सांस्कृतिक और वैज्ञानिक चेतना का समन्वय: वर्गीय चेतना का वैचारिक संघर्ष

Estimated read time 1 min read

आज समाज में वैज्ञानिक चेतना की महत्ता पर जोर दिया जा रहा है। यह कोई नई बात नहीं है। वैज्ञानिक सोच और तकनीकी उन्नति को समाज के प्रगति का मापदंड माना जाता है। लेकिन सवाल उठता है कि क्या केवल वैज्ञानिक चेतना से समाज में समग्र बदलाव संभव है? किसी व्यक्ति के पास वैज्ञानिक सोच हो, लेकिन उसकी सांस्कृतिक चेतना विकसित न हो, तो क्या वह समाज के मौलिक ढांचे में कोई बदलाव ला सकता है? मेरे नजरिए से इन सवालों का उत्तर स्पष्ट है: नहीं।

संस्कृति केवल कला, संगीत, साहित्य या त्यौहारों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह समाज के मूलभूत ढांचे से जुड़ी होती है। यह समाज के उस विचारधारात्मक आधार का निर्माण है, जिस पर आर्थिक संरचना और सामाजिक संबंधों की इमारत खड़ी होती है। किसी समाज की सांस्कृतिक चेतना में उस समाज के ऐतिहासिक अनुभव, उसकी परंपराएं, उसकी धारणाएं, उसके विश्वास और उसके मूल्य प्रणाली का समावेश होता है। सांस्कृतिक चेतना समाज के शासक वर्ग द्वारा निर्मित विचारधारा से प्रभावित होती है। इस विचारधारा का उद्देश्य शासक वर्ग के हितों की रक्षा करना और उनका प्रभुत्व बनाए रखना होता है। इसलिए, बिना सांस्कृतिक चेतना के, महज़ किसी भी वैज्ञानिक उन्नति द्वारा ही समाज में सार्थक परिवर्तन लाना लगभग असंभव है।

किसी समाज की संस्कृति उस समाज की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिस्थितियों का प्रतिबिंब होती है। इसलिए, किसी भी प्रकार का परिवर्तन समाज में केवल तकनीकी या वैज्ञानिक दृष्टिकोण से नहीं, बल्कि संस्कृति और चेतना के स्तर पर भी किया जाना चाहिए। वैज्ञानिक चेतना को अक्सर तटस्थ और तर्कसंगत दृष्टिकोण माना जाता है, जो वैज्ञानिक पद्धतियों, सिद्धांतों और ज्ञान के आधार पर कार्य करता है। वैज्ञानिक चेतना का उद्देश्य है तथ्यात्मक ज्ञान प्राप्त करना और प्राकृतिक घटनाओं के कारणों को समझना। यह चेतना समाज में शैक्षिक, तकनीकी और भौतिक विकास को बढ़ावा देती है।

हालांकि, वैज्ञानिक चेतना समाज के परंपरागत विश्वासों, मान्यताओं और पुरानी संस्थाओं को चुनौती देने का महत्वपूर्ण साधन तो बन सकती है, लेकिन ध्यान से देखा जाए, तो यह केवल वस्तुगत विकास तक ही सीमित रहती है। यदि सांस्कृतिक चेतना के साथ इसका समन्वय नहीं होता, तो यह बाहरी तकनीकी उन्नति के बावजूद समाज में बदलाव लाने में नाकाम रहती है।

वैज्ञानिक चेतना का समाज पर कोई उल्लेखनीय प्रभाव तब तक असरदार साबित नहीं हो सकता जब तक वह समाज की सांस्कृतिक चेतना से मेल नहीं खाता। केवल वैज्ञानिक सोच समाज में कोई महत्वपूर्ण क्रांतिकारी बदलाव नहीं ला सकती, क्योंकि यह संस्कृति, विश्वास और मूल्य प्रणाली से संचालित सामाजिक संस्थाओं के खिलाफ काम नहीं कर पाती। जब तक व्यक्ति की सांस्कृतिक चेतना जागृत नहीं होगी, वह अपनी स्थिति को समझने और उसका विरोध करने के लिए तैयार नहीं होगा। वैज्ञानिक चेतना व्यक्ति को तकनीकी ज्ञान और उपकरण देती है, लेकिन सांस्कृतिक चेतना उसे यह समझने की क्षमता देती है कि वह तकनीकी उन्नति का उपयोग समाज के शोषण के खिलाफ कर सकता है।

