अपने कुनबे के संगपरस्तों, पक्के भक्तों और पाले पोसे एंकर-एन्करानियों तक को चौंकाने, हैरत में डालने और मुंह छुपाने के लिए कोना तलाशने की गत में पहुंचाते हुए मोदी सरकार के मंत्रिमंडल की राजनितिक मामलों की समिति सीसीपीए ने 30 अप्रैल को एलान कर दिया कि अगली जनगणना के साथ जाति आधारित जनगणना भी कराई जायेगी। हालांकि चारेक दिनों से नत्थी मीडिया ‘मोदी करेंगे बड़ा एलान’ का सुर्रा छोड़े हुए था।
जिस तरह इस प्रत्याशित बड़े कदम की खबर के साथ पहलगाम आतंकी हमले का बदला लेने के लिए युद्धोन्माद भड़काया जा रहा था, उसके धुंधलके में लोग ऐसी ही किसी सर्जिकल स्ट्राइक की उम्मीद लगाए बैठे थे, मगर घोषणा हो गयी उसकी जिसके खिलाफ पिछली कुछ वर्षों से चीख-पुकार मचाकर खुद मोदी से योगी से गडकरी से संघ तक होते हुए हरेक ने अपना गला बिठाया हुआ था।
इस बारे में इसी अंक में प्रकाशित “जाति जनगणना पर संघ भाजपा की पलटी” लेख में विस्तार से चर्चा की गयी है। बहरहाल अचानक तेजी से मारी गयी यह गुलाटी इतनी सरपट और असामयिक थी कि अचम्भा स्वाभाविक था। फैसला सही था, इसलिए स्वागत भी सभी राजनीतिक धाराओं ने किया; कुछ जायज आशंकाओं के साथ ही सभी ने इसका समर्थन भी किया।
कब होगी, जब होगी, तब होगी मगर अगर हुई तो आजाद भारत में यह पहली जाति आधारित जनगणना होगी। इस देश में आबादी की पहली आधिकारिक गिनती, सेन्सस या मर्दुमशुमारी 1881 में अंग्रेजी राज के दौरान हुई थी। इसके बीस साल बाद हुई 1901 की जनगणना में जातियां भी गिनी गयीं और कहा जाता है कि वे असंख्य थीं; उनमें से कोई 1447 जातियों और 43 नस्लें रिकॉर्ड में दर्ज की गयीं।
मगर जाति और उनके आधार पर लोगों को गिने जाए का काम घोषित रूप से पहली और आख़िरी बार 1931 में तबके आयुक्त जॉन हेनरी हटन ने किया। हालांकि उनकी शिकायत थी कि उस समय चल रहे सविनय अवज्ञा आन्दोलन के चलते उन्हें बहुत परेशानियां झेलनी पड़ीं। इस कवायद से पता चला कि तब मुल्क में कुल 4147 जातियां पाई गयी थीं; इनमें भी ईसाईयों की 300 और मुसलमानों की 500 जातियां शामिल थी। इसके बाद हुई जनगणनाओं में अनुसूचित जाति, जनजाति की गिनती हुई भी, उसे बताया भी गया, मगर शेष जातियों के आंकड़े इकट्ठा ही नहीं किये गए।
यह ध्यान में रखना होगा कि जाति आधारित जनगणना सिर्फ संख्या इकट्ठा कर उन्हें आंकडे में बदलने की गणित की सांख्यिकी विधा का अभ्यास नहीं है। जनगणनाओं के साथ व्यक्ति और परिवार की आमदनी, जमीन, रोजगार, आर्थिक हैसियत, साफ़ पीने के पानी, रोटी भात और स्वास्थ्य तक उसकी पहुंच आदि-इत्यादि से संबंधित अनेक जानकारियां भी एकत्रित की जाती हैं। जाति जनगणना से देश के अलग-अलग तबकों और समुदायों से जुड़ी आबादी की दशा-दुर्दशा का पता चलता है।
इन्हें सुधारने के लिए जरूरी कदम उठाने की जरूरत पैदा होती है, ऐसे कदम उठाये जाएं इसके लिए जनता के बीच तथ्याधारित, तर्कपूर्ण आकांक्षा उत्पन्न होती है। यही आकांक्षाएं आन्दोलनों में बदलती हैं और यहीं से राजनीतिक लोकतंत्र को आर्थिक और उस सामाजिक लोकतंत्र में बदले जाने की शुरुआत होती है, जिस पर संविधान अंगीकार किये जाने वाले दिन दिए अपने भाषण में डॉ अम्बेडकर ने विशेष जोर दिया था।
