आपातकाल में आरएसएस का दोहरा चरित्र-भाग 1  

आपातकाल से मुक्ति के बाद तकरीबन हर साल 25-26 जून को देश को इंदिरा गांधी के ‘अधिनायकवाद’ के हवाले किए जाने की बरसी पर, एक-दो दिन आगे-पीछे, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और भारतीय जनसंघ (अभी भारतीय जनता पार्टी) के लोगों के दमन और प्रतिरोध की ‘शौर्य गाथाएं’ सामने आनी शुरू हो जाती हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर तमाम नेता आपातकाल को लोकतांत्रिक भारत के इतिहास में काला अध्याय करार देने, संविधान की हत्या और इस बहाने इंदिरा गांधी और उनके पुत्र संजय गांधी तथा आपातकाल के अन्य ‘खलनायकों’ को कोसने, उन्हें लानत-मलामत भेजने के शब्द बाणों की बौछार शुरू कर देते हैं। हालांकि एक मजेदार तथ्य यह भी है कि आपातकाल और उसकी ज्यादतियों के लिए जिम्मेदार प्रमुख लोगों में से स्व. संजय गांधी की पत्नी मेनका गांधी, जगमोहन, विद्याचरण शुक्ल और बंसीलाल बाद के वर्षों में किसी न किसी रूप में भाजपा के साथ जुड़े रहे। मेनका गांधी और उनके पुत्र वरुण गांधी सोलहवीं और सत्रहवीं लोकसभा में भी भाजपा के सदस्य रहे। 

सही मायने में देखा जाए तो देश के स्वतंत्रता संग्राम में किसी तरह की भूमिका नहीं होने और फिर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या में संदिग्ध भूमिका और उसको लेकर उठे विवादों में नाम आने, संघ पर प्रतिबंध लग जाने के कारण संघ के पास अपने इतिहास में महिमा मंडन और अपनी ‘शौर्य गाथा’ बताने लायक कुछ खास नहीं था। गुजरात के नव निर्माण आंदोलन और बिहार-जेपी आंदोलन ने संघ के लोगों, खासतौर से जनसंघ और विद्यार्थी परिषद के लोगों को मुख्यधारा की राजनीति में पांव पसारने का अवसर प्रदान किया था। इन आंदोलनों में संघ परिवार की परोक्ष अथवा प्रत्यक्ष शिरकत के साथ ही आपातकाल की अवधि में उस पर लगे प्रतिबंध और उसके अपने लोगों के कथित प्रतिरोध की भूमिका ही है जिसे वे लोग हर साल खूब बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते हैं। लेकिन क्या यह सही है! 

     यह निर्विवाद है कि गुजरात के नव निर्माण आंदोलन, बिहार-जे पी आंदोलन में संघ की छात्र-युवा शाखा विद्यार्थी परिषद और जनसंघ के साथ ही संघ का बड़ा तबका भी शामिल और सक्रिय था। आपातकाल में संघ की भूमिका को लेकर भी तमाम तरह की बातें कही जाती हैं। संघ के विरोधियों की बात छोड़ भी दें तो उसके अपने लोग भी आपातकाल में इसके और इसकी राजनीतिक शाखा रहे भारतीय जनसंघ के शिखर पुरुषों की भूमिका को संदिग्ध बताते हुए, उन पर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के समक्ष घुटने टेकने और उनसे ‘माफी मांगने’ तक के गंभीर आरोप लगाते रहे हैं।

दरअसल, अपने देशव्यापी समर्पित एवं अनुशासित काडर आधारित संगठन की वजह से संघ के लोगों, कुछ हद तक विपक्ष के नेताओं और यहां तक कि जय प्रकाश नारायण को भी ‘गुमान’ था कि लोक संघर्ष समिति के नेतृत्व, निर्देशन में 29 जून, 1975 से लेकर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के त्यागपत्र देने तक देश भर में धरना-प्रदर्शन और सत्याग्रह में संघ के लोगों, अन्य विपक्षी दलों के नेताओं-कार्यकर्ताओं के साथ ही बड़े पैमाने पर आम लोग भी सड़कों पर उतर आएंगे। संघ के सरसंघचालक बाला साहब देवरस की गिरफ्तारी और चार दिन बाद संघ पर लगे प्रतिबंध के बाद संघ के संचालकों ने इसके विरुद्ध अनिश्चितकालीन सत्याग्रह आंदोलन का आह्वान भी किया था।

