एनसीईआरटी की नयी पाठ्यपुस्तक, साम्प्रदायिकता की पाठशाला

  1. क्या होगा अगर एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकों के जरिए स्कूलों में विद्यार्थियों को सांप्रदायिकता का पाठ पढ़ाया जाएगा?
  2. क्या होगा अगर एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकों के जरिए भारत के स्कूलों में विद्यार्थियों के अंदर, धर्म के आधार पर सुपीरियर या इनफीरियर होने का भाव भरा जाएगा?
  3. क्या होगा अगर एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकों के जरिए we and others की विभाजनकारी विचारधारा को विद्यार्थियों तक पहुंचाया जाएगा?
  4. क्या होगा अगर एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकों के जरिए Us and They की, फूट डालो राज करो की सांप्रदायिक नीति को विद्यार्थियों के भीतर भरा जाएगा?
  5. क्या होगा अगर एनसीईआरटी विद्यार्थियों को भारतीय होने का पैमाना यह बताएगा कि जिनकी पुण्य-भूमि भारत में है, उन्हें ही भारत का माना जा सकता है?
  6. क्या होगा अगर एनसीईआरटी अपनी पाठ्यपुस्तकों के जरिए विद्यार्थियों को सांप्रदायिक बनाना अपना उद्देश्य बना ले?

जी हां, ये सारे सवाल गंभीर हैं। इसलिए एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकों पर गंभीरता से काम करने की जरूरत है। बेहद अफसोस की बात है कि आजादी के 78 साल और भारत के संविधान के लागू होने के 75 साल बाद भी हम स्कूली-ज्ञान के संदर्भ में मौलिक प्रश्नों पर नहीं बल्कि दफन मान लिये गए प्रश्नों पर विचार कर रहे हैं। इसका अर्थ यह है कि ये सवाल कभी भी मरे नहीं थे, बल्कि सामने आने के लिए मौके का इंतजार कर रहे थे।

एनसीईआरटी ने 2025 में कक्षा 6 की हिंदी की नयी पाठ्यपुस्तक तैयार की है I इस पाठ्यपुस्तक का नाम है मल्हार। इसका पहला पाठ एक कविता है। इस कविता का शीर्षक है – मातृभूमि। इसके लेखक सोहनलाल द्विवेदी हैं। 

यह कविता सावरकर के हिन्दुत्त्व की विचारधारा को सही मानकर लिखी गयी लगती है। क्योंकि इस कविता में मातृभूमि और पुण्यभूमि का संदर्भ बार-बार आता है। इस कविता में पुन्यभूमि को इंगित करने के लिए एक ही संप्रदाय के अनेक रूपकों का उपयोग किया गया है। यह कविता मातृभूमि, पुण्यभूमि और धर्मभूमि के आधार पर संदर्भित राष्ट्र के साथ जुड़ाव या अलगाव पैदा करती है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह कविता मातृभूमि, पुण्यभूमि और धर्मभूमि के आधार कक्षा में विद्यार्थियों को WE and THEY के दो वर्गों में बांटने का काम करेगी I इसमें भी कोई संदेह नहीं है कि, यह कविता, संवैधानिक मूल्यों के प्रति सजग शिक्षक के सामने भी, इस कविता की, साम्प्रदायिक सोच से बच पाने की गंभीर चुनौती पैदा कर देगी I 

ऐसा लगता है कि इस कविता की मूल-संवेदना और उसको संप्रेषित करने के रूपकों में समाई हुई विभाजनकारी सोच से अपने को बचा पाना किसी सामान्य समझ के शिक्षक या शिक्षिका के लिए तो बेहद मुश्किल हो जाएगा I इस कविता की मूल-संवेदना और रूपक, किसी सामान्य समझ के शिक्षक या शिक्षिका की चेतना में अपनी साम्प्रदायिकता के जहरीले दांत गड़ा ही देगी I और जब इस कविता में बहता साम्प्रदायिकता का जहर किसी शिक्षक की चेतना में उतर जाएगा तब वह पूरी कक्षा को WE and THEY में बंट जाने की तरफ ले जाएगा या ले जाएगी I यह कविता, ऐसी कोई गुंजाईश ही नहीं छोड़ती की संवैधानिक मूल्यों में विश्वास करने वाली कोई शिक्षिका भी अपनी कक्षा को साम्प्रदायिकता के जहर से बचा सके I 

