किस-किसके कंठ से राहुल गांधी और अखिलेश यादव की आवाज निकल रही है?

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दुखद है कि 92 वर्ष की उम्र में डॉ. मनमोहन सिंह का निधन हो गया। देश उनके अवदानों को याद कर रहा है। उन्हें श्रद्धांजलि।

उन्होंने कांग्रेस के शासन-काल में विभिन्न पदों और दायित्वों को सफलतापूर्वक संभाला। इसमें कांग्रेस पार्टी और सोनिया गांधी की क्या भूमिका रही यह सब इतिहास को मालूम है। डॉ. मनमोहन सिंह ने कहा था कि इतिहास उनका मूल्यांकन करेगा। मूल्यांकन की प्रक्रिया भी अद्भुत होती है!

अद्भुत यह कि देश की सत्ता संभाल रही भाजपा की तरफ से बयान दिया जा रहा है कि कांग्रेस ने कभी डॉ. मनमोहन सिंह का सम्मान नहीं किया। इससे अधिक शर्मनाक और इससे भयानक झूठ और क्या हो सकता है। ऐसे बयानों को ध्यान में रखकर किसके बयानों पर कितना भरोसा किया जाये! भरोसा-हीनता के समय में भरोसा!

इन दिनों राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत और साधु संत भेषधारी लोगों के बयानों से खलबली मची हुई है। मोहन भागवत के बयान को लेकर राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ में वैचारिक उथल-पुथल हो रहा है।

भारतीय जनता पार्टी और हिंदुत्व की राजनीति के संगठन के बड़े चेहरे खामोश हैं। सीधे-सीधे कुछ भी कहने से सामान्य रूप से बच रहे हैं।

इस खामोश खलबली के बाहर विभिन्न आक्रामक ‘हिंदू हितैषी’ के बीच बवाल मचा हुआ है। राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ के हितैषी सन्न हैं। भरोसा-हीनता के इस कठिन समय में किसके बयान पर कितना भरोसा किया जाये, कुछ भी कहना मुश्किल है।

असल में, मोहन भागवत का ‘उदारतापूर्वक’ दिया गया बयान उनकी खंडित-दृष्टि और सुविधा की तलाश की दुविधा से निकली है। यह खंडित-दृष्टि राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ की बेचैनी से निकला है। मुसलमानों और वंचितों के संदर्भ में ‘सहृदयता’ सूचक बयान राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ और हिंदुत्व की राजनीति के फैलाये भ्रम-जाल के फटने से निकला है।

इस समय कहा जा सकता है कि इससे राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ और हिंदुत्व की राजनीति के दृष्टि-परिवर्तन और उदारता से कोई लेना-देना नहीं है। तो फिर राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ के बयान का मकसद क्या है! मकसद सिर्फ नये तरीके से नये भ्रम-जाल को फैलाने के अलावा कुछ नहीं है।

रामभद्राचार्य ने सही कहा, राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ के मोहन भागवत एक संगठन के प्रमुख हैं संपूर्ण भारत के हिंदुओं के प्रतिनिधि नहीं हैं।

रामभद्राचार्य और मोहन भागवत में से कोई किसी का अनुशासक नहीं है, सबका अनुशासक संविधान है, देश का कानून है। वह संविधान जो न तो रामभद्राचार्य को अपने अनुकूल लगता है, न राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ को अपने अनुकूल लगता है।

संविधान में समानता का संकल्प संविधान में आत्मा की तरह सन्निहित है। संविधान के प्रति हिंदुत्व की राजनीति के मन में किसी भी तरह के सम्मान के लिए कोई जगह नहीं है। हिंदुत्व की राजनीति से जुड़े लोग इस लोक की चिंता भुलाकर परलोक सुधारने का भ्रम फैलाते रहते हैं।

साधु संत के भेषधारी ‘महा-पुरुषों’ की बात ही क्या गृहमंत्री ने संसद में कह दिया कि जितनी बार आंबेडकर का नाम लेते हैं, उतनी बार भगवान का नाम लेने पर सात जन्मों तक स्वर्ग में जगह मिल जाती।

अब क्या बताया जाये कि मोक्ष के बाद एक बार स्वर्ग में स्थान मिल जाने पर भवसागार पार हो जाता है, जन्म-पुनर्जन्म का सिलसिला बंद हो जाता है। सात जन्मों के स्वर्ग की बात का क्या मतलब है! हर आयोजन में ‘मोदी, मोदी’ की हुंकार भरनेवालों को यही ज्ञान माननीय गृहमंत्री अमित शाह ने कभी दिया है! क्या पता!

