नई दिल्ली। “पैरों ने साथ देना बंद कर दिया तो सरकार के पास फ़रियाद लेकर आ गए। लेकिन सरकार भी हमारी अपनी नहीं हुई।”, यह कहना है रईसा बी (55) का जो कि ओखला प्रोजेक्ट में तबसे कार्यरत हैं जब उनका मानदेय 200 रूपये मात्र हुआ करता था। रईसा दक्षिण दिल्ली के ओखला इलाके में अपने परिवार के साथ रहती हैं। उनके 3 बेटे हैं जो ओखला में ही छोटा-मोटा काम करते हैं, जिससे मासिक कमाई करीब 4-5 हज़ार रूपये हो जाती है। रईसा के परिवार में कुल 13 सदस्य हैं। पहले अपना घर चलाने और अब अपने बेटों का हाथ बंटाने के चलते रईसा को आराम या रिटायरमेंट का मौका ही नहीं मिला। उनका मानना है की जितना समय उन्होंने दिल्ली की आंगनवाड़ियों में दिया है, मानदेय की राशि बढ़ाने के लिए उनका संघर्ष करना बेहद आवश्यक है।

दो साल बाद वे रिटायर होने वाली हैं, और बढ़ती महंगाई को देखते हुए उन्हें इस बात की भी चिंता है कि इतने कम पैसों में अब गुजारा कैसे चलेगा। रईसा बताती हैं कि गर्भवती महिलाओं और बच्चों के लिए ट्रकों से राशन आता है, लेकिन उसे घर-घर पहुंचाने के लिए उन्हें 10-15 किलो का वज़न अपनी पीठ पर ढो कर ले जाना पड़ता है। रईसा की बढ़ती उम्र के चलते उन्हें थकान भी जल्दी होना लाज़मी है, और कभी-कभी तो उन्हें तीसरे माले तक चढ़ना पड़ जाता है।
इसी वजह से वे भी दिल्ली स्टेट आंगनवाड़ी वर्कर्स एवं हेल्पर्स यूनियन के नेतृत्व में चल रही हड़ताल का हिस्सा बनी हैं, इस विरोध प्रदर्शन में करीब 22,000 से ज़्यादा आंगनवाड़ी वर्कर्स एवं हेल्पर्स भाग ले रही हैं। 24 दिनों से चल रहे प्रदर्शन को लेकर दिल्ली सरकार ने अभी तक कोई जवाब नहीं दिया है।
22 फरवरी को 18,000 से अधिक आंगनवाड़ी कर्मियों ने दिल्ली सरकार की चुप्पी के खिलाफ़ रोष व्यक्त करते हुए ‘चेतावानी महारैली’ निकाली। इससे पहले भी वे 11 फ़रवरी को ‘खबरदारी रैली’ का हिस्सा बनी थीं, जिस पर दिल्ली पुलिस का हिंसक रूप देखने को मिला था। मोना सिंह कहती हैं “दिल्ली पुलिस हमारी सुरक्षा के लिए नहीं, बल्कि सरकार की कठपुतली के तौर पर काम करती है।” मोना पिछले 3 सालों से बुरारी प्रोजेक्ट में हेल्पर के तौर पर कार्यरत हैं। दिल्ली यूनिवर्सिटी के दयाल सिंह कॉलेज से बी. ए. करने के बाद भी मोना अपने घर की विषम परिस्थितियों के चलते हेल्पर का काम करने के लिए विवश हैं। कुछ साल पहले मोना के पिता का दायां हाथ एक दुर्घटना में क्षतिग्रस्त हो गया। भाई अभी 12वीं कक्षा में पढ़ रहा है, और मोना की दिली इच्छा उसे और आगे पढ़ाने की है।