पाठकों से निवेदन है कि वे इस कविता को खुद पूरा पढ़ें और इस प्रश्न का उत्तर तलाशें कि कक्षाओं में जहां हर धर्म के विद्यार्थी होते हैं, वहां इस कविता को पढ़ाया जाना राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से कितना खतरनाक है? कक्षाओं में ऐसे भी विद्यार्थी हो सकते हैं जो किसी भी धर्म में विश्वास नहीं करते हों I ऐसे में बार-बार मेरी पुण्य-भूमि, मेरी धर्म-भूमि का विचार सामने रखकर मातृ-भूमि की बात करना बहुत खरतनाक हैI 

यहां पर मैं इस कविता का केवल एक छोटा सा अंश रख रहा हूं I

कविता में लिखा हुआ है कि:

“वह धर्मभूमि मेरी,

वह कर्मभूमि मेरी

वह जन्मभूमि मेरी

वह मातृभूमि मेरी”

“जन्में जहां थे रधुपति

जन्मी जहां थी सीता

श्रीकृष्ण ने सुनाई,

वंशी पुनीत गीता”

कविता के अनुसार जहां रघुपति, यानि राम का जन्म हुआ था वह मेरी धर्मभूमि है, वह मेरी कर्मभूमि है, वह मेरी जन्मभूमि है, वह मेरी मातृभूमि है I 

जिस “भूमि” पर माईथोलॉजिकल राम का माईथोलॉजिकल जन्म हुआ, वह “भूमि” भारत के लोगों की कर्मभूमि, जन्मभूमि, और मातृभूमि तो हो सकती है, लेकिन वह भूमि भारत के सभी लोगों की धर्मभूमि नहीं हो सकती I इसलिए धर्मभूमि और मातृभूमि को देश से जुड़ाव के लिए, एक बराबरी पर रख देना, विभाजनकारी विचारधारा की देन है I

भारत में करोड़ों लोग हैं जिनकी धर्मभूमि भारत में नहीं है, लेकिन वे भारत को अपनी कर्मभूमि, जन्मभूमि और मातृभूमि मानते हैं I 

भारत में लाखों लोग ऐसे हैं, जिनकी कोई धर्म भूमि नहीं है I क्योंकि वे किसी भी भगवान में विश्वास नहीं करतेI अगर हम भारत में होने वाली जनगणना के आंकड़ों पर नजर दौड़ाएं तो हमें पता चलेगा कि भारत में ऐसे लोगों की संख्या लगातार बढ़ रही है। 2001 की जनगणना में भगवान में विश्वास न करने वाले लोगों की संख्या 0.7 मिलियन यानि 7 लाख थी, जोकि 2011 में बढ़कर करीब 30 लाख हो गई I इन लोगों की कोई धर्मभूमि नहीं हैI तो क्या इस तथ्य के कारण इनका यह दावा कमजोर पड़ जाता है या खारिज करने के लायक है कि भारत इनकी मातृभूमि है और ये भारत के नागरिक हैं? क्योंकि इन 30 लाख लोगों की तो कोई धर्मभूमि है नहीं I

इसलिए यह कविता एक ओर तो भारत का नागरिक होने के उन लोगों के दावे को ख़ारिज कर रही है जिनकी धार्मिक या आध्यात्मिक आस्था के केंद्र भारत से बाहर हैंI और दूसरी और यह कविता यह भी कह रही है कि नागरिक होने के लिए किसी-न-किसी धर्म को मानना जरुरी हैI ये दोनों ही विचार भारत के संविधान के मूल्यों के खिलाफ हैंI

इस कविता पर एक और नजरिए से विचार करते हैंI बिहार में एक जगह है बौद्ध गयाI हर साल दुनिया के अनेक देशों के नागरिक बौद्ध गया आते हैं I क्योंकि वे मानते हैं कि उनकी धर्म भूमि बौद्ध गया हैI अगर इस कविता में व्यक्त “सावरकरी” नजरिए से देखें तो जो विदेशी लोग बौद्ध गया को अपनी धर्म भूमि मानते हैं, उनको उनके अपने देश का नागरिक नहीं माना जाना चाहिए I 

इसी तर्क को कुछ और बढ़ाते हैं I वर्तमान में, भारत से लगभग 28 लाख लोग अमेरिका में रहते कर रहे हैं I इनमें से लगभग 53% लोग, यानी लगभग 15 लाख भारतीय नागरिक, अमेरिकी नागरिकता प्राप्त कर चुके हैं। अब सवाल यह उठता है कि उन 28 लाख लोगों की धर्म भूमि भारत है या अमेरिका ? उन 28 लाख लोगों की कर्म भूमि अमेरिका हैI इनमें से कुछ की जन्मभूमि भी अमेरिका होगीI लेकिन उन 28 लाख भारतीयों की स्थिति को इस कविता के नजरिए से कैसे समझा जाए? क्योंकि उन भारतीयों के लिए अमेरिका ना तो पुण्य भूमि है और ना ही धर्म भूमिI

क्या इस आधार पर अमेरिका के बहुसंख्यक समुदाय को यह हक मिल जाना चाहिए कि वह उन भारतीयों को THEY या OTHERS की श्रेणी में रखें और उनके साथ भेदभाव करेंI मुझे नहीं लगता है कि कोई भी भारतीय इस बात को स्वीकार करेगा या करेगीI तो सवाल यह है कि जो बात अमेरिका में रह रहे भारतीयों के लिए सही है, वही बात भारत के 25-30 करोड़ नागरिकों के लिए सही क्यों नहीं है? 

