संवैधानिक संस्थाओं को बचाने के लिए लोकतांत्रिक ताकतों को लंबी जद्दोजहद से गुजरना होगा

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बस अब यही बच गया था, संसद भवन के द्वार पर आज सांसदों के बीच धक्का-मुक्की हुई। यह हमारी संवैधानिक संस्थाओं के अवमूल्यन की पराकाष्ठा है। सत्र का अंत होते-होते जिस भाव में अमित शाह ने डॉ. अम्बेडकर का जिक्र किया, उसने संविधान और बाबा साहब के प्रति संघ भाजपा के अंतःपुर की दुर्भावना को उजागर कर दिया।

संविधान पर चल रही बहस में हस्तक्षेप करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि कांग्रेस को संविधान का शिकार करने की आदत है और संशोधन करने का खून उनके मुंह लगा है, लेकिन स्वयं वे और उनकी सरकार दस साल से संविधान के साथ क्या कर रहे है, इस पर विपक्ष द्वारा उठाए गए सवालों का उत्तर देने की जहमत उन्होंने नहीं उठाई।

सत्ता और कॉरपोरेट के मिलीभगत और मोदी-अडानी रिश्ते के रूप में हमारे राजनीतिक अर्थतंत्र के चरम केंद्रीकरण ने देश को एक खतरनाक मोड़ पर पहुंचा दिया है। पूरी दुनिया ने यह अद्भुत नजारा देखा कि भारत में विपक्ष नहीं बल्कि सत्ता पक्ष ही संसद नहीं चलने दे रहा है!

दरअसल यह केवल संसद की ही बात नहीं है, देश की सारी संवैधानिक संस्थाओं की यही कहानी है, सरकार उन्हें अपने हितों के अनुरूप हांक रही है। तमाम संस्थाओं की निष्पक्षता, पारदर्शिता अब गुजरे जमाने की बात हो चुकी है।

इस समय राज्यसभा के सभापति, देश के उपराष्ट्रपति महोदय के खिलाफ विपक्ष ने अविश्वास प्रस्ताव पेश किया है। उधर सेबी प्रमुख के खिलाफ मामला चल रहा है। केंद्रीय चुनाव आयोग बड़े सवालों के घेरे में है। ईडी, सीबीआई, इनकम टैक्स विभाग का विरोधियों के खिलाफ खुल्लम-खुल्ला इस्तेमाल अब आम बात हो चुकी है।

अभी यूपी में उच्च न्यायालय के जज शेखर यादव प्रकरण ने इस स्थिति को बेपर्दा कर दिया है। सर्वोच्च न्यायालय ने उनके वक्तव्य का संज्ञान लिया है। रिपोर्ट के अनुसार उच्चतम न्यायालय के कॉलेजियम ने 17 दिसंबर को उन्हें तलब किया। उधर संसद में उनके ऊपर महाभियोग की तैयारी है।

जज महोदय पहले तो विहिप जैसी संस्था के कार्यक्रम में गए, वह अपने आप में आपत्तिजनक है। बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले का, जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने भी अपराधिक कृत्य माना था, जिस संगठन ने औपचारिक तौर पर नेतृत्व किया था, वह विश्व हिंदू परिषद ही थी।

फिर वहां जाकर वे उसके ही नेता जैसे बोले। अगर यह बताया न जाय कि वक्ता कौन हैं तो लोग उन्हें विहिप का ही प्रवक्ता समझते। यह कहना कि भारत बहुसंख्यकों के हितों के अनुरूप चलेगा, इसमें यह अंतर्निहित है कि देश में जो धर्मनिरपेक्ष संविधान है, उससे देश नहीं चलेगा, बल्कि बहुसंख्यक हिंदुओं के अनुसार चलेगा।

जाहिर है यह आम हिंदुओं के हित में राज की बात नहीं है, वरन इसका अर्थ है कि विहिप जैसे हिंदू हितों के जो स्वयंभू प्रवक्ता हैं, उनके अनुरूप देश चलेगा और उनका आदर्श भारत का संविधान नहीं, वरन मनु स्मृति है।

वे यहीं पर नहीं रुके, मुसलमानों के लिए बेहद आपत्तिजनक शब्दावली का उन्होंने प्रयोग किया, जिसे उन्होंने खुद माना कि वे गलत शब्द का प्रयोग कर रहे हैं, लेकिन उन्होंने कहा कि उसका प्रयोग करने से उन्हें गुरेज नहीं है।