लेकिन छिटपुट धरना-प्रदर्शनों और गिरफ्तारियों के अलावा कोई बड़ा और प्रभावकारी जनांदोलन देखने को नहीं मिला जिसे इंदिरा गांधी और उनके आपातकाल को मजबूत चुनौती कहा जा सके। इस पर चुटकी लेते हुए इंदिरा गांधी ने स्वयं 25 सितंबर, 1976 को ‘दि डेली टेलीग्राफ’ को दिए साक्षात्कार में कहा था, “ऐसा नहीं है कि उनके साथ जनता है। अखबारों ने ही ऐसी तस्वीर पेश की थी कि जैसे उनके साथ बड़ा जन समर्थन है जबकि ऐसा था नहीं…….मैं खुद यह देखकर दंग रह गई कि आपातकाल लागू होने के बाद किसी तरह की चूं चपड़ नहीं हुई। 

संघ के बड़बोले दावे

लेकिन संघ परिवार से जुड़े लोग दावा करते हैं कि संघ ने और उसके लोगों ने आपातकाल का बहुत बहादुरी के साथ मुकाबला किया, देश के विभिन्न हिस्सों में सत्याग्रह, प्रदर्शन कर जेलें भरीं और सरकार के भारी दमन का सामना किया। अब तो आपातकाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भूमिगत संघर्ष में शामिल होने के किस्से भी सामने आने लगे हैं। संघ के लोगों के दावों को सच मान लें तो आपातकाल के विरुद्ध मुख्य रूप से केवल संघ, जनसंघ के लोग ही लड़ रहे थे और जेलों में भी सबसे ज्यादा उनके ही लोग भरे थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साप्ताहिक मुखपत्र, ‘ऑर्गनाइजर’ की वेबसाइट पर 25 जून, 2019 को तथा ‘पांचजन्य’ के वेबसाइट पर 1 जुलाई, 2020 को लिखे लेखों में दावा किया किया गया कि तत्कालीन सरसंघचालक बाला साहब देवरस से लेकर एक छोटे से कस्बे के अंतिम स्वयंसेवक तक ने आपातकाल के दौरान फासीवादी शासन के खिलाफ लड़ने की कसम खाई थी।

इस दावे के अनुसार लोक संघर्ष समिति के आह्वान पर आपातकाल के खिलाफ संघर्ष-सत्याग्रह में भाग लेने पर संघ के एक लाख से अधिक स्वयंसेवक कैद किए गए थे। आपातकाल के दौरान गिरफ्तार एक लाख 40 हजार सत्याग्रहियों में से एक लाख से अधिक और मीसा के तहत गिरफ्तार किए गए 30,000 लोगों में से, 25,000 से अधिक संघ के ही स्वयंसेवक-प्रचारक थे। आपातकाल के दौरान संघ के 100 से अधिक कार्यकर्ताओं की मृत्यु जेल में और बाहर भी हुई। एक जुलाई, 2020 को ‘पांचजन्य’ में संघ के पत्रकार नरेंद्र सहगल ने लिखा, “उस समय देश में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ही एकमात्र ऐसी संगठित शक्ति थी, जो इंदिरा गांधी की तानाशाही के साथ टक्कर लेकर उसे धूल चटा सकती थी। इस संभावित प्रतिकार के मद्देनजर इंदिरा गांधी ने संघ पर प्रतिबंध लगा दिया। मात्र दिखावे के लिए और भी छोटी-मोटी 21 संस्थाओं को भी प्रतिबंधित किया गया।