लेकिन सोहनलाल द्विवेदी की यह कविता जिस मानसिकता से लिखी गयी लगती है, वह मानसिकता विद्यार्थियों को उस दिशा में ले जाने में सक्षम है जिस ओर चलकर विद्यार्थी अपने ही सहपाठियों को OTHERS की श्रेणी में रख कर देखने की साम्प्रदायिक सोच के शिकार बन जाएंगे I विद्यार्थियों की सोच का शिकार करना ही इस कविता को स्कूली पाठ्यपुस्तक का हिस्सा बनाने का उद्देश्य लगता हैI पाठ्यपुस्तक में इस कविता को रखने का मतलब ही यह है कि विद्यार्थियों की स्वतंत्र सोच को शिकार बनाया जाए I

इस कविता में माईथोलॉजिकल सीता का, माईथोलॉजिकल जन्म भारत में होने का संकेत दिया गया है I लेकिन माईथोलॉजिकल सीता का जन्म तो नेपाल में हुआ थाI सोहनलाल द्विवेदी किसी और की पुन्य भूमि को अपनी पुन्य भूमि बता रहे हैंI 

इस कविता पर बनाए गए अभ्यास प्रश्नों और अन्य गतिविधियों में भी यह कोशिश नहीं की गई है कि विद्यार्थियों की नागरिकता के बारे में समझ को विस्तार दिया जाए और उनमें यह विश्वास पैदा किया जाए कि वे कवि से सवाल कर सकें, कवि से असहमत हो सकें, और कवि को करेक्ट कर सकेंI ऐसे किसी भी तरह के शैक्षिक प्रयास के विपरीत, एनसीईआरटी ने इस कविता पर बनाए गए प्रश्नों के जरिए कवि के द्वारा व्यक्त की गयी सांप्रदायिक समझ को और मजबूती प्रदान की हैI

इस कविता के जरिए, एनसीईआरटी ने सांप्रदायिकता को चुनौती देने की बजाय, सांप्रदायिकता का कई तरह से प्रसार किया हैI इस कविता पर पूछे गए सवालों में से एक सवाल के अंतर्गत एनसीईआरटी विद्यार्थियों से वंदे मातरम गाने के लिए कह रही हैI पाठ्यपुस्तक मल्हार के पेज 10 पर एनसीईआरटी ने एक भ्रामक और गैर-संवैधानिक सूचना छाप रखी हैI एनसीईआरटी के अनुसार भारत में राष्ट्रगान और राष्ट्रगीत में कोई फर्क नहीं है। एनसीईआरटी के अनुसार भारत में राष्ट्रगान और राष्ट्रगीत का स्थान बराबर का है। एनसीईआरटी के अनुसार भारत में “जन गण मन” और “वंदे मातरम” का स्‍थान एक समान है। 

“जन गण मन” राष्ट्रगान है, यानि national anthem है I भारत के संविधान में इसे औपचारिक स्थान प्राप्त है, जोकि “वंदे मातरम” को प्राप्त नहीं है I भारत के संविधान के भाग चार में, भारत के नागरिकों के लिए मौलिक कर्तव्य बताए गए हैं, जिनका पालन करना हर नागरिक का कर्तव्य है I मौलिक कर्तव्यों की सूची में पहला कर्तव्य ही कहता है कि भारत के हर नागरिक को नेशनल एंथम यानि राष्ट्रगान का सम्मान करना हैI भारत के संविधान में “वंदे मातरम” को यह स्थान प्राप्त नहीं हैI

इस सार्वजानिक तथ्य के बाद भी अगर एनसीईआरटी यह लिख रही है कि “जन गण मन” और “वंदे मातरम” का स्थान बराबर का है, तो इसका मतलब यह है की एनसीईआरटी सांप्रदायिक शक्तियों के साथ कदम-से-कदम मिलाकर चल रही है। 

(बीरेंद्र सिंह रावत शिक्षा विभाग दिल्ली विश्वविद्यालय से संबद्ध हैं।)

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