डाक-बंगलों का अपना सौंदर्य होता है। उस स्थान का भी अपना सौंदर्य होता है, जहां-कहीं का होने पर भी वह डाक-बंगला विशिष्ट हो जाता है। बल्कि कई बार तो किसी असाधारण रमणीय सौंदर्य दर्शन के लिए उस डाक बंगले का निर्माण हुआ होता है। उसकी ख्याति उस स्थान के डाक बंगले के नाम से दर्ज हो जाती है। लोग वहां पहुंचने के लिए लालायित हो उठते हैं। वह उत्तराखंड में चकराता का डाक बंगला हो या मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ के साझे वाली चिल्फी घाटी में, घने शाल वनों के बीच बसा सूपखार का ऐतिहासिक डाक बंगला हो। अंबरीश कुमार वहां पहुंचे हैं।
यात्रा अनुभवों ने हमारे रचना साहित्य को अपनी अदेखी-अजानी दुनिया के अमूर्तन को साक्षात उपस्थितियों से भरा-पूरा किया है। वहां पहुंचाया, जहां हम कभी नहीं गए। उन लोगों के साथ मेल-मिलाप भी कराया, जिनसे हम कभी नहीं मिले। और शायद ही कभी मिलना हो पाए! यदि अभी ऐसा कुछ घटित हो ही जाए तो यह हमारा कितना सुखद विस्मय होगा कि पहले कभी जहां पहुंचे भी नहीं थे, वह जगह पहले की जानी-पहिचानी मिले। वहां के लोग, उनकी आदतें, उनकी विशिष्टताएं हमारे लिए अजानी न हों! यह एक जादू की तरह ही घटित होता है। यात्रा अनुभवों ने ऐसे जादुई संसार की रचनाओं से हमारे साहित्य को अच्छी समृद्धियां प्रदान की हैं।
साहित्य रचनाकारों के साथ-साथ साहित्य-दृष्टि सम्पन्न पत्रकारों का योगदान भी इसमें रहा है। अंबरीश कुमार का शुमार ऐसे पत्रकारों में उल्लेखनीय है। उनके पास यात्रा अनुभवों के लिए संवेदनशील मन है और अपने मन को अभिव्यक्त करने के लिए वह तरल भाषा है, जो पढ़ने वाले किसी को भी अपने प्रवास में साथ ले जाती है। खुद अंबरीश अपने को साहित्यकार नहीं मानते, लेकिन उनके पास रचना की वह भाषा है जो उनके पास से विकसित होती है और यात्रा साहित्य की जरूरतों के लिए ही बनी है।
अंबरीश आदतन प्रवासी पत्रकार हैं। कब, कहां पहुंच जाएं? इसकी कोई पूर्व सूचना नहीं होती, लेकिन वह जहां पहुंचते हैं वह तो और भी कोई अप्रत्याशित जगह ही होती है। कुछ-कुछ इतनी नई और इतनी पहली बार कि यह भी कोई जगह हुई जहां किसी को पहुंचना चाहिए? लेकिन जब उनका लिखा हुआ सामने आता है तो सवाल लेकर आता है कि यहां पहले कोई, क्यों नहीं पहुंचा? वह एक जरूरी जगह लगने लगती है। वह जगह अपनी पहुंच के भीतर लगने लगती है।
ऐसे खेल रचाते रहना अंबरीश का आनंद भी है और उनकी खोजी प्रवृत्ति भी है। किसी नए की खोज यात्रा साहित्य का सबसे बड़ा गुण है। वह जगह एकदम नई, एकदम कोरी हो सकती है। वह जगह एकदम पुरानी, हमारी बार-बार की जानी भी हो सकती है, लेकिन वहां के अनुभव को इतना नया, इतना कोरा बना देना कि वह पहली बार का लगने लगे! यह किसी भी यात्रा वृत्तांत सबसे रचनात्मक कौशल होता है। इसे यात्रा की सन्धान दृष्टि कहें तो यह दृष्टि संपन्नता अंबरीश कुमार के पास उनकी स्वाभाविकता में है। मैंने इससे पहले का यात्रा संकलन, ‘घाट-घाट का पानी’ पढ़ा है। वह उनकी इस सन्धान दृष्टि का ही एक दस्तावेज है। वह तालाबों-सरोवरों पर केंद्रित है। अब यह, डाक बंगलों पर केन्द्रित उनके एक और संकलन की पांडुलिपि मेरे सामने है।
डाक-बंगलों के साथ उनका अपना इतिहास भी जुड़ा होता है। उसके साथ उसके किस्से-कहानियों के सिलसिले भी होते हैं। उनको अनुभूति के तल पर पकड़ पाने के लिए अपने भीतर एक साथ साहित्य-बोध और सन्धान दृष्टि, दोनों का होना जरूरी होता है। यह मणि-कांचन योग होता है। अंबरीश इसी दुर्लभ मणि-कांचन योग के साधक हैं।
डाक-बंगलों का अपना सौंदर्य होता है। उस स्थान का भी अपना सौंदर्य होता है, जहां-कहीं का होने पर भी वह डाक-बंगला विशिष्ट हो जाता है। बल्कि कई बार तो किसी असाधारण रमणीय सौंदर्य दर्शन के लिए उस डाक बंगले का निर्माण हुआ होता है। उसकी ख्याति उस स्थान के डाक बंगले के नाम से दर्ज हो जाती है। लोग वहां पहुंचने के लिए लालायित हो उठते हैं। वह उत्तराखंड में चकराता का डाक बंगला हो या मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ के साझे वाली चिल्फी घाटी में, घने शाल वनों के बीच बसा सूपखार का ऐतिहासिक डाक बंगलो हो। अंबरीश कुमार वहां पहुंचे हैं।
सुपखार के इस ऐतिहासिक डाक बंगले का पता तो अंबरीश कुमार को मैंने ही दिया था। मैं और अंबरीश कुमार साथ-साथ घूमे हैं। मैं और अंबरीश कुमार जहां साथ-साथ नहीं पहुंचते वहां भी उनके यात्रा वृत्तांतों के ज़रिए में और वह साथ-साथ प्रवास करते है। डाक-बंगलों के उनके इस संकलन के ज़रिए उनको पढ़ने वाले भी उनके साथ उन डाक-बंगलों से वहां के रमणीय सौंदर्य और प्रांजल शांतियों की अनुभूति कर रहे होंगे। अब यह पुस्तक उपलब्ध है। ई-बुक के रूप में। कीमत है 40 रुपये। इसे नाटनल डॉट काम ने प्रकाशित किया है।
सतीश जायसवाल