किसी की ओर से विरोध का एक भी स्वर न उठने से उत्साहित इंदिरा गांधी ने सभी प्रांतों के पुलिस अधिकारियों को संघ के कार्यकर्ताओं की धर पकड़ तेज करने के आदेश दे दिए। संघ के भूमिगत नेतृत्व ने उस चुनौती को स्वीकार करके समस्त भारतीयों के लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा करने का बीड़ा उठाया और एक राष्ट्रव्यापी अहिंसक आंदोलन के प्रयास में जुट गए। थोड़े ही दिनों में देशभर की सभी शाखाओं के तार भूमिगत केंद्रीय नेतृत्व के साथ जुड़ गए। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के भूमिगत नेतृत्व (संघचालक, कार्यवाह, प्रचारक) एवं संघ के विभिन्न आनुषंगिक संगठनों, जनसंघ, विद्यार्थी परिषद, विश्व हिन्दू परिषद एवं भारतीय मजदूर संघ इत्यादि लगभग 30 संगठनों ने भी इस आंदोलन को सफल बनाने के लिए अपनी ताकत झोंक दी।

संघ के भूमिगत नेतृत्व ने गैर-कांग्रेसी राजनीतिक दलों, निष्पक्ष बुद्धिजीवियों एवं विभिन्न विचार के लोगों को भी एक मंच पर एकत्र किया। सबसे बड़ी शक्ति होने पर भी संघ ने नाम और प्रसिद्धि से दूर रहते हुए यह आंदोलन लोकनायक जय प्रकाश नारायण द्वारा घोषित ‘लोक संघर्ष समिति’ तथा ‘छात्र युवा संघर्ष समिति’ के नाम से ही चलाया। संगठनात्मक बैठकें, जन जागरण हेतु साहित्य का प्रकाशन और वितरण, संपर्क की योजना, सत्याग्रहियों की तैयारी, सत्याग्रह का स्थान, प्रत्यक्ष सत्याग्रह, जेल में गए कार्यकर्ताओं के परिवारों की चिंता/सहयोग, प्रशासन और पुलिस की रणनीति की टोह लेने के लिए स्वयंसेवकों का गुप्तचर विभाग आदि अनेक कामों में संघ के भूमिगत नेतृत्व ने अपने संगठन कौशल का परिचय दिया।

इस आंदोलन में भाग लेकर जेल जाने वाले सत्याग्रही स्वयंसेवकों की संख्या 1,50,000 से ज्यादा थी। पूरे भारत में संघ के प्रचारकों की संख्या उस समय 1,356 थी, इनमें से मात्र 189 को ही पुलिस पकड़ सकी, शेष भूमिगत रहकर आंदोलन का संचालन करते रहे। विदेशों में ‘भारतीय स्वयंसेवक संघ’ तथा ‘फ्रेंड्स ऑफ इंडिया सोसायटी’ के नाम से विचार गोष्ठियों तथा साहित्य वितरण जैसे अनेक काम किए गये।’’

सहगल के तथ्यों पर सहज विश्वास कर पाना मुशकिल लगता है। उन्होंने इस लेख में कुछ ऐसी बातें भी लिखीं जिनकी प्रामाणिकता कतई संदिग्ध है। वह लिखते हैं, ‘‘जब देश और विदेश में संघ की अनवरत तपस्या से आपातकालीन सरकारी जुल्मों की पोल खुलनी शुरू हुई और इंदिरा गांधी का सिंहासन डोलने लगा तब चारों ओर से पराजित इंदिरा गांधी ने संघ के भूमिगत एवं जेलों में बंद नेतृत्व के साथ एक प्रकार की राजनीतिक सौदेबाजी करने का विफल प्रयास किया था।

सत्ता पक्ष की ओर से कहा गया था कि संघ से प्रतिबंध हटाकर इसके सभी प्रचारकों-स्वयंसेवकों को जेलों से मुक्त किया जा सकता है, बशर्ते यदि संघ इस आंदोलन से अलग हो जाए। लेकिन संघ ने आपातकाल हटाकर लोकतंत्र की बहाली से कम कुछ भी स्वीकार करने से मना कर दिया था। इंदिरा गांधी के पास स्पष्ट संदेश भेज दिया गया कि देश की जनता के इस आंदोलन का संघ ने समर्थन किया है और हम देशवासियों के साथ विश्वासघात नहीं कर सकते। हमारे लिए देश पहले है, संगठन बाद में। इस उत्तर से इंदिरा गांधी के होश उड़ गए।’’