किसी समाज में असमानता और शोषण केवल आर्थिक दृष्टिकोण से नहीं, बल्कि सांस्कृतिक दृष्टिकोण से भी हो सकते हैं। समाज के शासक वर्ग अपनी संस्कृति और विचारधारा के माध्यम से सृजनशील वर्ग की चेतना को नियंत्रित करता है। इसलिए, समाज की सांस्कृतिक चेतना का जागरण ही उस शोषण और असमानता के खिलाफ पहली और सबसे महत्वपूर्ण लड़ाई है।

समाज में नरेटिव सेट करने में सांस्कृतिक चेतना की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। किसी भी समाज में नरेटिव वही होता है, जो उसकी सांस्कृतिक चेतना से उत्पन्न होता है। इस नरेटिव के जरिए समाज अपने इतिहास, मूल्यों और आदर्शों को परिभाषित करता है और यह बताता है कि किसी विषय को कैसे देखा जाना चाहिए। यह सांस्कृतिक चेतना और उससे उत्पन्न नरेटिव अक्सर शासक वर्ग द्वारा निर्मित और नियंत्रित होती है। इस नरेटिव का उद्देश्य शोषण और असमानता को बनाए रखना होता है, ताकि समाज में लोग उस व्यवस्था को ही सही मानें जो उनके शोषण का आधार है।

सांस्कृतिक चेतना किसी समाज के लोगों को यह सिखाती है कि उन्हें अपने जीवन को किस प्रकार से देखना चाहिए और उनका क्या उद्देश्य होना चाहिए। उदाहरण के तौर पर, पुनर्जन्म मानने वाले समाज में जहां सांस्कृतिक चेतना भाग्यवाद पर आधारित होती है, वहां का नरेटिव भी उसी के अनुसार होता है और अधिकांश लोग यह मानने लगते हैं कि जिस भी स्थिति में वे हैं, वह उनके भाग्य या पूर्व जन्मों के कर्म का फल है और उन्हें उसी में संतोष रखना चाहिए।

इस नरेटिव का उद्देश्य है लोगों को असमानता और शोषण के खिलाफ सवाल उठाने से रोकना। यह सांस्कृतिक चेतना समाज के शक्तिशाली वर्गों द्वारा नियंत्रित होती है, जो अपने लाभ के लिए ऐसा नरेटिव स्थापित करते हैं, जिसमें आम लोग अपने हालात को अपरिवर्तनीय मानकर जीने लगते हैं।

सांस्कृतिक चेतना के जरिए स्थापित नरेटिव ही यह तय करता है कि समाज में किसे शक्ति प्राप्त होगी और कौन शोषित रहेगा। शासक वर्ग का नरेटिव लोगों को यह विश्वास दिलाता है कि वर्तमान व्यवस्था प्राकृतिक है और उसे चुनौती नहीं दी जानी चाहिए। उदाहरण के लिए, कई समाजों में यह नरेटिव स्थापित किया जाता है कि अमीरी और गरीबी प्राकृतिक व्यवस्था का हिस्सा है और इसी कारण लोग अपनी आर्थिक स्थिति को अपरिवर्तनीय मान लेते हैं और इसे बदलने के लिए व्यवस्था परिवर्तन से पीछे हट जाते हैं।

सांस्कृतिक चेतना का प्रभाव समाज के विभिन्न संस्थानों में भी दिखाई देता है-चाहे वह शिक्षा हो, मीडिया हो या धर्म। इनके माध्यम से शासक वर्ग नरेटिव को इस तरह सेट करता है कि लोग उसी व्यवस्था में संतुष्ट रहें और परिवर्तन की जरूरत महसूस ही न करें। किसी समाज में व्यापक बदलाव तभी संभव होता है जब उस समाज में स्थापित सांस्कृतिक नरेटिव को चुनौती दी जाए और वैकल्पिक नरेटिव प्रस्तुत किया जाए। यह वैकल्पिक नरेटिव सृजनशील वर्ग की चेतना को जागरूक करता है, उन्हें यह समझाता है कि उनकी स्थिति प्राकृतिक नहीं, बल्कि समाज की असमान व्यवस्था का परिणाम है।

सांस्कृतिक चेतना के आधार पर नरेटिव सेट करना केवल विचारों का खेल नहीं है, बल्कि यह विभिन्न साधनों का उपयोग कर स्थापित किया जाता है, जैसे कि मीडिया, साहित्य, फिल्में और शिक्षा आदि। शासक वर्ग अक्सर इन साधनों का उपयोग अपने नरेटिव को समाज में मजबूती से बैठाने के लिए करता है। सृजनशील वर्ग को चाहिए कि वे इन साधनों का उपयोग अपने वैकल्पिक नरेटिव को प्रस्तुत करने के लिए करें, ताकि समाज में नई चेतना जागृत हो सके। यदि नरेटिव को बदलना है, तो पहले सांस्कृतिक चेतना को बदलना होगा। यह सांस्कृतिक परिवर्तन सृजनशील वर्ग को उनकी वास्तविक स्थिति का बोध कराने का साधन है और उन्हें संघर्ष के लिए प्रेरित करता है।