यह दुस्साहस और आत्मविश्वास की पराकाष्ठा है। ऐसा लगता है कि उन्हें इस बात का विश्वास था कि गलत होने पर भी कोई उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा, बल्कि इसका उन्हें इनाम मिलेगा।

वैसे सच्चाई यह है कि जस्टिस शेखर यादव ने केवल उस भावना को सार्वजनिक तौर पर व्यक्त कर दिया है जो अनेक संस्थाओं में शीर्ष पदों पर विराजमान माननीय लोग निजी तौर पर रखते होंगे।

यह अनायास नहीं है कि पूजास्थल अधिनियम 1991 की खुलेआम अवहेलना करते हुए तमाम मस्जिदों, दरगाहों के सर्वे के लिए आदेश आते जा रहे थे। आखिर शेखर यादव जैसे जजों से और उम्मीद भी क्या की जा सकती है?

बहरहाल सुप्रीम कोर्ट ने अपने स्वागतयोग्य फैसले में यह निर्देश दिया है कि देशभर के धर्मस्थलों या तीर्थस्थलों के संबंध में कोई नया मुकदमा दर्ज नहीं किया जाएगा, न पहले से चल रहे मामलों में कोई सर्वे या अन्य कोई आदेश पारित किया जाएगा।

यह रोक तब तक लगी रहेगी जब तक उच्चतम न्यायालय उपासना स्थल अधिनियम 1991 की वैधता निर्धारित करने के लिए दायर याचिकाओं पर किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच जाती। अब न्यायालयों से ऐसे फैसलों को अपवाद ही माना जाना चाहिए।

सच्चाई यह है कि आज तमाम संस्थाओं की स्वायत्तता और निष्पक्षता खत्म हो गई है। विधायिका कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों के विभाजन का सिद्धांत तिरोहित हो चुका है।

कुछ अपवादों को छोड़कर देश की तमाम संस्थाएं मोदी-शाह के निर्देश पर सत्तारूढ़ दल और अडानी जैसों के हित में संचालित की जा रही है।

राज्यसभा के सभापति पर आरोप लग रहा है कि वे सत्तारूढ़ दल के प्रवक्ता के बतौर व्यवहार कर रहे हैं। लेकिन भाजपा ने इसे जाटों के अपमान का मुद्दा बना दिया है।

उनके राष्ट्रीय प्रवक्ता संबित पात्रा ने इसे जाटों के अपमान से जोड़ दिया। उन्होंने कहा कि जाटों ने देश की आजादी के लिए बहुत कुर्बानी दी है और विपक्ष साधारण किसान परिवार में पैदा हुए उनके बेटे का अपमान कर रहा है !

उधर भाजपा अध्यक्ष नड्डा ने इसे कांग्रेस सोरोस मुद्दे से ध्यान हटाने की कोशिश करार दिया है। उनके बड़बोले सांसद निशि कांत दुबे ने आरोप लगा दिया कि राहुल गांधी की यात्राओं के लिए देश तोड़ने वाली ताकतों से मदद ली जाती है।

भाजपा ने अब इस रणनीति में महारत हासिल कर ली है कि उनके ऊपर जो लोग भी आरोप लगाएं, उन्हें विदेशी ताकतों से जोड़ दिया जाय या अर्बन नक्सल करार दे दिया जाय।

जब भी मोदी अदानी के रिश्तों, अडानी के महाघोटालों को लेकर कोई खबर आती है और विपक्ष उसे मुद्दा बनाता है, नियंत्रित गोदी मीडिया के माध्यम से अपने गढ़े हुए नैरेटिव को वे जनता के बीच स्थापित कर देते हैं और जो गंभीर सवाल उनके खिलाफ खड़ा होता है, उससे ध्यान मोड़ देने और उसे पृष्ठभूमि में धकेल देने में वे कमोबेश सफल हो जाते हैं।

इंदिरा गांधी की तरह निरंकुश सत्ता थोपने, आधी रात में विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारी आदि उन्होंने नहीं किया। उस दौर के अनुभव से सीखते हुए इस मायने में उनकी रणनीति अलग है। लोकतंत्र की सारी संस्थाएं मौजूद हैं, लेकिन उनको उन्होंने अपनी जेबी संस्थाओं में तब्दील कर दिया है।

