गेंदे की खुशबू में घुला डर: बैरवन की मिट्टी पर संकट, बेघर होने के खौफ में जी रहे हजारों-ग्राउंड रिपोर्ट

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उत्तर प्रदेश के बनारस से महज बारह किलोमीटर दूर बसे बैरवन गांव के लोगों की आंखों में अब सिर्फ चिंता के बादल उमड़ते हैं। एक गांव, जो अपनी मेहनत, मिट्टी और खुशबू से नेपाल, पाकिस्तान और बांग्लादेश तक अपनी पहचान बना चुका था, आज खुद अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है।

कभी सरकार ने ट्रांसपोर्ट नगर के नाम पर जमीन कब्जाने की कोशिश की, जब वह सफल नहीं हुई तो आवासीय योजना बना दी गई। लेकिन गांव वालों के लिए यह सिर्फ सरकारी योजनाओं का बदलाव नहीं, बल्कि उनके घर-आंगन को उजड़ते देखने का दर्द है।

गेंदे की नर्सरी से अपनी रोज़ी-रोटी चलाने वाले इन किसानों के लिए अब यह सवाल बन चुका है-“क्या हम अपने घरों में रह पाएंगे?” सरकार की लैंड पुलिंग स्कीम के तहत उनकी जमीनों पर कब्जे की योजना बनाई जा रही है, और इस स्थिति से गांव के करीब छह हजार लोग भयभीत हैं। यह डर, बेघर होने का है, वह अनजाना डर है, जो उनके दिलों में हर पल गहरे जड़ें जमा चुका है।

खेतों में लहलहाते फूल

बैरवन गांव सिर्फ एक जगह नहीं, एक परंपरा है। दशकों पहले इस गांव में बेर के बगीचे थे, जिनसे इसका नाम बैरवन पड़ा। अब वह बगीचे तो नहीं रहे, लेकिन यहां के किसान मिट्टी से रिश्ता नहीं तोड़ पाए। खेतों में गेंदे की फसल लहलहाती रही, और उसकी खुशबू दिल्ली, काठमांडू, कराची, ढाका तक पहुंचती रही। लेकिन अब हवा में एक अजीब-सा डर घुल गया है। यह डर उस अनिश्चित भविष्य का है, जब गांववालों को उनकी जमीन से बेदखल कर दिया जाएगा।

35 वर्षीय संगीता के चेहरे पर चिंता की लकीरें साफ दिखती हैं। दो-चार बिस्वा जमीन पर गेंदे की खेती करके उनके परिवार का गुजारा चलता है। लेकिन अब वह सोचती हैं-अगर यह जमीन चली गई, तो उनके बच्चों का भविष्य कहां जाएगा?

उनकी आवाज में घबराहट है, “हमारी जमीनें छिन गई तो हम कहां जाएंगे? दो-चार बिस्वा जमीन में गेंदे की खेती से हमारे परिवार की गाड़ी चलती है। समझ में यह नहीं आ रहा है कि हम बेघर हो जाएंगे तो कहां जाएंगे। क्या खाएंगे? हमारे बच्चे कहां पढ़ेंगे? उनका भविष्य क्या होगा? हम तो बर्बाद हो जाएंगे।”

माधुरी देवी की हथेलियां हर दिन खेतों की मिट्टी से सराबोर होती हैं। उनके तीन बेटे पढ़ाई कर रहे हैं-बड़ा बेटा इलाहाबाद में एग्रीकल्चर पढ़ रहा है, छोटा बेटा बीएससी नर्सिंग कर रहा है। उनकी पढ़ाई की फीस, किताब, हर जरूरत गेंदे के फूलों से पूरी होती है। लेकिन अब माधुरी की आवाज कांप जाती है। वह कहती हैं, “अगर खेत ही नहीं रहेगा, तो बच्चों को पढ़ाएंगे कैसे? शादी कैसे करेंगे? हमारा परिवार इसी मिट्टी से पेट भरता है, क्या हमसे हमारा हक छीन लिया जाएगा?”

फूल तोड़ती बैरवन गांव की महिला किसान

पूजा देवी का परिवार भी इसी जमीन से अपनी रोजी-रोटी चलाता है। उनके दो छोटे बच्चे स्कूल में पढ़ते हैं। डेढ़ बीघा जमीन ही उनकी दुनिया है, उनकी सुरक्षा है, उनका सहारा है। लेकिन सरकार की योजनाओं ने उनकी नींद छीन ली है। वह दुख से कहती हैं, “पिछले साल डेंगू ने हमारा जीना मुश्किल कर दिया था, अब सरकार हमारी जमीन छीनकर हमें उजाड़ देना चाहती है। आखिर हम कहां जाएं?”