लेकिन आधिकारिक दस्तावेजों को खंगालने पर इस मामले में तथ्य सहगल के कथन के कतई विपरीत मिलते हैं। जेलों में संघ के लोगों के अधिक होने की बात कुछ हद तक सही हो सकती है। लेकिन उतनी भी नहीं जितनी संघ के नेता, प्रवक्ता और मुखपत्र दावा करते हैं। एमनेस्टी इंटरनेशनल के दावे को सच मानें तो आपातकाल में कुल तकरीबन एक लाख 40 हजार लोग गिरफ्तार कर जेलों में रखे गये थे। इनमें संघ, जनसंघ, सोशलिस्ट पार्टी, लोकदल, संगठन कांग्रेस, अकाली दल, सर्वोदयी, छात्र युवा संघर्ष वाहिनी, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, आनंद मार्ग, जमायते इस्लामी हिंद, नक्सलवादी एवं अन्य प्रतिबंधित संगठनों के लोग, स्वतंत्र पत्रकार, बौद्धिक आदि तमाम तरह के लोग शामिल थे।

सच बात तो यह है कि संघ सहित तमाम प्रतिबंधित संगठनों के लोग देश भर से गिरफ्तार किए गए थे। कुछ ने विरोध प्रदर्शन और सत्याग्रह भी किए थे। सच तो यह है कि आपातकाल के दौरान संघ के सरसंघचालक से लेकर अधिकतर लोग इंदिरा गांधी के साथ सुलह-समझौते के प्रयासों में लगे रहे। इसके लिए श्रीमती गांधी, महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री शंकरराव चव्हाण, अपने भूदान आंदोलन के लिए चर्चित गांधीवादी, सर्वोदयी संत आचार्य विनोबा भावे को कई-कई पत्र लिखे। जेल से बाहर आने के लिए ‘माफीनामे’ भी भरे। 

     दरअसल, आपातकाल और आरएसएस पर प्रतिबंध के बारे में आरएसएस की प्रारंभिक और आधिकारिक प्रतिक्रिया ‘देखो और इंतजार करो’ की थी। संघ के तत्कालीन सरकार्यवाह (महासचिव) माधवराव मुले ने अपनी सतर्क प्रतिक्रिया में कहा था कि संगठन को भंग कर दिया गया है। उसके बाद, जुलाई के अंत में संघ के कुछ प्रमुख पदाधिकारियों-प्रचारकों ने बंबई (अभी मुंबई) में हुई एक महत्वपूर्ण बैठक में निर्णय लिया कि संघ के लोग ‘लोक संघर्ष समिति’ के साथ मिलकर काम करेंगे। लोक संघर्ष समिति के साथ संघ के समन्वय का कार्य चार क्षेत्रीय प्रचारकों-यादवराव जोशी (दक्षिण), राजेंद्र सिंह (उत्तर), मोरोपंत पिंगले (पश्चिम), और भाऊराव देवरस (पूर्व) द्वारा किया जाएगा। इसके अलावा जनसंघ के संगठन मंत्री रामभाऊ गोडबोले को विपक्ष के नेताओं से तथा एकनाथ रानाडे को सरकार के साथ संपर्क-समन्वय की जिम्मेदारी दी गई।

इस बैठक में संघ के स्वयंसेवकों का मनोबल बनाए रखने के लिए प्रार्थना सभाएं, खेलकूद और सांस्कृतिक कार्यक्रम जैसे सम्मिलन-समागम कार्यक्रमों की व्यवस्था करना, एक भूमिगत प्रिंटिंग प्रेस और भूमिगत साहित्य सामग्री के वितरण के लिए नेटवर्क स्थापित करना, देशव्यापी सत्याग्रह के लिए तैयारी, महत्वपूर्ण गैर-राजनीतिक लोगों के साथ संपर्क कायम करना और लोक संघर्ष समिति की भूमिगत गतिविधियों में शामिल होने के साथ ही आरएसएस, के लिए विदेश में रहने वाले भारतीयों के बीच समर्थन जुटाने की बात तय हुई थी।