सांस्कृतिक चेतना का विकास किए बिना वैज्ञानिक चेतना का प्रभाव सीमित ही रहता है। वैज्ञानिक चेतना का आधार भले ही तर्क और प्रमाणों पर हो, लेकिन यदि समाज की सांस्कृतिक चेतना तैयार नहीं है, तो यह चेतना उस समाज में स्थायी प्रभाव नहीं डाल पाती। वैज्ञानिक सोच का प्रसार तभी संभव है, जब सांस्कृतिक चेतना में परिवर्तन हो, जो समाज को पुराने रूढ़िवादी ढाँचों और मान्यताओं से मुक्त कर सके। यदि समाज सांस्कृतिक रूप से रूढ़िवादिता, सड़ी गली परंपराओं और मान्यताओं में बँधा हो, तो वैज्ञानिक चेतना की तर्कशीलता उसके लिए कोई मायने नहीं रखती; वह उसे अपनाने से बचता है और अपने पुराने ढर्रे पर चलता रहता है।

किसी भी परिवर्तन के लिए केवल बाहरी बदलाव पर्याप्त नहीं होते। विचारधारा, संस्कृति और विश्वासों में बदलाव के बिना स्थायी क्रांति संभव नहीं। मनुष्य धर्म का निर्माण करता है; धर्म मनुष्य का निर्माण नहीं करता। धर्म वास्तव में उस मनुष्य की आत्म-चेतना और आत्म-गौरव का प्रतीक है, जो या तो अभी तक स्वयं को पहचान नहीं पाया है, या जिसने खुद को विस्मृत कर दिया है।

जब तक समाज के लोगों की सांस्कृतिक चेतना में बदलाव नहीं आता, तब तक वैज्ञानिक चेतना का प्रसार अधूरा रहता है। संकट इस तथ्य में निहित है कि पुराना मर रहा है, और नया जन्म नहीं ले पा रहा है; इस अंतराल में कई प्रकार के विकृत लक्षण उत्पन्न होते हैं। निहितार्थ यह है कि सांस्कृतिक चेतना के पुराने ढाँचे में जब तक बदलाव नहीं आता, तब तक नया दृष्टिकोण या वैज्ञानिक चेतना समाज में स्वीकृत नहीं हो पाती। पुरानी सांस्कृतिक चेतना को नए विचारों के लिए अनुकूल बनाना आवश्यक है ताकि समाज वैज्ञानिक दृष्टिकोण को आत्मसात कर सके।

सांस्कृतिक चेतना समाज के भीतर विचारों, मूल्यों, विश्वासों और विचारधाराओं के समग्र रूप को परिभाषित करती है। यह केवल व्यक्तिगत दृष्टिकोण या अभिव्यक्ति का मामला नहीं है, बल्कि समाज की समग्र संरचना, सत्ता और वर्गीय संबंधों का हिस्सा भी है। कोई समाज अपनी संस्कृति को जिस दृष्टिकोण से देखता है, उसी तरह उसका भविष्य तय होता है। लेकिन यह समझने के लिए कि समाज की सांस्कृतिक चेतना कैसे विकसित होती है, यह आवश्यक है कि इसे हम उस विषमता भरी व्यवस्था के संदर्भ में देखें जिसमें यह कार्य करती है।

समाज का शक्तिशाली वर्ग अपनी सत्ता और प्रभुत्व बनाए रखने के लिए सांस्कृतिक मान्यताओं और विचारों का निर्माण करता है। प्रत्येक युग में शासक वर्ग के विचार ही उसके समाज के प्रमुख विचार होते हैं। शासक वर्ग इस सांस्कृतिक चेतना को नियंत्रित करता है, ताकि वह अपने हितों की रक्षा कर सके और उत्पीड़ित वर्गों को उनके अधिकारों से वंचित रख सके। किसी भी समाज के लोक मानस में बैठी सांस्कृतिक चेतना का स्वरूप स्वाभाविक रूप से किसी झरने की तरह स्वतःस्फूर्त नहीं होता, जैसा कि इसे आमतौर पर प्रस्तुत किया जाता है।