बैरवन के किसानों को सिर्फ उनके परिवार के भरण-पोषण की चिंता नहीं, बल्कि अपनी पहचान और अस्तित्व को बचाने की दलील हैं। बैरवन के किसान, जो जीवनभर अपनी जमीन से जुड़े रहते आए हैं, अब अपनी ज़मीन के बिना जीवन के भयावह अंधकार को महसूस कर रहे हैं।

यह सिर्फ एक भूमि अधिग्रहण का मामला नहीं है, बल्कि उनके जीवन के सारे सपने, उनका संघर्ष, और उनका भविष्य भी इससे जुड़ा हुआ है। आज बैरवन गांव में हर दिन एक नया डर, एक नई चिंता की लकीर खींची जा रही है। गांव के हर घर में यह सवाल उठ रहा है-क्या वे अपने घर में रह पाएंगे या एक दिन उनकी यह मिट्टी उन्हें छोड़ देगी?

बैरवन गांव की पहचान सिर्फ गेंदे के फूलों तक सीमित नहीं है। यह गांव उसकी मिट्टी, उसकी मेहनत और उसके संघर्ष की मिसाल है। लेकिन अब यही पहचान खतरे में है। बैरवन के लोग आज एक अनजाने डर के साए में जी रहे हैं-कहीं उनकी मेहनत, उनका संघर्ष और उनका भविष्य सब कुछ नष्ट न हो जाए।

गेंदे की नर्सरी

बैरवन के किसान अवधेश प्रताप कहते हैं, “हमारी तकलीफ सिर्फ यह नहीं कि हमारी ज़मीन जा रही है, बल्कि यह है कि हमें कोई जवाब नहीं मिल रहा।” सरकार की योजनाएं आती हैं, किसानों की ज़मीनें अधिग्रहण के दायरे में आ जाती हैं, और फिर लोग विस्थापित कर दिए जाते हैं। उनके हिस्से में सिर्फ बेघर होने की पीड़ा आती है।

अवधेश सवाल करते हैं, “क्या यही वह देश है, जहां किसान को अन्नदाता कहा जाता है? अगर अन्नदाता की ज़मीन ही नहीं बचेगी, तो उसकी रोजी-रोटी कहां बचेगी? क्या हमने अपनी मिट्टी से रिश्ता जोड़कर कोई गुनाह कर दिया? हमारे खेतों में गेंदे के फूल आज भी महक रहे हैं, लेकिन यहां के लोगों की सांसों में एक अनजानी घुटन समा गई है। उनकी आंखों में अब सिर्फ एक ही सवाल है-हमारा गांव बचेगा या नहीं?”

देश-विदेश में बजता है डंका

बैरवन के लोग सिर्फ गेंदे की नर्सरी नहीं लगाते, बल्कि पूरे देश को इसकी खुशबू से सराबोर करते हैं। यहां की मिट्टी गेंदे की खेती के लिए किसी वरदान से कम नहीं। हर किसान की सांसों में इस मिट्टी की महक बसी है, और उनके सपनों में इन फूलों की रंगत। हजारा गेंदे की खेती ने कभी इस गांव के किसानों को समृद्धि दी थी, लेकिन अब हर बीतते साल के साथ उनकी चिंताएं भी बढ़ती जा रही हैं।

फूलों से गमकता बैरवन

बैरवन के करीब आठ सौ किसान अपनी मेहनत से नर्सरी तैयार करते हैं और उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, हरियाणा, दिल्ली से लेकर नेपाल के काठमांडू और पाकिस्तान के कराची तक गेंदे के पौधे भेजते हैं। सिर्फ पौधे ही नहीं, बल्कि हजारा गेंदे की मालाएं मंदिरों, गुरुद्वारों, मस्जिदों और शादियों तक की रौनक बढ़ाती हैं।

यहां गेंदे की गनैलिया, जाफरी, कलकतिया, चेरी, गुलदावरी और पंचरंगिया जैसी तमाम किस्मों के पौधे तैयार किए जाते हैं। हर किसान की उंगलियां इन नन्हे पौधों की परवरिश में इतनी बारीकी से लगी होती हैं, मानो अपने बच्चों की देखभाल कर रहे हों।