मुद्दे की बात यह है कि बाबासाहेब ने इसी लोक में न्याय को सुनिश्चित करने की व्यवस्था की। परलोक की चिंता करनेवाले परंपरावादियों को यह व्यवस्था बिल्कुल पसंद नहीं है।

बहुत ही लापरवाह मिजाज और अपमानजनक तरीके से डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर का नामोल्लेख करने से ऐसा सियासी तूफान उठा कि अब संभाले नहीं संभल रहा है। मुश्किल भरी आशंका यह है कि यह सियासी तूफान वोट जुगाड़ की सारी तरकीब को उलट-पुलट दे सकता है।

मोहन भागवत दीर्घकालिक हिंदू हित की बात सोच रहे हैं। राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ की नजर में दीर्घकालिक ‘हिंदू-हित’ क्या है! दीर्घकालिक ‘हिंदू-हित’ है भारत में सर्वत्र सर्वोच्च सवर्ण-वर्चस्व को दृढ़तापूर्वक कायम रखना। यही लक्ष्य है।

हिंदू-राष्ट्र का तात्विक अर्थ है सवर्ण-राष्ट्र। जाहिर है कि मनुष्य और नागरिकों के बीच सर्वोच्च संभाव्य समानता के रहते यह संभव नहीं है। यह मनुस्मृति को संवैधानिक दर्जा देने या संविधान के रूप में स्वीकार करने से हो सकता था। सो हुआ नहीं, हालांकि हिंदुत्व की राजनीति संविधान के साथ होने से अधिक मनुस्मृति से ही प्रेरणा लेती रही है।

हिंदू-मुसलमान के बीच युद्ध की स्थिति हिंदू एकता के लिए जरूरी होती है। हिंदू एकता का मतलब वर्ण-व्यवस्था की भेद-भाव मूलक पीड़ा को भुलाकर हिंदुत्व की संसदीय राजनीति के पक्ष में ‘मतदान’ के लिए बिना किसी ना-नुकुर के एक-जुट होना।

हिंदू-मुसलमान के बीच स्थाई दुश्मनी की स्थिति में स्थाई ‘हिंदू एक-जुटता’ की स्थिति बनी रहती है। इस बीच वर्ण-व्यवस्था की भेद-भावमूलक पीड़ा की उत्कटता के कारण वोट-प्रदायी ‘हिंदू एक-जुटता’ में दरार पड़ने लगी है।

वोट-प्रदायी ‘हिंदू एक-जुटता’ में दरार के पीछे अखिलेश यादव की पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक (PDA) और राहुल गांधी का लगातार उठाई जा रही जातिवार जनगणना की मांग सक्रिय रही है और अब तो बाबासाहेब के अपमान ने दरार को चौड़ा कर दिया है।

मुसलमानों और दलितों पर अत्याचार की लगातार हो रही घटनाओं के चलते मुसलमानों और गैर-सवर्ण हिंदू जातियों में राजनीतिक एक-जुटता के विकसित हो जाने की संभावना से सर्वोच्च सवर्ण वर्चस्व की ओर हिंदुत्व की राजनीति के बढ़ते हुए कदम में मजबूत बेड़ी पर सकती है।

इसी चिंता में दूर की सोचते हुए राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत ने मुसलमानों और गैर-सवर्णों के प्रति मुलायम बनने की राजनीति की संभावनाओं को पहचान लिया है।

मोहन भागवत की राजनीतिक दृष्टि में उनकी इस मुलायमियत की नीति से मुसलमानों और गैर-सवर्णों की राजनीतिक एक-जुटता की ताकत और दोस्ती की विश्वसनीयता को कमजोर किया जा सकता है।