भारतीय समाज में जाति सिर्फ परम्परा से चली आ रही पहचान नहीं है, यहां जाति एक यथार्थ है; एक ऐसा यथार्थ जिसने परम्परागत रूप से भारतीय समाज को एक कठोर जकड़न वाली बेड़ी में जकड़ कर रख दिया। जो आबादी के विशाल बहुमत की वंचनाओं, विपन्नताओं यहां तक कि वर्जनाओं तक का कारण बना रहा है, आज भी बना हुआ है। दुनिया भर में समाज का विकास अपने अपने इलाकों में बनी विकसित हुई सभ्यताओं की विशिष्टताओं की बुनियाद पर हुआ है।
इन्हीं खासियतों ने उनके अपने सामाजिक अंतर्विरोधों को उभारा और उन वर्गों को जन्म दिया जिनके बीच हुए वर्गसंघर्ष ने उस इंजन का काम किया जिसने गति दी और सामाजिक विकास की नयी मंजिल तक पहुंचाया। भारत में यह डबल इंजन रहा। पहले वर्ण और उसके बाद मोटा-मोटी उसी खांचे में बनी जातियां भी वर्गीय शोषण का एक जरिया रहीं। प्रख्यात मार्क्सवादी इतिहासकार डी डी कौशाम्बी के शब्दों में कहें तो “जाति उत्पादन और पैदावार के आदिम स्तर पर वर्ग का नाम है।
सामाजिक चेतना का वर्ग संयोजन करने की ऐसी वर्गपद्वत्ति है जिसमें न्यूनतम बल प्रयोग के साथ उत्पादक को उसके अधिकारों और अपने श्रम से पैदा किये गए मूल्य से वंचित कर दिया जाता है।“ ठीक यही वजह है कि व्यवस्थाएं बदलीं, हुकूमतें बदली- जाति नहीं गयी क्योंकि यह वर्गीय शोषण का आसान जरिया रही। बुध्द, जैन, अनेक कबीले, तुर्क एवं अंग्रेज आये मगर जाति बनी रही, बनाए रखी गयी और आजाद हिन्दुस्तान में भी चलती रही, आज भी अस्तित्वमान है। इस तरह यह पूर्व सामंती अवस्था से लेकर वैश्वीकरण के दौर तक जारी रही। इसलिए रही क्योंकि यह श्रेणीक्रम शासक वर्गों को हमेशा मुफीद लगा; कमसेकम बलप्रयोग से ज्यादा से ज्यादा और वह भी आसानी से शोषण का सहज जरिया रहा।
यह निरा संयोग नहीं है कि आज देश के शीर्ष दस बल्कि पचास धनाढ़्यों का विराट बहुमत उसी जाति से है जिसे जाति श्रेणीक्रम की बर्छियों कटारों से सज्जित मनुस्मृति ने यह हैसियत प्रदान की है। देश के टॉप नौकरशाहों का भी विशाल हिस्सा, पत्रकारिता से लेकर कम्पनियों में निर्णय लेने वाली हैसियत वाले प्रभुओं का हिस्सा उनकी जातिगत आबादी से कईयों गुने अनुपात में बना हुआ है। इसी श्रेणीक्रम के चलते वंचितों, विपन्नों, भूखों, बेरोजगारों, दुर्बलों, कुपोषितों, अशिक्षितों, नागरिक सुविधाओं के अभाव वालों में विराट बहुमत उन जातियों का है जिन्हें हाशिये से भी बाहर रहने की सजा सुनाई गयी।
वैश्वीकरण के बाद कुकुरमुत्तों की तरह उग रहे डॉलर अरबपतियों में एक भी दलित या आदिवासी का न होना संयोग नहीं है। इस तरह यह कहना सरलीकरण नहीं है कि भारत में मोटे तौर वर्गों का निर्माण वर्ण और जाति के दायरे में हुआ है। लिहाजा जाति सिर्फ सामाजिक प्रश्न नहीं है, चूंकि यह वर्गीय शोषण का जरिया है इसलिए एक वर्गीय प्रश्न है। मार्क्सवादियों ने ही इसे सबसे पहले और सबसे सही तरीके से समझा।