लेकिन बीते कुछ सालों में मौसम की मार ने इन किसानों की कमर तोड़ दी है। बैरवन के किसान बताते हैं कि इस बार भीषण पाले ने गेंदे की फसल को बर्बाद कर दिया, जबकि पिछले साल बारिश ने खेतों को तबाह कर दिया था। हर बार किसी न किसी आपदा का सामना करना पड़ता है, फिर भी इन किसानों की उम्मीदें जिंदा हैं।

क्योंकि यही खेती उनके बच्चों की पढ़ाई का सहारा है, बेटियों की शादी की गारंटी है, और पूरे परिवार की रोटी का जरिया भी। सिर्फ मौसम की मार ही नहीं, सरकारी योजनाओं की तलवार भी उनके सिर पर लटक रही है। अगर उनकी जमीनें छिन गईं, तो ये किसान न तो गेंदे के फूल उगा पाएंगे और न ही अपने सपनों को सींच पाएंगे।

बैरवन के लोग सवाल करते हैं कि क्या सरकार उनके दर्द को समझेगी? क्या कोई उनकी मेहनत की कद्र करेगा? या फिर ये गांव सिर्फ बीते हुए समय की एक कहानी बनकर रह जाएगा? बैरवन के किसानों की आंखों में हर सवाल के जवाब की तलाश है, लेकिन जवाब देने वाला कोई नहीं।

बैरवन सिर्फ एक गांव नहीं, संघर्ष, मेहनत और हौसले की मिसाल है। यहां के किसानों की मिट्टी से खेलने की कारीगरी ने इस गांव को देश-दुनिया में पहचान दिलाई है। गेंदे के फूलों की खेती और नर्सरी लगाने में यह गांव नंबर एक है। यहां के किसान सिर्फ पौधे ही नहीं उगाते, बल्कि फूलों के साथ अपनी तकदीर भी सींचते हैं। यही वजह है कि नेपाल, बांग्लादेश और पाकिस्तान तक बैरवन के गेंदे की मांग बनी रहती है।

कहां जाएंगे बैरवन के किसान?

बैरवन के सीमांत किसान, जिनके पास दो-चार बिस्वा जमीन बची है, उनका जीवन इसी गेंदे की खेती पर टिका है। यही उनकी रोटी है, यही उनकी पहचान है। लेकिन अब यह पहचान खतरे में है। वाराणसी विकास प्राधिकरण (वीडीए) ने लैंड पुलिंग स्कीम के तहत इस पूरे गांव की जमीन को ट्रांसपोर्ट नगर योजना के लिए लेने की योजना बनाई है। ट्रांसपोर्ट नगर के लिए 82.159 हेक्टेयर जमीन की जरूरत है, जिसमें सबसे बड़ा हिस्सा बैरवन के किसानों की जमीन का ही है।

खेतों में लहलहाती गेंदे की फसल

यहां के कुछ किसानों को सरकार ने मुआवजा देकर अलग कर लिया, लेकिन चार सौ से ज्यादा किसान अभी भी अपनी लड़ाई लड़ रहे हैं। वे अपनी पुश्तैनी जमीन नहीं छोड़ना चाहते। वे सरकार से पूछ रहे हैं-हमारा कसूर क्या है? जो हाथ फूल उगाते हैं, उन्हें बेघर करना ही विकास है? क्या बैरवन के किसान सिर्फ इतिहास बनकर रह जाएंगे?

बैरवन सिर्फ एक गांव की नहीं, उन लाखों किसानों की कहानी है, जिनकी मेहनत से यह देश महकता है। बैरवन के फूलों की खुशबू तो सीमाओं को पार कर जाती है, पर क्या इस गांव की तकलीफें भी कोई सुनेगा?