दिल्ली स्टेट आंगनवाड़ी वर्कर्स एवं हेल्पर्स यूनियन की मीडिया प्रभारी वृषाली ने अपने संगठन की मांगों पर विस्तार से बताते हुए कहा कि, इस समय उनकी प्रमुख मांग यह है की किसी भी महिला कर्मी पर सरकार कोई भी दंडात्मक कार्यवाही न करे। यदि इस मांग का उल्लंघन होता है तो उन्हें फिर से संघर्ष को शुरू करने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। 23 फ़रवरी को महिला विकास आयोग के द्वारा प्रदर्शन स्थल का जायज़ा लिया गया और उन्होंने प्रदर्शनकरियों से बात भी की।
मोना पूछती हैं “आटे-तेल के दाम देखकर आपको लगता है की एक परिवार अपना गुज़ारा मात्र 4,839 रूपये में कर पाएगा?” मोना की तरह ही सभी आंगनबाड़ी हेल्पर्स की आय मात्र 4,839 रूपये है। इस हड़ताल की मुख्य मांगों में से एक मांग यह है कि, हेल्पर्स का मानदेय उनके कार्यभार को देखते हुए 20,000 रूपये और वर्कर्स का मानदेय 25,000 रूपये तक बढ़ाया जाए। इसके अलावा आंगनवाड़ी कर्मियों की केंद्र सरकार से मांग है कि न्यू एजुकेशन पॉलिसी को भी लागू होने से रोका जाए। नए प्रावधानों में नई शिक्षा नीति के तहत आंगनवाड़ी कर्मियों को इनफॉर्मल प्री-स्कूलिंग की जगह अब प्री-प्राइमरी की औपचारिक शिक्षा देनी होगी। इतना ही नहीं बल्कि प्री-प्राइमरी शिक्षकों के हिस्से का काम भी इन कार्यकर्ताओं को करना होगा, जबकि इनको मिलने वाला मानदेय न के बराबर है, और मानदेय में बिना किसी बढ़ोत्तरी के उन्हें इस काम को अंजाम देना होगा। वे दावा करती हैं कि केंद्र सरकार द्वारा यह कदम सिर्फ कॉस्ट कटिंग के मकसद से लिया गया है।
अभी तक आंगनवाड़ी कार्यकर्त्ता के लिए दसवीं पास होना अनिवार्य था, और सहायिका के लिए यह अनिवार्यता नहीं थी, किन्तु नई शिक्षा नीति के तहत कार्यकर्ता के लिए स्नातक और सहायिका के लिए 12वीं तक शिक्षा अनिवार्य हो जायेगी।

दिल्ली में लगभग 1000 सरकारी स्कूल हैं, और यदि एन. ई. पी. को लागू कर दिया जाता है तो दिल्ली के 11,000 आंगनवाड़ी केन्द्रों में काम करने वाली 22,000 महिला कर्मियों में से कुछ को ही आंगनवाड़ी कर्मी माना जाएगा। यूनियन को इस बात का अंदेशा है कि केंद्र सरकार की यह नीति भी कहीं न कहीं बाक़ी निजीकरण की गतिविधियों से मेल खाती नजर आती है। वृषाली कहती हैं कि आंगनवाड़ी को भी एक गैर-सरकारी संगठन बना कर छोड़ दिया जाएगा। 20 सालों से दिल्ली में मानवाधिकारों पर काम कर रहे सोशल एक्टिविस्ट अंकित झा कहते हैं कि “आंगनवाड़ी-कर्मी शिशुओं के पोषण का ही नहीं बल्कि गर्भवती स्त्रियों के भी पोषण का ध्यान रखती हैं। उनकी मांगें बेहद वाजिब हैं, सरकार को उन्हें उनका हक़ ज़रूर देना चहिए।”
सुनीता ने हमें बताया कि कभी-कभार उन्हें किसी महिला को देर रात डिलीवरी पेन होने पर, सुपरवाइज़र का कॉल आने पर उसी वक्त ड्यूटी पर जाना पड़ता है। इसके लिए उन्हें या किसी भी कर्मी को अतिरिक्त मानदेय नहीं दिया जाता है। रईसा की तरह ही उनकी साथी सुनीता ने भी ओखला आंगनवाड़ी में तब काम करना शुरू किया था, जब मात्र 200 रुपये मिलते थे। लेकिन अपनी आर्थिक स्थिति और जिम्मेदारियों को देखते हुए उन्होंने दो साल के भीतर ही आंगनवाड़ी छोड़ दूसरा काम करना शुरू कर दिया था। सन् 2014 में सुनीता देवी ने फिर से हेल्पर का कार्यभार संभाला। “दिल्ली सरकार हमारे काम को समाज सेवा का नाम देकर सिर्फ़ हमें बहलाना चाहती है, लेकिन हम पूरा दिन परेशान होने के बाद अपने हक़ की लड़ाई लड़ते हैं तो उनको हम गुंडे नजर आते हैं”, सुनीता कहती हैं।