केरल में ईएमएस नम्बूदिरिपाद के नेतृत्व वाली कम्युनिस्ट सरकार ने स्वतंत्र भारत में पहली जाति जनगणना की। 1968 में किये गए इस सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण का उद्देश्य विभिन्न जातियों के सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन का आकलन करना था। 2011 में देश भर के पैमाने पर हुई सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना तक यह स्वतंत्रता के बाद के भारत में एकमात्र जाति आधारित गणना थी। ईएमएस के मुख्यमंत्रित्व वाली सरकार ने सिर्फ आंकड़े ही नहीं जुटाए बल्कि उनके आधार पर नीतियों की दिशा भी तय की।
उनके बाद आई नायनार, अच्युतानन्दन से लेकर आज की पिनराई विजयन की अगुआई वाली सरकारों ने इसी दिशा को आगे बढ़ाया; नतीजा यह निकला कि आज मानव विकास सूचकांक के हिसाब से केरल भारत में सबसे अव्वल तो है ही, यूरोप के अनेक देशों की बराबरी कर रहा है।
आजादी के तीन दशक बाद मंडल आयोग ने सर्वेक्षण करके बाकी देश के विकास के वर्णाश्रम की सूली पर लटके रहने की असलियत सामने ला दी। इसी के साथ सामाजिक न्याय का प्रश्न राजनीति के केंद्र में आया और अन्य पिछड़े समुदायों जिन्हें ओबीसी कहा गया का सामाजिक, आर्थिक पिछड़ापन मुद्दा बना। नौकरियों में इन जातियों के लिए आरक्षण जैसे कदम उठाये गए, तब चला आ रहा राजनीतिक वर्चस्व टूटा। भले ही यह सिर्फ चुनाव तक सीमित रही मगर एक बड़ी सामाजिक उथल-पुथल हुई। वंचित समुदायों में आकांक्षाएं उभरी। हालांकि आर्थिक नीतियों की दिशा में इसकी अभिव्यक्ति न होने से यह गुणात्मक बदलाव तक नहीं पहुंच सकी।
अब यदि मोदी सरकार ने अब तक किए तूफानी और नफरती विरोध के बाद आखिर में सौ जूते और सौ प्याज दोनों ही खाने की रस्म निभाकर जाति जनगणना करने की बात कर ही दी है तो फिर उस पर शंका कुशंका क्यों की जा रही है? इसे तमाशा, झांसा या पांसा या एक साथ तीनों क्यों माना जा रहा है? इसकी मुख्य वजह यह है कि यह पार्टी और जनसंघ से जैसे इसके पूर्ववर्ती अवतार और जिनके ये अवतार हैं उनका वह मात-पिता संगठन जिसके लिए बना है, जिस लक्ष्य को हासिल करना इसका एकमात्र लक्ष्य है यह घोषणा ठीक उसकी उलट है; इनकी सारी वैचारिक अवधारणाओं का निषेध है।
क्या मोदी यह घोषणा करेंगे कि अब उनकी पार्टी जाति या वर्ण या इनके आधार पर हुए श्रेणीक्रम में विश्वास नहीं करती? कि इस बारे में अब तक जो भी कहा सुना, लिखा बताया गया वह गलत था, उसका खंडन किया जाता है? वे ऐसा कभी नहीं करेंगे। संघ और भाजपा न सिर्फ वर्ण और जातियों की ऊंच-नीच और उनके आधार पर चली आ रही असमानता को एकदम सही, यहां तक कि ईश्वर प्रदत्त मानते हैं बल्कि वे भारत को जिस हिन्दू राष्ट्र में बदल देना चाहते हैं उसका सबसे प्रमुख उद्देश्य ही उस क्रूर प्रणाली की बहाली है।
हिंदुत्व आधारित हिन्दू राष्ट्र का सिद्धांत देने वाले सावरकर के शब्दों में “जिस देश में चातुर्यवर्ण नहीं है, वह म्लेच्छ देश है। आर्यावर्त अलग है। ”इसे और स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि “ब्राह्मणों का शासन, हिन्दू राष्ट्र का आदर्श होगा। वे यह भी कहते हैं कि “सन 1818 में यहां देश के आखिरी और सबसे गौरवशाली हिन्दू साम्राज्य (पेशवाशाही) की कब्र बनी। ”यह वही पेशवाशाही है जिसे हिन्दू पदपादशाही के रूप में फिर से कायम कर आरएसएस उसी मॉडल का हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहता है।