72 वर्षीय बदल पटेल, जो पौने चार बीघे की जमीन पर गेंदे की नर्सरी लगाते हैं, अपने 22 लोगों के परिवार को इसी जमीन से पालते हैं। उनके चेहरे की झुर्रियां संघर्ष की कहानी कहती हैं। वह गुस्से और दर्द से कहते हैं, “अगर यह जमीन चली गई तो हम भी खत्म हो जाएंगे। सरकार को पैसा चाहिए तो हम जान दे देंगे, लेकिन जमीन नहीं छोड़ेंगे।”

सेना से हवलदार पद से रिटायर प्रधान लाल बिहारी पटेल भी इस फैसले के खिलाफ आवाज़ बुलंद कर रहे हैं, “हम सब मोदी जी के कट्टर समर्थक हैं, फिर भी हमारी जमीन छीनी जा रही है! बैरवन का हर किसान भाजपा को वोट देता आया है, लेकिन आज हमें ही उजाड़ा जा रहा है। अगर यह अन्याय नहीं तो और क्या है?”

बैरवन का हर किसान जानता है कि यह कोई साधारण जमीन नहीं है, यह उनके बच्चों के सपनों की बुनियाद है। इस मिट्टी से उन्हें वह पहचान मिली है, जो किसी भी सरकारी योजना से नहीं मिल सकती थी।

बैरवन के किसान विनय कुमार पटेल कहते हैं, “यहां एक एकड़ खेत में गेंदे के फूल तैयार करने में 30,000 रुपये की लागत आती है, लेकिन अगर बाजार अच्छा मिले तो किसान डेढ़ लाख रुपये तक कमा सकते हैं। त्योहारों और शादियों के मौसम में इन फूलों की मांग बढ़ जाती है, जिससे हमारी कमाई और बेहतर होती है।”

हर बार उजड़ता, हर बार बसता

जीटी रोड के किनारे बसे बैरवन गांव का दर्द भी अजीब है। इस गांव की तकदीर में बार-बार उजड़ना और फिर से बसना ही लिखा गया है। बीचों-बीच से गुजरती रेलवे लाइन इस गांव का सीना चीरती है, जैसे इसकी बर्बादी की कहानी हर गुजरती ट्रेन के शोर के साथ दोहराई जाती हो।

पहले अंग्रेजी हुकूमत के डंडे के खौफ से किसानों की जमीनें छीन ली गईं और लोग खामोश रह गए। फिर 1994 में जब एनएच-2 हाईवे बना, तो किसानों की 14 एकड़ जमीन जबरन हथिया ली गई। इसके बाद जीटी रोड के विस्तार के नाम पर फिर से बैरवन पर ही अधिग्रहण की गाज गिरी। जब नहर बनी, तब भी इस गांव के किसानों को अपनी जमीनें कुर्बान करनी पड़ीं।

बैरवन के किसान बार-बार उजड़ते रहे, लेकिन फिर भी मिट्टी से उनका रिश्ता टूटा नहीं। अब बची-खुची जमीन भी खतरे में है। वाराणसी विकास प्राधिकरण (वीडीए) ट्रांसपोर्ट नगर योजना के नाम पर इस गांव को फिर से उजाड़ने की तैयारी कर रहा है।

इस बार जितनी जमीनों का अधिग्रहण किया जा रहा है, उसका 80 फीसदी हिस्सा बैरवन के किसानों का है। सबसे दर्दनाक बात यह है कि अधिग्रहण के दायरे में सबसे ज्यादा वे सीमांत किसान हैं, जिनके पास मुश्किल से दो-चार बिस्वा जमीन है। सवाल उठता है कि अगर उनकी जमीन भी चली गई, तो वे अपने बच्चों के लिए रोटी कहां से लाएंगे? वे अपना ठौर कहां तलाशेंगे?

बैरवन कोई मामूली गांव नहीं है। यहां के मेहनतकश किसानों ने इस गांव को देश-विदेश तक पहचान दिलाई है। कुछ दशक पहले तक यहां बेर के बगीचे हुआ करते थे, लेकिन फिर किसानों ने अपनी मेहनत से इस गांव को एक नया मुकाम दिया। आज यह गांव देशभर की नर्सरियों में गेंदे के पौधों की खुशबू बिखेरता है। देश-विदेश के पुष्प उत्पादक “बैरवन ब्रांड गेंदा” को पहली पसंद मानते हैं। इस गांव की आर्थिकी गेंदे की खेती पर टिकी है।

इस खुशबूदार गांव पर फिर से एक काली छाया मंडरा रही है। वीडीए की लैंड पुलिंग स्कीम अब बैरवन गांव को पूरी तरह से निगलने की कोशिश कर रही है। करीब दो दशक पहले वीडीए ने ट्रांसपोर्ट नगर बसाने की योजना बनाई थी, जिसके लिए बैरवन, मिल्कीचक, करनाडाड़ी और सरायमोहना के 1194 किसानों की 82.159 हेक्टेयर जमीन चाहिए थी। कुछ बरस पहले 771 किसानों को 34.41 करोड़ का मुआवजा बांट दिया गया, लेकिन अभी भी 413 किसान अपनी जमीन बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं।