लेकिन, संघ के कई आलोचकों का मानना है कि आपातकाल के दौरान आरएसएस, इंदिरा गांधी से लड़ने के बजाय उनसे सुलह-सफाई के लिए ज्यादा उत्सुक था। प्रसिद्ध विधिवेत्ता ए जी नूरानी ने 18 जुलाई, 2018 के अंग्रेजी पाक्षिक ‘फ्रंट लाइन’ में लिखा है, “सच तो यह है कि आपातकाल के दौरान आरएसएस के लोगों ने जेल जाने का विकल्प नहीं चुना। उन्हें प्रतिबंधित संगठन का होने के नाते गिरफ्तार कर जेलों में डाल दिया गया था।”

वरिष्ठ पत्रकार एवं जनसत्ता के संस्थापक संपादक रहे स्व. प्रभाष जोशी के अनुसार, “आपातकाल विरोधी संघर्ष में आरएसएस की सहभागिता को लेकर उस दौर में भी हमेशा एक किस्म का संदेह, उसके साथ कुछ दूरी, विश्वास की कमी का भाव था।” जोशी ने आपातकाल की 25वीं बरसी पर अंग्रेजी साप्ताहिक ‘तहलका’ में लिखा था, “उस समय के आरएसएस प्रमुख बाला साहब देवरस ने इंदिरा गांधी के 20-सूत्री और संजय गांधी के पांच सूत्री कार्यक्रमों को लागू करने में सहयोग करने के लिए इंदिरा गांधी को पत्र लिखा था। यहां तक कि आपातकाल के दौरान, आरएसएस और जनसंघ के अनेक लोग माफीनामा देकर जेलों से छूटे थे। आरएसएस ने आपातकाल लागू होने के बाद उसके खिलाफ किसी प्रकार का कोई संघर्ष नहीं किया।” जोशी के अनुसार, “वे बुनियादी तौर पर समझौता परस्त रहे हैं। कभी भी सही मायने में सरकार के खिलाफ संघर्ष करने वालों में नहीं रहे।” 

गुप्तचर ब्यूरो (इंटेलिजेंस ब्यूरो) के पूर्व निदेशक टीवी राजेश्वर ने आपातकाल के उस दौर के बारे में बताया है कि किस तरह से आरएसएस ने इंदिरा गांधी के सम्मुख घुटने टेक दिए थे और इंदिरा गांधी एवं उनके पुत्र संजय गांधी को 20-सूत्री और पांच सूत्री कार्यक्रम पूरी वफादारी के साथ लागू करने में सहयोग की पेशकश की थी।

आपातकाल के समय आईबी के उप प्रमुख तथा सेवानिवृत्ति के बाद उत्तर प्रदेश और सिक्किम के राज्यपाल रहे राजेश्वर ने अपनी पुस्तक ‘इंडिया: द क्रुशियल इयर्स’ में इस तथ्य की पुष्टि की है कि “आरएसएस न केवल आपातकाल का समर्थन कर रहा था, उसका नेतृत्व श्रीमती गांधी के अलावा संजय गांधी के साथ भी किसी तरह से संपर्क स्थापित करना चाहता था।” राजेश्वर ने बाद में अंग्रेजी के वरिष्ठ पत्रकार, करण थापर के साथ एक मुलाकात में खुलासा किया कि देवरस ने “गोपनीय तरीके से प्रधानमंत्री आवास के साथ संपर्क बनाया और देश में अनुशासन लागू करने के लिए सरकार ने जो सख्त कदम उठाए थे, उनमें से कई का मजबूती के साथ समर्थन किया था। वह श्रीमती गांधी और संजय से मिलने के इच्छुक थे। लेकिन श्रीमती गांधी ने मना कर दिया।” 

देवरस ने इंदिरा गांधी को लिखे तीन याचना पत्र

आपातकाल के दौरान आरएसएस की भूमिका पर लगे आरोपों और विवादों और खासतौर से 2015 के टी वी राजेश्वर के साक्षात्कार के बाद, आरएसएस ने अपने मुखपत्र, ‘ऑर्गनाइजर’ में एक स्पष्टीकरण प्रकाशित कर कहा, “कांग्रेस सरकार के तहत विभिन्न राज्यों में राज्यपाल के रूप में कार्य कर चुके खुफिया ब्यूरो (आईबी) के पूर्व उप प्रमुख टीवी राजेश्वर के इस दावे के बाद कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने आपातकाल के दौरान उठाए गए सरकार के कई कदमों का समर्थन किया था, एक शक्तिशाली प्रचार मशीनरी इस मुद्दे पर संघ को घेरने और कोसने में लग गई है।

