जिन दिनों भारत में यह धारणा बनी कि पाकिस्तान के खिलाफ भारत की कार्रवाई का अफगानिस्तान ने समर्थन किया है, तभी सोशल मीडिया पर ये खबर आई थी कि काबुल स्थित तालिबान सरकार चीन- पाकिस्तान इकॉनमिक कॉरिडोर (CPEC) के अपने देश तक विस्तार के लिए राजी हो गई है। इस हफ्ते इस खबर की पुष्टि हो गई है।
भारत में उपरोक्त धारणा विदेश मंत्री एस. जयशंकर की अफगानिस्तान के कार्यवाहक विदेश मंत्री आमिर खान मुत्ताकी से हुई फोन वार्ता के बाद दी गई जानकारी के आधार पर बनी। वही मुत्ताकी इस हफ्ते बीजिंग यात्रा पर गए- उसी समय जब पाकिस्तान के उप प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री मोहम्मद इशहाक डार भी वहां थे। वहां डार और मुत्ताकी की चीन के विदेश मंत्री वांग यी के साथ त्रिपक्षीय वार्ता हुई। उसके बाद सूचना दी गई कि CPEC का अफगानिस्तान तक विस्तार किया जाएगा।
भारत को CPEC पर आरंभ से ही एतराज रहा है। और यह आपत्ति वाजिब हैः
- CPEC जम्मू- कश्मीर के पाकिस्तान के कब्जे वाले क्षेत्र से गुजरता है, इसलिए भारत इस परियोजना को अपनी संप्रभुता एवं प्रादेशिक अखंडता का उल्लंघन समझता है।
- इसी आधार पर भारत किसी तीसरे देश में CPEC के विस्तार का विरोध करता रहा है। भारतीय विदेश मंत्रालय ने पिछले वर्ष कहा था कि CPEC में भाग लेने वाले देश भारतीय क्षेत्र- जम्मू और कश्मीर में अनुचित हस्तक्षेप करेंगे।
CPEC चीन की महत्त्वाकांक्षी परियोजना बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) का हिस्सा है। बल्कि इसे BRI की फ्लैगशिप परियोजना भी कहा जाता है, क्योंकि BRI की शुरुआत CPEC के साथ ही हुई थी। इस पर चीन 60 बिलियन डॉलर से अधिक का निवेश कर चुका है। इस परियोजना के जरिए चीन और पाकिस्तान में रणनीतिक संबंध और गहरे हुए हैँ।
भारत के BRI से एतराज के कुछ दूसरे कारण भी हो सकते हैं, मगर सबसे प्रमुख वजह यही बताई जाती है कि CPEC उसका हिस्सा है। आम तौर पर आपत्ति के जिन दूसरे कारणों की चर्चा अंतरराष्ट्रीय मीडिया में रही है, उनमें शामिल हैः
- BRI के कारण दक्षिण- एशिया और आसपास के इलाकों में चीन का प्रभाव बढ़ा है
- इससे दक्षिण एशिया में चीन के पांव पसरे हैं, जिन्हें भारत का सुरक्षा प्रतिष्ठान अपने हितों के विरुद्ध मानता है।
अब उसी परियोजना में अफगानिस्तान शामिल होने जा रहा है। भारत की रणनीति में अफगानिस्तान का खास महत्त्व रहा है। इसीलिए वहां भारत ने वहां एक समय बड़ा निवेश किया था। हालांकि इस रणनीति को 2021 में तब तगड़ा झटका लगा, जब अमेरिकी फौज की वापसी के साथ ही पूर्व सरकार का पतन हो गया और तालिबान ने काबुल में अपनी सरकार बना ली। तब उस घटनाक्रम को पाकिस्तान की बड़ी जीत के रूप में देखा गया था, मगर ये धारणा ज्यादा समय नहीं टिकी। जल्द ही तालिबान और पाकिस्तान में टकराव पैदा हुआ, जो बढ़ता ही गया है। इस कारण अफगानिस्तान में पहलकदमी बहाल करने के नए अवसर भारत के लिए पैदा होने की आस जोड़ी गई थी।
लेकिन बीच में चीन आ गया है। वैसे चीन ने तालिबान से तब से संपर्क और संवाद बना रखा था, जब अभी अमेरिकी फौज अफगानिस्तान में थी। अभी तक चीन ने काबुल स्थित सरकार को मान्यता नहीं दी है, मगर गुजरे पौन चार वर्षों में उसने तालिबान सरकार से बेहतर रिश्ते बनाए रखे हैं। इस बीच उसे वहां खनन संबंधी कुछ ठेके भी मिले हैं। 2023 तक दोनों देशों में सालाना आपसी व्यापार 1.3 बिलियन डॉलर तक पहुंच चुका था, जो 2022 की तुलना में सवा सौ प्रतिशत अधिक था।
अब अफगानिस्तान CPEC का हिस्सा बनने जा रहा है। आम समझ है कि इसके दूरगामी नतीजे होंगे। उनमें कुछ उल्लेखनीय हैः