बैरवन के किसानों का सवाल वाजिब है-अगर रिंग रोड परियोजना के लिए नई दर से भूमि अर्जित की जा सकती है, तो ट्रांसपोर्ट नगर योजना के लिए क्यों नहीं? किसान चाहते हैं कि नई भूमि अर्जन नीति के तहत चार गुना मुआवजा मिले, ताकि वे कहीं और अपने परिवार के लिए एक छत का इंतजाम कर सकें।

बैरवन, करनाडाड़ी, मोहनसराय और मिल्कीचक के किसान साल 2003 से लगातार धरना, प्रदर्शन और आंदोलन कर रहे हैं। 267 किसानों ने अपनी जमीन बचाने के लिए हाईकोर्ट में रिट संख्या-61219/2011 दायर कर रखी बैरवन के किसान आज अपनी ही जमीन पर बेगाने हो गए हैं।

जिन खेतों में कभी मेहनत की महक थी, वहां अब डर और अनिश्चितता के बादल मंडरा रहे हैं। वर्षों की तपस्या, पीढ़ियों की मेहनत, और हरी-भरी खुशहाली को एक झटके में खत्म करने की तैयारी हो रही है। सरकारी योजनाओं की ठंडी फाइलों में इन किसानों के अरमान सिसक रहे हैं।

बैरवन के किसानों के पास सवाल ही सवाल हैं- हमारी जमीन ही हमसे क्यों छीनी जा रही है? हमारे पूर्वजों ने जिस मिट्टी को जोतकर अपनी रोटी बनाई, उसे सरकार क्यों छीन रही है? हमारा कसूर क्या है? किसानों के आंसू शायद मिट्टी में घुलकर रह जाएं, लेकिन उनके मन का दर्द हर उस इंसान को झकझोर देगा, जो मेहनत का मोल समझता है।

बैरवन के बुजुर्ग रामलाल अपनी कांपती आवाज़ में कहते हैं, “हमने अपनी जवानी इस मिट्टी में खपा दी। इसी ने हमें पाला, हमारा घर-बार बसाया। अब हमें ही इसे छोड़ने को कहा जा रहा है?” यह सिर्फ रामलाल की नहीं, हर किसान की पीड़ा है।

यह वही किसान हैं, जिनकी मेहनत से वाराणसी का यह इलाका गेंदा उत्पादन में एक पहचान बना सका। लेकिन अब वही खेत, वही बगीचे सरकारी योजनाओं की भेंट चढ़ने वाले हैं। सरकार की चुप्पी, प्रशासन की बेरुखी और बढ़ती अनिश्चितता ने पूरे गांव को चिंता में डाल दिया है।

गांव के युवा किसान नीरज कहते हैं, “अगर सरकार को हमारी जमीन चाहिए, तो हमें भी हमारा अधिकार मिलना चाहिए। चार गुना मुआवजा देकर हमें पुनर्वास की सुविधा दी जाए, ताकि हमारी जिंदगी फिर से बस सके।” लेकिन अभी तक प्रशासन पुरानी दर पर ही मुआवजा देने की जिद पर अड़ा है। किसान सवाल कर रहे हैं- जब वाराणसी के रिंग रोड के लिए नई दर से मुआवजा दिया गया, तो बैरवन के साथ यह अन्याय क्यों?

सरकारों के लिए यह सिर्फ एक योजना हो सकती है, लेकिन बैरवन के लिए यह उसके अस्तित्व का सवाल है। अगर यह अन्याय नहीं रुका, तो यह सिर्फ एक गांव की हार नहीं होगी, बल्कि उन तमाम किसानों की हार होगी जो अपनी मेहनत से भारत को खाद्य और फूलों की शक्ति बनाते हैं।

फूलों से ज्यादा झर रहे हैं आंसू

“हम कहां जाएंगे साहब?”-यह सवाल बैरवन के किसानों की आंखों में स्थायी तौर पर बस गया है। कभी अंग्रेजों ने, कभी सरकारों ने, और अब वाराणसी विकास प्राधिकरण (वीडीए) ने इस गांव की मिट्टी को हमेशा के लिए छीनने की ठान ली है। जीटी रोड के किनारे बसे इस गांव की पहचान कभी खेतों में लहलहाते गेंदे के फूलों से थी, लेकिन आज यहां के किसान अनिश्चितता और डर के साये में जी रहे हैं।