सभी विपक्षी नेताओं की होल सेल एक साथ गिरफ्तारी की बजाय वे चुनिंदा ढंग से विपक्ष के उन नेताओं को प्रताड़ित करते हैं जो उनके लिए असुविधाजनक हैं। प्रेस पर सेंसरशिप लगाने की बजाय, उसे खरीद लिया गया है या डरा दिया गया है।

CBI और ED जैसी जांच एजेंसियों का जिस तरह इस राज में इस्तेमाल किया गया है, वह अभूतपूर्व है। एक ओर विरोधी दलों के भ्रष्ट नेताओं को भाजपा के साथ ले आने के लिए इनका इस्तेमाल हुआ तो दूसरी ओर दबाव डालकर तमाम कंपनियों से धन उगाही के लिए। इलेक्टोरल बॉन्ड को अंततः उच्चतम न्यायालय ने गैर संवैधानिक घोषित कर दिया।

आज सरकार की हर आलोचना को देश के प्रति गद्दारी बना दिया गया है। दिल्ली दंगों के षड्यंत्र के आरोप में चार साल से उमर खालिद और शरजील इमाम जैसे युवा जेलों में बंद हैं। उन्हें न जमानत मिल रही है, न अभी मुकदमा शुरू हुआ है।

शरजील इमाम ने अभी कोर्ट में कहा कि उनके कथित सह अभियुक्तों के साथ उनके किसी तरह के संपर्क का कोई सुबूत पुलिस के पास नहीं है, उसमें से कई को जमानत मिल भी चुकी है। लेकिन उन्हें जमानत नहीं दी जा रही है।

उमर खालिद और शरजील इमाम के भाषणों में कहीं भी न भड़काऊ भाषण है, न हिंसा की कोई बात है। उल्टे वे गांधीवादी अहिंसक आंदोलन की वकालत करते हैं।

यह अनायास नहीं है कि पूरी दुनिया में लोकतंत्र की सेहत का अध्ययन करने वाली संस्थाएं भारत के मौजूदा लोकतंत्र को हाइब्रिड रेजीम (संपूर्ण लोकतंत्र और संपूर्ण निरंकुशता के बीच की स्थिति) फ्लॉड डेमोक्रेसी आदि नामों से नवाजती हैं।

वीडेम रिपोर्ट (V dem) ने भारत की राजनीतिक व्यवस्था को चुनावी निरंकुशता करार दिया। स्वाभाविक है मोदी सरकार इस तरह के सारे विश्लेषणों को गुमराह करने वाला और गलत बताती है।

विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता और अकादमिक स्वतंत्रता जो पहले बेहद महत्वपूर्ण मानी जाती थी, क्योंकि उसके बिना शिक्षा की गुणवत्ता सुनिश्चित नहीं हो सकती। अगर शिक्षण संस्थान किसी पार्टी की विचारधारा के भोंपू बन जाएं तो शिक्षा का पूरा उद्देश्य ही बदल जाता है।

आज यही हो रहा है। तमाम विश्वविद्यालयों में सत्तारूढ़ दल की विचारधारा से जुड़े लोग कुलपति बनाए जा रहे हैं और वे बड़े पैमाने पर उसी वैचारिक पृष्ठभूमि के लोगों को फैकल्टी में भर रहे हैं।

प्राथमिक से लेकर उच्चतर स्तर तक पाठ्यक्रमों में बदलाव किया जा रहा है। जेएनयू जैसे शिक्षा के जो प्रगतिशील संस्थान हैं, उन्हे बरबाद किया जा रहा है।

कुल मिलाकर सारी संस्थाओं को संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थ में कमजोर कर दिया गया है और उनका दुरुपयोग किया जा रहा है। यह कुछ व्यक्तियों के भ्रष्ट या पतित हो जाने से ज्यादा गंभीर मामला है क्योंकि देश में लोकतंत्र कितना मजबूत होगा, यह इसी बात पर निर्भर है कि लोकतंत्र की संस्थाएं कितनी मजबूत हैं।

जाहिर है इन संस्थाओं को बचाने के लिए लोकतांत्रिक ताकतों को लंबी जद्दोजहद से गुजरना होगा।

(लाल बहादुर सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष है)

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