- इससे अफगानिस्तान पाकिस्तान में CPEC के तहत बने ग्वादार बंदरगाह के जरिए अरब सागर से होते हुए क्षेत्रीय व्यापार नेटवर्कों से जुड़ सकेगा।
- इसके तहत योजना वखान कॉरिडोर के निर्माण की है, जिससे चीन के साथ अफगानिस्तान का सीधा जुड़ाव हो जाएगा।
- CPEC के तहत अफगानिस्तान में सड़क, रेल मार्ग, और ऊर्जा परियोजनाओं का निर्माण होगा।
मगर भारत के लिए चिंता की वजहें अलग हैं। उनके मुताबिक,
- अफगानिस्तान के BRI में शामिल होने से चीन को मध्य एशिया तक अपना प्रभाव फैलाने में मदद मिलेगी। इससे चीन को बिना जोखिम भरे इलाकों में गए उन क्षेत्रों तक अपना माल भेजने और वहां से आयात करने की सुविधा मिल जाएगी।
- अफगानिस्तान के चीन के प्रभाव क्षेत्र में जाने का मतलब यह होगा कि रणनीतिक लिहाज से ये महत्त्वपूर्ण देश भारत के लिए अधिक बड़ी चुनौती बन जाएगा।
- तालिबान से पहले के शासन काल में भारत ने अफगानिस्तान में भारी निवेश किया था। उसके पीछे मकसद वहां पाकिस्तान के प्रभाव को सीमित रखना था। इसके अलावा अफगानिस्तान आतंकवाद का संरक्षक और प्रायोजक ना बने, इसे सुनिश्चित करना भी भारत का उद्देश्य बताया जाता था।
- मध्य एशिया और पेट्रोलियम समृद्ध खाड़ी देशों तक व्यापार मार्ग को बाधा मुक्त रखने में अफगानिस्तान की भूमिका अहम मानी जाती है। भारत ईरान में चाबहार बंदरगाह का निर्माण कर रहा है। साथ ही नॉर्थ-साउथ ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर के निर्माण से भी वह जुड़ा है। इन सभी परियोजनाओं को सुगम बनाने के लिहाज से अफगानिस्तान का रणनीतिक महत्त्व है।
इस सिलसिले में यह भी उल्लेखनीय है कि भारत के पास-पड़ोस में सिर्फ भूटान बचा है, जो BRI का हिस्सा नहीं बना है। इसकी वजह भी ये मानी जाती है कि चूंकि भारत के साथ अपनी पुरानी संधि के कारण भूटान अपनी विदेश और सुरक्षा नीतियों को स्वरूप भारत के साथ तालमेल बनाते हुए देता है, इसलिए वह इसमें शामिल नहीं हुआ है।
जबकि नेपाल, बांग्लादेश, मालदीव और म्यांमार BRI में शामिल हो चुके हैं, जहां इसके तहत अनेक परियोजनाएं बनी हैं या उन पर काम चल रहा है। अब ये परियोजना अफगानिस्तान तक फैल जाएगी। जाहिर है, भारत के सामने इसके प्रति अपनी नीति को और पुख्ता एवं प्रभावी बनाने की चुनौती बढ़ती जा रही है।
दुनिया के तकरीबन 145 देश और 30 से अधिक अंतरराष्ट्रीय संगठन BRI से जुड़ चुके हैं। इस रूप में यह सचमुच यह एक वैश्विक परियोजना बन गई है। इसलिए इसके विरोध को प्रभावशाली बनाने की गुंजाइश घटती चली गई है। लेकिन भारत के लिए इस पर सहमति देना भी संभव नहीं है। यह हकीकत है कि पीओके से CPEC गलियारे को गुजार कर चीन और पाकिस्तान ने भारत की प्रादेशिक अखंडता का उल्लंघन किया है।
BRI के प्रति दुनिया भर में आकर्षण का कारण इसका अनोखापन है। जो बाइडेन के दौर में अमेरिका ने इसका मुकाबला करने के लिए बिल्ड बैक बेटर वर्ल्ड परियोजना का एलान किया था, लेकिन वह बात सिर्फ घोषणा तक रह गई। इसी तरह यूरोपियन यूनियन ने ग्लोबल गेटवे नाम की परियोजना का एलान किया, मगर वह मोटे तौर पर कागजों पर ही सिमटी हुई है। इस बीच BRI एक ऐसी परियोजना है, जिसके तहत चीन विभिन्न देशों में अपना निवेश (सस्ते ऋण के आधार पर) करता है, उसकी कंपनियां वहां भौतिक एवं डिजिटल इन्फ्रास्ट्रक्चर बनाती हैं, और अक्सर उनके संचालन में भी सहायता करती हैं।
इसलिए परियोजना के खिलाफ माहौल बनाना कठिन होता गया है। तो अब भारत क्या करे? यह महत्त्वपूर्ण प्रश्न है, जिस पर गहन विचार-विमर्श की जरूरत है।
(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)