पटेल समुदाय के इस गांव में ज्यादातर किसानों के पास छोटे-छोटे भूखंड हैं, जिन पर गेंदे की नर्सरी लगाकर वे अपने परिवार का पेट पालते हैं। बैरवन के पूर्व प्रधान स्व. कृष्ण प्रसाद उर्फ छेदी लाल के पुत्र डॉ. विजय नारायण वर्मा की चार बीघा जमीन है, जिससे उनके परिवार के दस लोगों का भरण-पोषण होता है। उनका दर्द छलक पड़ता है, “हमारे गांव में 90% लोगों के पास सिर्फ दो-तीन बिस्वा जमीन है, जिसमें उनका मकान भी बना है। वीडीए जबरदस्ती कब्जा दिखा रहा है, जबकि हमारी जमीन पर आज भी गेंदे की नर्सरी लहलहा रही है। लेकिन अधिग्रहण की तलवार लटक रही है, जिसकी वजह से शादी-ब्याह ठप हैं, कोई कृषि लोन नहीं मिल रहा, बच्चों की पढ़ाई प्रभावित हो रही है।”

प्रगतिशील किसान डा. विजय वर्मा

डॉ. विजय नारायण वर्मा देश के जाने-माने एथलीट हैं, जिन्होंने कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में भारत का नाम रोशन किया है। लेकिन जब उन्होंने ट्रांसपोर्ट नगर योजना के खिलाफ आवाज उठाई, तो उन्हें 2011 में देशद्रोह और सरकारी कार्य में बाधा डालने के आरोप में मुकदमों का सामना करना पड़ा।

डॉ. वर्मा कहते हैं, “हमारे गांव में वीडीए के अधिकारी आते और जमीनें खाली करने का फरमान सुनाकर लौट जाते हैं। अब कोई चैन से सो भी नहीं पा रहा है। रोहनिया के विधायक भी खामोश हैं और विपक्ष के नेता भी, जो पहले घड़ियाली आंसू बहाने आते थे, अब कहीं दिखाई नहीं दे रहे।”

गेंदे की नर्सरी से अपना गुजर-बसर करने वाले प्रेम कुमार पटले की आवाज लड़खड़ा जाती है, “हम बहुत गरीब हैं साहब…खेती-मजदूरी करके जैसे-तैसे घर चलाते हैं। हमारे दादा-परदादा भी इसी मिट्टी में जिए, लेकिन अब वीडीए हमें उजाड़ने पर तुला है। हमें धमकाया जा रहा है कि जिन्होंने मुआवजा ले लिया है, उनसे बीस साल का किराया वसूला जाएगा। आखिर हम कहां जाएंगे?”

शोभनाथ पटेल के पास सिर्फ एक बीघा जमीन है, जिससे वह अपने 17 लोगों के परिवार का पेट पालते हैं। उनकी आंखों में एक अजीब-सा भय है, “हमारे पास जमीन का यह छोटा सा टुकड़ा ही सबकुछ है। यही घर है, यही रोजगार है, यही पहचान है। सरकार को समझना चाहिए कि हम कोई कारोबारी नहीं हैं जो कहीं और जाकर नई शुरुआत कर लें।”

रमाशंकर पटेल की जमीन पर गेंदे की नर्सरी ही उनके 16 लोगों के परिवार का सहारा है। वो कहते हैं, “सरकार से बस इतनी अपील है कि हमें हमारे ही खेतों में सांस लेने दिया जाए। हमारी जमीन छिन गई तो हम कहीं के नहीं रहेंगे।”

कभी गेंदे की महक से महकने वाला बैरवन अब अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। सरकार के फरमानों ने इन किसानों के चेहरे से मुस्कान छीन ली है। यहां हर किसी के माथे पर चिंता की लकीरें हैं, हर आंख में अनिश्चित भविष्य का डर है। अब सवाल यह है कि क्या बैरवन के इन मेहनतकश किसानों की जमीनें बचेंगी? क्या सरकार इन्हें उनके हाल पर छोड़ देगी, या कोई उम्मीद की किरण बाकी है? इस गांव के लोग अब भी आस लगाए बैठे हैं कि उनकी आवाज कोई सुनेगा, कोई उनकी पीड़ा समझेगा… लेकिन कब? और क्या तब तक बहुत देर हो चुकी होगी?