यह स्थापित किया जा रहा है कि आरएसएस के तत्कालीन सरसंघचालक बाला साहब देवरस ने तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी से संपर्क करने की कोशिश और क्षमा की भीख मांगी थी।” आरएसएस ने कहा कि बालासाहेब देवरस ने 22 अगस्त, 1975 और 16 जुलाई, 1976 को इंदिरा गांधी को दो पत्र लिखे, जिसमें प्रधानमंत्री को संघ की कार्यशैली और प्रकृति के बारे में बताया गया था। इन दोनों पत्रों की प्रति देवरस की पुस्तक ‘हिन्दू संगठन और सत्तावादी राजनीति’ में भी प्रकाशित की गई है। पता नहीं क्यों देवरस ने अपनी पुस्तक में तथा ऑर्गनाइजर ने भी श्रीमती गांधी को लिखे उनके तीसरे, 10 नवंबर, 1975 के पत्र को गोल कर दिया। ऑर्गनाइजर ने इंदिरा गांधी को लिखे देवरस के पत्र से उद्धृत करते हुए लिखा, “हालांकि संघ का काम वर्तमान में केवल हिंदू समाज तक ही सीमित है, यह किसी भी गैर-हिंदू के खिलाफ कुछ भी नहीं कहता। यह कहना पूरी तरह से गलत है कि संघ मुसलमानों से नफरत सिखाता है।”

एक अन्य पत्र में, ऑर्गनाइजर के अनुसार देवरस ने इंदिरा गांधी को याद दिलाया कि अपने विदेशी दौरों में उन्होंने विभिन्न राजनीतिक विचारधाराओं और सामाजिक व्यवस्थाओं के बीच एकता की अपील की थी। देवरस ने श्रीमती गांधी से देश में भी उन बातों पर अमल करने की अपील की जिसका प्रचार वह विदेश में करती हैं।

ऑर्गनाइजर में प्रकाशित अपने इस स्पष्टीकरण में आरएसएस ने यह दावा भी किया कि उसने इंदिरा गांधी द्वारा संघ की सरकार को सेवाओं के बदले आरएसएस पर प्रतिबंध हटाने के प्रस्ताव को ठुकरा दिया था। हालांकि, सार्वजनिक डोमेन में इसे साबित करने के लिए एक भी तथ्य नहीं मिलता है कि इंदिरा गांधी ने अथवा उनकी सरकार के किसी बड़े और जिम्मेदार व्यक्ति ने देवरस के पत्रों का कोई जवाब भी दिया था या उन्हें इस तरह का कोई प्रस्ताव ही दिया था। इसके उलट देवरस एवं संघ के अन्य नेताओं के पत्र, जेलों में ‘माफीनामा’ भरकर संघ, जनसंघ के लोगों की रिहाई के किस्से अलग ही कहानी कहते हैं। 

सच तो यह है कि बंबई में हुई बैठक के उद्देश्यों में अपेक्षित सफलता नहीं मिलते देख और खासतौर से नानाजी देशमुख, दत्तोपंत ठेंगड़ी एवं कुछ अन्य बड़े भूमिगत नेताओं के गिरफ्तार हो जाने के बाद संघ का नेतृत्व कमजोर पड़ने लगा। जेलों में बंद इसके प्रचारकों, स्वयंसेवकों और समर्थकों की ओर से जेल से बाहर आने का दबाव भी बढ़ने लगा था। ऐसे समय में ही संघ के सरसंघचालक बाला साहब देवरस ने महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री शंकरराव चव्हाण, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और आपातकाल को ‘अनुशासन पर्व’ बताने वाले सर्वोदयी, आचार्य विनोबा भावे को कई पत्र लिखे। इन पत्रों के अवलोकन से भी स्थिति स्पष्ट हो सकती है। 

   देवरस के पत्र या माफीनामा ! 

