तब भी जब हमारे आस-पास कोई नहीं है, हम अकेले हैं, उदास हैं, परेशान हैं, किताबें हमारी सच्ची दोस्त बनकर हमें सहारा देती हैं।”

(वरिष्ठ पत्रकार विशद कुमार की रिपोर्ट।)

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