भूमि अधिग्रहण की कोई स्पष्ट नीति नहीं

बैरवन गांव में फूलों के छोटे-छोटे खेतों में गेंदे खिले हुये हैं। कोई भी खेत एक बीघे का नहीं है। पूछने पर किसान कहते हैं कि हम लोगों के पास डेढ़-दो बीघे से ज्यादा ज़मीन नहीं है। उतने में गेहूं, सरसों, सब्जी भी बोते हैं और थोड़ी सी फूलों की भी खेती कर लेते हैं। इस तरह जीवन चल रहा है।

मोहनसराय इलाके का यह गांव पिछले साल से भय और अनिश्चितता के माहौल में जी रहा है। लोगों के मन में बहुत आक्रोश है। एक साल पहले इसी मई महीने की सोलह तारीख को रेलवे लाइन और अन्य दिशाओं से पुलिस ने गांव में मार्च किया और घरों में घुसकर महिलाओं, बूढ़ों और बच्चों पर डंडे बरसाए। यहां तक की एक घर में जवान बेटे की मौत हो गई थी और गांव की महिलाएं वहां मातम में शामिल थीं लेकिन उनको भी दौड़ाकर पीटा गया।

ढाई दशक पहले से इस इलाके के कई गांवों की ज़मीन पर ट्रांसपोर्ट नगर बसाने की योजना शुरू की गई। उस समय कुछ किसानों ने अपनी ज़मीन देने पर सहमति जताई और मुआवजा ले लिया। लेकिन सैकड़ों किसानों ने न हीं सहमति दी और न मुआवजा लिया। अभी जो गतिरोध पैदा हुआ है उसमें दो बातें ध्यान देने योग्य हैं। जिस समय मुआवजा दिया गया उस समय यहां की ज़मीन की दर एक लाख रुपये प्रति बिस्वा तय की गई थी।

गर्मी के सीजन के लिए तैयार किया जा रहा फूल

यह बात तेईस साल पुरानी है। करीब चौथाई सदी बीत जाने के बावजूद मुआवजा एक लाख रुपये बिस्वा ही है, जबकि खुले बाज़ार में इस इलाके की ज़मीन तीस से साठ लाख रुपये बिस्वा है। स्वाभाविक है कि जिन किसानों की ज़मीनें और घर ले लिए जाएंगे वे मुआवजे की राशि में न ज़मीन खरीद पाएंगे और न ही मकान बना पाएंगे।

दूसरी बात यह कि जिन किसानों ने ज़मीनें नहीं दी उनकी ज़मीन भी वाराणसी विकास प्राधिकरण ने कब्ज़ा करना शुरू किया जिसका विरोध हुआ और बदले में पुलिस ने ग्रामवासियों पर लाठीचार्ज किया। उनके चूल्हे और घरेलू सामान तक तोड़ डाले। यहां तक कि उन्हें लगातार धमकियां दी जाती रही हैं। कई लोगों पर मुकदमे लादे गए हैं। ये किसान चाहते हैं कि उन्हें मौजूदा दर से मुआवजा और पुनर्वास दिया जाए या उन्हें अपने गांव में शांति से रहने दिया जाए।

यह कहानी सिर्फ बैरवन की नहीं, बल्कि उन लाखों किसानों की कहानी है, जिनकी मेहनत से यह देश महकता है। बैरवन के फूलों की खुशबू तो सीमाओं को पार कर जाती है, पर क्या इस गांव की तकलीफें भी कोई सुनेगा? आज बैरवन दोराहे पर खड़ा है।

बैरवन के हर किसान का एक ही सवाल है कि क्या न्याय की रोशनी इस अंधेरे को मिटा सकेगी या फिर एक और मेहनतकश गांव विकास की कीमत चुका कर इतिहास बन जाएगा? अब फैसला सरकार को लेना है, क्या वह किसानों के साथ न्याय करेगी, या फिर उनकी जमीन छीनकर उन्हें अंधेरे में धकेल देगी?

(विजय विनीत वरिष्ठ पत्रकार हैं। बैरवन गांव से उनकी ग्राउंड रिपोर्ट)

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