सुनीता और अन्य आंगनवाड़ी कर्मियों ने बताया कि 11 फ़रवरी की रैली में, उनकी महिला साथियों के साथ पुलिसकर्मियों ने दुर्व्यवहार किया था। पुरुष पुलिसकर्मियों द्वरा उनका हाथ पकड़ कर खींचा गया, और फिर पीछे धकेलने के लिए बल प्रयोग किया गया। रीना देवी बताती हैं “पुलिसकर्मी हड़ताल पर बैठी महिलाओं और आंदोलन की नेताओं को “चरित्रहीन” कहकर फब्ती कस रहे थे।” रीना का मानना है कि जब भी मजदूर वर्ग की महिलाएं अपने संघर्ष की लड़ाई लड़ने के लिए आगे आती हैं तो उनके खिलाफ़ केवल पुरुष प्रधान समाज ही नहीं, बल्कि पुरुष और पूंजी प्रधान व्यवस्था भी अपने सबसे बर्बर रुप में सामने आ खड़ी होती है। लेकिन उन्हें इससे डर नहीं लगता। रीना देवी बदरपुर प्रोजेक्ट में सन् 2007 से सेवानिवृत्त हैं।
वे बताती हैं कि बस चालक यदि समूह में महिलाओं को देखते हैं तो बस नहीं रोकते, यह कह कर कि वे धरने वाली महिलाओं को नहीं चढ़ने देंगे। “या फ़िर घर से आते वक्त वे स्पीड तेज़ कर देते हैं, और धरना स्थल से बहुत आगे ले जा कर उतरने को कहते हैं”, रीना कहती हैं। रईसा को एक बार बस में चढ़ते हुए बाएं पैर में चोट भी लग चुकी है। वे बताती हैं “इस बर्बरता का सामना उन्हें सिर्फ पब्लिक परिवहन में ही नहीं, अपने कार्यस्थल पर भी करना पड़ता है।” एक बार उनकी एक साथी को अनाज वितरण के वक्त कुत्ते ने काट लिया था, और जब वे उसे डिस्पेंसरी लेकर गईं तो वहां उन्हें झिड़क दिया गया। आंगनवाड़ी हेल्पर्स को मेडिक्लेम की भी सुविधा नहीं है। इस हड़ताल के माध्यम से दिल्ली स्टेट आंगनवाड़ी वर्कर्स एवं हेल्पर्स यूनियन ने देश भर में काम कर रही आंगनवाड़ी कर्मियों के लिए पेंशन स्कीम लागू करने भी मांग की है।

मीडिया प्रभारी बताती हैं की सन् 2018 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के द्वारा की गई घोषणा के मुताबिक आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं की मानदेय राशि बढ़ाई जानी थी, लेकिन आज 41 महीनों के बाद भी यह राशि वर्करों तक पहुंची नहीं है। उन्होंने इस क्षेत्र से संबंधित मांगों को लेकर बताया की दिल्ली सरकार द्वारा शुरू की गई ‘सहेली समन्वय केंद्र’ को बंद किया जाना चाहिए। सहेली समन्वय केंद्र की आड़ में महिला कर्मियों की ड्यूटी 2 बजे ख़त्म होने के बजाय 4 बजे तक बढ़ा दी जाती है। वे आगे कहती हैं, “महिला सशक्तिकरण की ज़िम्मेदारी उन महिलाओं को दी जा रही है, जो आर्थिक रूप से मजबूर होकर अपनी रोज़ी-रोटी चलाने के लिए आंगनबाड़ी में काम करती हैं। यह अपने आप में एक विडंबना नहीं तो और क्या है?”
ये सभी महिलाएं “200-200 रूपये” देकर लाई गई हैं, जैसे आरोपों को ख़ारिज करते हुए रईसा हंसते हुए अपना आंगनवाड़ी कार्ड दिखाती हैं। “हक़ की लड़ाई ख़रीदी नहीं जा सकती, लेकिन सरकार शायद मीडिया को खरीद चुकी है, इसलिए उसे सभी बिकाऊ लगते हैं।” इतना कहकर वे अपनी साथियों के साथ घर की ओर बढ़ने लगती हैं।
(सेजल पटेल जामिया मिलिया यूनिवर्सिटी के पत्रकारिता विभाग से एमए कर रही हैं।)
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