यह धारणा ही भ्रामक है। किसी भी युग की चेतना में उस समय के सत्तारूढ़ वर्ग के हित और उसकी विचारधारा का प्रभाव गहराई से समाया होता है। सत्तारूढ़ वर्ग अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए लोक में ऐसी सांस्कृतिक चेतना का निर्माण करता है, जो जनता के बीच स्वीकार्य और आकर्षक लगे, लेकिन वास्तव में उसका अंतर्निहित उद्देश्य सत्ताधारी वर्ग के लाभ को ही बढ़ावा देना होता है।

कई बार यह चेतना उस बुनियादी आर्थिक असमानता और वर्गीय विभाजन को नजरअंदाज कर देती है, जो समाज में गहराई से मौजूद होती है। ऐसे में लोकचेतना का स्वरूप उस प्रभुत्वशाली वर्ग के स्वार्थों के इर्द-गिर्द बंध जाता है, जिसके पास संसाधनों और सत्ता का संकेंद्रण होता है। वास्तविक लोकचेतना का उद्देश्य होना चाहिए कि वह समाज में व्याप्त असमानताओं को समाप्त करे, जनता को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक करे और उसे आर्थिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक रूप से स्वायत्त बनाए। लेकिन जब लोकचेतना का स्वरूप जन आकांक्षाओं के बजाय सत्ताधारी वर्ग की इच्छाओं और योजनाओं के अनुरूप होता है, तो इसका परिणाम यह होता है कि आम जन की वास्तविक समस्याएँ और संघर्ष पृष्ठभूमि में चले जाते हैं।

समाज की सांस्कृतिक चेतना का लोकतांत्रिक रूप से विकसित होना चुनौतीपूर्ण कार्य है। असमान व्यवस्था में, सांस्कृतिक चेतना एक-दूसरे के विरोधाभासों से भरी होती है। जिस वर्ग के पास सत्ता होती है, वह अपनी सांस्कृतिक मान्यताओं और विचारों को समाज पर थोपने की कोशिश करता है, जिससे बाकी वर्गों की सांस्कृतिक चेतना प्रायः दब जाती है। इस दबाव को तोड़ने के लिए, असमान समाज में सांस्कृतिक चेतना का लोकतांत्रिक रूप से विकास करना जरूरी है।

लोकतांत्रिक सांस्कृतिक चेतना का विकास सिर्फ विचारों के स्तर पर नहीं, बल्कि कार्यों के स्तर पर भी जरूरी है। यह लोकतंत्र की तरह है, जो समाज में सभी वर्गों के अधिकारों की समानता और स्वतंत्रता सुनिश्चित करता है। लोकतांत्रिक सांस्कृतिक चेतना का मतलब केवल सांस्कृतिक विविधताओं को स्वीकार करना नहीं है, बल्कि इन विविधताओं को समान रूप से सम्मान देना और सभी वर्गों को अपने विचार व्यक्त करने का अधिकार देना है।

यह चेतना सामूहिक रूप से उत्पन्न होती है, जिसमें सभी वर्गों की भागीदारी हो और हर वर्ग अपने विचारों और विश्वासों को स्वतंत्र रूप से व्यक्त कर सके। श्रेणीकृत समाज में सांस्कृतिक चेतना के विकास के रास्ते में बड़ा अवरोध तब उत्पन्न होता है जब सत्ताधारी वर्ग अपनी विचारधारा और संस्कृति को बाकी वर्गों पर थोपता है। यह सांस्कृतिक दबाव केवल विचारों या मान्यताओं तक सीमित नहीं होता, बल्कि जीवन के हर पहलू जैसे शिक्षा, कला, साहित्य, मीडिया और यहां तक कि धर्म तक में महसूस किया जाता है।

शासक वर्ग अपने सांस्कृतिक मान्यताओं को इस प्रकार स्थापित करता है कि वे सामान्य लोगों के लिए सामान्य सत्य बन जाएं। इससे सृजनशील वर्ग की सांस्कृतिक चेतना दब जाती है और वे केवल शासक वर्ग की संस्कृति और मान्यताओं को ही अपनी वास्तविकता मानने लगते हैं। लेकिन यह असमानता और दबाव हमेशा स्थिर नहीं रहता। समय के साथ, जब सृजनशील वर्ग जागरूक होता है और उसके भीतर बदलाव की आकांक्षा पैदा होती है, तो वह पहले से मौजूद सांस्कृतिक चेतना को चुनौती देने लगता है। यह चुनौती न केवल सत्ताधारी वर्ग की विचारधारा को विफल करती है, बल्कि जनपक्षधर लोकतांत्रिक सांस्कृतिक चेतना के विकास की दिशा में यह पहला कदम भी होता है।

(मनोज अभिज्ञान स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

+ There are no comments

Add yours

You May Also Like

More From Author