रूहानी आवाज़ से दिलों पर हुकूमत करने वाले पाकिस्तानी क़व्वाल नुसरत फतेह अली ख़ान अपने फ़न से अमर हैं। 13 अक्तूबर 1948 को जन्मे नुसरत फतेह अली खान, सूफ़ी कलाम, ग़ज़ल, नात, हम्द वगैरा को अपने अनूठे अंदाज़ में पेश करते थे, जो सुनने वालों के दिलों पर गहरा असर छोड़ती थी। उनकी आवाज़ में एक खास कशिश थी, जो सीधे दिलों को छू जाती थी।
16 अगस्त 1997 को उनका इन्तकाल हुआ, लेकिन उनकी क़व्वालियां आज भी दुनिया भर में सुनी जाती हैं। उनकी आवाज़ और संगीत का जादू लोगों के दिलों पर आज भी कायम है। पाकिस्तान से होने के बावजूद, भारत में भी उन्हें बहुत मोहब्बत मिली। उन्हें शहंशाह-ए-क़व्वाल भी कहा जाता है। उनकी सबसे मशहूर कव्वालियों में से एक “मेरे रश्क-ए-क़मर तूने पहली नज़र जब नज़र से मिलाई मज़ा आ गया” है, जो कि पूरी दुनिया में सुनी जाती है। आज भी कई फनकार इस क़व्वाली को अपने-अपने अंदाज़ में पेश करते हैं, मगर इसकी बुनियाद नुसरत साहब ही है।
नुसरत फतेह अली खान की कव्वालियों का असर न सिर्फ़ सूफ़ी संगीत पर, बल्कि बॉलीवुड पर भी गहरा पड़ा है। उनके ज़माने से लेकर आज तक उनकी कव्वालियों को फ़िल्मों में अपनाया जाता रहा है और उनकी आवाज़ का जादू आज भी बरकरार है। उनकी कव्वालियाँ कई फ़िल्मों में रीमिक्स और रीक्रिएट की गई हैं।
नुसरत फ़तेह अली ख़ान ने अपनी कव्वाली उर्दू, हिंदी, पंजाबी और फ़ारसी ज़बान में पेश की, जिसे सभी लोगों ने पसंद किया। लेकिन फ़ना बुलंदशहरी के कलाम पर नुसरत साहब की खास नज़र रही, जिन्होंने उन्हें अपने रंग में पेश किया। फ़ना बुलंदशहरी के अश’आर को नुसरत फ़तेह अली ख़ान ने नुदरत बख़्शी या फ़िर यह भी कहा जा सकता है कि फ़ना बुलंदशहरी के कलाम ने नुसरत साहब के अंदाज़ को नुदरत बख्शी। भारत और पाकिस्तान के नौजवान और हर उस जगह के लोग, जहां उर्दू बोली या सुनी जाती है, उनकी ज़बान पर नुसरत का रंग और फ़ना बुलंदशहरी के अल्फ़ाज़ होते हैं।
फ़ना उत्तर प्रदेश के शहर बुलंदशहर में पैदा हुए। बचपन ही से उनमें शेर कहने की खुदादाद सलाहियतें थीं लेकिन कलाम की इस्लाह और गलतियों को दूर करने के लिए उन्हें एक उस्ताद की तलाश थी उन्होंने क़मर जलालवी की शागिर्दी इख्तियार की। उनका हक़ीक़ी नाम हनीफ़ मुहम्मद था। तरीकत से मुतासिर होकर फ़ना ने अपनी शाइरी को मआरफत से आरास्ता किया।
फ़ना बुलंदशहरी का कलाम “आंख उठी मुहब्बत ने अंगडाई ली” को सबसे पहले मशहूर सूफी गायक नुसरत फ़तेह अली खान ने 1988 में पढ़ा था। इसी दरमियान नुसरत फ़तेह अली खान ने फ़ना बुलंदशहरी की ग़ज़ल “मेरे रश्क-ए-कमर” भी पढ़ा था और यह दोनो क़व्वाली हाल ही में फिर से रीक्रिएट हुई हैं आज तक कई गायकों ने फ़ना की गज़लों को पढ़ कर नाम, इज्ज़त, दौलत और शोहरत कमाई है। मगर किसी ने भी फ़ना के बारे में कुछ ख़ास नही लिखा। फ़ना 1945-48 के दरमियान पाकिस्तान चले गए। फ़ना ने अपनी ज़िंदगी दरवेशाना और फकीराना बसर की। 1 नवंबर 1989 को सऊदी अरब में इंतकाल हुआ और 3 नवंबर 1989 को पाकिस्तान के पंजाब में दफ्न हुए।
उनके कुछ कलाम जो उस्ताद नुसरत फतेह अली खान ने में पेश किए।
“आँख उट्ठी मोहब्बत ने अंगड़ाई ली दिल का सौदा हुआ चाँदनी रात में
उन की नज़रों ने कुछ ऐसा जादू किया लुट गए हम तो पहली मुलाक़ात में”
“मेरे रश्क-ए-क़मर तू ने पहली नज़र जब नज़र से मिलाई मज़ा आ गया
बर्क़ सी गिर गई काम ही कर गई आग ऐसी लगाई मज़ा आ गया”
“है कहाँ का इरादा तुम्हारा सनम किस के दिल को अदाओं से बहलाओगे
सच बताओ के इस चाँदनी रात में किस से वा’दा किया है कहाँ जाओगे”
“आप बैठे हैं बालीं पे मेरी मौत का ज़ोर चलता नहीं है
मौत मुझ को गवारा है लेकिन क्या करूँ दम निकलता नहीं है”
“उल्फत का निशां दिल से मिटाया नहीं जाता
उस भूलने वाले को भुलाया नहीं जाता”
“ऐ ख़त्म-ए-रुसुल मक्की मदनी कौनैन में तुम सा कोई नहीं
ऐ नूर-ए-मुजस्सम तेरे सिवा महबूब-ए-ख़ुदा का कोई नहीं”
“ख़्वाजा-ए-ख़्वाजगाँ हामी-ए-बे-कसाँ इल्तिजा सुन लो शाह-ए-उमम के लिए
कर दो कर दो करम मुर्शिद-ए-मोहतरम तुम को भेजा गया है करम के लिए”
(साहिल फारूकी अमरोहवी का लेख)
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