आपातकाल लगने के दो महीने के भीतर 22 अगस्त, 1975 को श्रीमती गांधी को लिखे अपने पहले पत्र के पहले पैराग्राफ में ही देवरस ने लिखा, “मैंने 15 अगस्त, 1975 को लाल किले की प्राचीर से दिए गये आपके भाषण को यहां जेल में आल इंडिया रेडियो पर सुना। आपका भाषण बहुत संतुलित और उपयुक्त था जिसने मुझे यह पत्र आपको लिखने के लिए प्रेरित किया।” “आरएसएस का उद्देश्य हिंदू समाज को एकजुट और संगठित करना है।

ऐसे बहुतेरे लोग हैं जो आरएसएस पर सांप्रदायिक संगठन होने के आधारहीन आरोप लगाते हैं। हालांकि वर्तमान में संघ की गतिविधियां हिंदू समाज तक ही सीमित हैं, लेकिन संघ कभी भी गैर हिंदुओं के विरुद्ध नहीं बोलता। यह कहना बिल्कुल गलत है कि संघ मुस्लिम विरोधी है। हम इस्लाम, मोहम्मद, कुरान, ईसाइयत, क्राइस्ट या बाइबल के बारे में भी कभी अनुचित शब्दों का उपयोग नहीं करते हैं।” देवरस के इस पत्र का समापन पैरा देखें, “मैं आपसे अनुरोध करता हूं कि कृपया बिना किसी पूर्वाग्रह के संघ के मामले पर पुनर्विचार करें। संगठित होने की स्वतंत्रता के लोकतांत्रिक अधिकार के तहत मैं आपसे आरएसएस पर लगाए गए प्रतिबंध को हटाने का अनुरोध करता हूं।” 

इंदिरा गांधी के यहां से कोई जवाब नहीं मिलने पर देवरस ने 10 नवंबर, 1975 को उन्हें एक और पत्र लिखा। इस पत्र की शुरुआत उन्होंने सुप्रीम कोर्ट द्वारा इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ श्रीमती गांधी के पक्ष में दिए गए निर्णय के लिए बधाई देने के साथ की। उन्होंने इस पत्र में लिखा, “सुप्रीम कोर्ट के सभी पांच न्यायाधीशों ने आपके चुनाव को संवैधानिक घोषित कर दिया है, इसके लिए हार्दिक बधाई।” उन्होंने अपने इस पत्र में यहां तक कह दिया कि “आरएसएस का नाम जय प्रकाश नारायण के आंदोलन के साथ ही अकारण ही गुजरात आंदोलन और बिहार आंदोलन के साथ भी जोड़ दिया गया है…संघ का इन आंदोलनों से कोई संबंध नहीं है।” देवरस के इन दोनों पत्रों पर इंदिरा गांधी के खास तवज्जो नहीं देने पर उन्होंने आचार्य विनोबा भावे के साथ संपर्क साधा। उन्हें भी दो पत्र लिखे। अपने 12 जनवरी, 1976 के पहले पत्र में, उन्होंने आचार्य भावे से आग्रह किया कि आरएसएस पर प्रतिबंध हटाए जाने के लिए वे इंदिरा गांधी को सुझाव दें।

विनोबा भावे ने भी पत्र का जवाब नहीं दिया, तो हताश देवरस ने उन्हें एक और पत्र लिखा जिस पर कोई तिथि अंकित नहीं है। उन्होंने लिखा, “अखबारों में छपी सूचनाओं के अनुसार प्रधानमंत्री (इंदिरा गांधी) 24 जनवरी को वर्धा पवनार आश्रम में आपसे मिलने आ रही हैं। उस समय देश की वर्तमान परिस्थिति के बारे में उनकी आपके साथ चर्चा होगी। मेरी आपसे याचना है कि प्रधानमंत्री के मन में आरएसएस के बारे में जो गलत धारणा घर कर गई है, आप कृपया उसे हटाने की कोशिश करें ताकि आरएसएस पर लगा प्रतिबंध हटाया जा सके और जेलों में बंद आरएसएस के लोग रिहा होकर प्रधानमंत्री के नेतृत्व में देश की प्रगति और विकास में अपना योगदान कर सकें।” 

(आपातकाल में जयशंकर गुप्त खुद अपने समाजवादी पिता विष्णुदेव के साथ लंबे समय तक आज़मगढ़ की जेल में कैद थे।)

शेष अगले भाग में…..

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