उसमें बाकी जातियों के नागरिकों की दशा कैसी थी दोहराने की आवश्यकता नहीं। मनुस्मृति आज भी इनका पुण्य ग्रन्थ भर नहीं है इनकी आज की सरकार का भी मार्गदर्शक है; नोटबन्दी से लेकर निजीकरण तक और शिक्षा संस्थानों को ध्वस्त करने से लेकर इतिहास के पुनर्लेखन तक सभी इसी में लिखे को अमल में लाने की पूरी ताकत से की जा रही कोशिशें हैं। हर जाति यहां तक कि अलग-अलग गोत्रों को उनके अलग-अलग भगवान् थमाने का सिलसिला भी तो हरेक को उसकी जातिगत हैसियत दिखाने और वहीं बिठाने के लिए आजमाया गया है। हाल में शुरू हुआ सनातनी आलाप का मूल ठाठ ही जाति-वर्ण की त्रासद यातना वाली प्रणाली के लठ्ठ पर तेल पिलाने, उसके फरसे को और धारदार बनाने पर टिका है।
क्या यह सब छोड़छाड़ कर अब भाजपा और संघ एक वर्ण और जाति विहीन समाज बनाने के रास्ते पर चलना चाहते हैं? अब तक जो अघट घटा उसे अनकिया करना चाहते हैं? आरक्षण के बारे में अपनी अब तक की धारणा को बदलना चाहते हैं? 1989 में मंडल आयोग के बाद देश भर में मचाये गए आरक्षण विरोधी उत्पात और मंडल के मुकाबले कमंडल लाने के लिए देश से माफी मांगना चाहते हैं ? आरक्षण की सीमा के बारे में अदालती आदेश बदलकर जितना जिसके लिए होना चाहिए उतना करना चाहते हैं? सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र और उसमें रोजगार की संभावनाओं को लगभग ख़त्म कर देने के बाद अब निजी क्षेत्र में आरक्षण देने के लिए तैयार हैं? अगर इनमें से कुछ भी नहीं करना चाहते तो फिर वे झांसा किसे और क्यों देना चाहते हैं?
असल में यह तमाशा सिर्फ झांसा ही नहीं है, यह एक पांसा है जो इसी साल होने जा रहे बिहार विधान सभा के चुनावों को ध्यान में रखते हुए फेंका गया है। उन्हें दस साल पहले की याद आ गयी है जब ठीक बिहार चुनाव के पहले आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण को लेकर मन की बात बोल दी थी और सामाजिक न्याय के संघर्ष की भूमि बिहार ने भाजपा और उसके गठबंधन को धूल चटा दी थी। हाल के लोकसभा चुनाव में भी जब संविधान बदलने की आशंका सामने आती दिखी तो जनता ने इससे संसद का सादा बहुमत भी छीन लिया। इसलिए इस बार ज्यादा चतुराई दिखाने की कोशिश की जा रही है।
बहरहाल बिहार, बिहार है, वहां की प्रगतिकामी, आर्थिक और सामाजिक दोनों तरह के न्याय के लिए प्रतिबद्ध राजनीतिक शक्तियां और जनता इनका मंसूबा पूरा नहीं होने देगी। लेकिन बात यहीं तक रुकनी नहीं चाहिए; इस मास्टर पाखण्ड को चूल्हे तक छोड़कर आने के लिए जरूरी है कि जाति जनगणना हो, बिना और अधिक टले हो, देश की वास्तविक स्थिति तथ्यों और आंकड़ों के साथ ईमानदारी के साथ दर्ज हो और उसके बाद जहां जितना जरूरी है वहां उतने विकास के लिए ठोस कदम उठाये जाएं, उनके लिए उसी अनुपात में बजट आवंटन किया जाए। फिलवक्त सत्ता पर बैठे हुक्मरान खुद-ब-खुद ऐसा नहीं करने वाले, इसे कराना है तो इन मुद्दों को लेकर जनांदोलनों को नई तीव्रता और अधिक ऊंचाई प्रदान करनी होगी ।
बादल सरोज लोकजतन के सम्पादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।