ऐसा नहीं हुआ और विपक्ष की राजनीति मुसलमानों और गैर-सवर्णों में राजनीतिक समझदारी को विकसित करने और उनकी दोस्ती में विश्वसनीयता बढ़ाने में लगी हुई है।    

नरेंद्र मोदी अपने तात्कालिक सत्ता हित की बात सोच रहे हैं। नरेंद्र मोदी का विश्वास सरकार के माध्यम से शांतिपूर्ण प्रगति के कर्म में नहीं है बल्कि राजनीतिक कोलाहल और कलह फैलाकर सत्ता साधने में है।

वे जो येन-केन-प्रकारेण सत्ता में बने रहना चाहते हैं। हिंदुत्व की राजनीति में आगे क्या होगा, इसकी चिंता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को शायद नहीं है। फिर भी इतना तो कहा ही जा सकता है कि राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लक्ष्य और विचारधारा में कोई बदलाव या फर्क नहीं दिखता है।

नरेंद्र मोदी के साथ नहीं देनेवाले संजय जोशी का जो हाल हुआ वह तो सब को मालूम ही है। तब ‘अर्बन नक्सल’ का नुस्खा ईजाद नहीं हुआ था।

मोहन भागवत और नरेंद्र मोदी के संबंधों में बदलाव को लेकर जो भिन्न प्रकार की बयानबाजी हो रही है, वह हिंदुत्व की राजनीतिक संरचना में शक्ति-संतुलन और जगह घेरने की लड़ाई है।

अधिक-से-अधिक वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों के बीच रणनीतियों और प्राथमिकताओं की लड़ाई मानी जा सकती है। इस लड़ाई में विचारधारा और अंतिम लक्ष्य को लेकर कोई मतभेद नहीं है।

समस्या सिर्फ हिंदू-मुसलमान रिश्तों में तनाव की ही नहीं है। धर्म के आवरण में भेद-भावमूलक जाति-वर्ण व्यवस्था को लेकर भी है। सत्ता हासिल करने की राजनीति में धर्म आधारित राजनीति को रोकना जरूरी है।

इस पर मोहन भागवत हों या नरेंद्र मोदी इस मामले में शायद इन दोनों में से कोई शायद ही सहमत होंगे। हिंदू धर्म में निहित भेद-भावमूलक जाति-वर्ण व्यवस्था को समाप्त करने और विभिन्न समुदायों के बीच सौहार्द और सह-अस्तित्व की भावना के प्रति शायद ही कोई दिलचस्पी हो।

राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ की मुश्किल यह है कि ‘सांस्कृतिक निरंकुशता’ के दौर में उसका ‘सांस्कृतिक नेतृत्व’ बहुत कमजोर पड़ गया है। बहुसंख्यकवाद के दबाव से पनपी भीड़ की अनैतिकता के खिलाफ मुंह खोलनेवालों का अकेले पड़ जाना आज के भारत की सामाजिक-राजनीतिक नियति बन गई है।

भरोसा और नैतिकता के गहरे संकट में देश को फंसते हुए देखकर खामोशी की चादर ओढ़ लेनेवाले लोगों की विचलित मनःस्थिति का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है।

मोहन भागवत की टिप्पणी पर भारतीय जनता पार्टी के बड़े नेता की चुप्पी का मतलब राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी के तड़तड़ाते आंतरिक संबंधों के भीतर से ही निकल सकता है।

क्या राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ में मोहन भागवत के बयान को लेकर कोई असहमति या विवाद और विरोध है या सिर्फ रणनीति है?

देश में रोजगार का भयंकर संकट है। कहते हैं कि खाली दिमाग शैतान का घर होता है। माना जा सकता है कि खाली हाथ शैतान का हाथ। खाली दिमाग और खाली हाथ का उत्तेजना और उन्माद से भरे होने में क्या अचरज?

कुछ भी कहा जाये भारतीय जनता पार्टी के सामने छोटी हो या बड़ी अंततः चुनौती तो कांग्रेस ही है। लेकिन सवाल यह है कि गठबंधन की राजनीतिक प्रक्रिया में खुद कांग्रेस के सामने क्या चुनौती है?

विपक्ष की कमजोरी के कारणों पर बात करते समय यदि संवैधानिक संस्थाओं की भूमिका और चुनावी धांधलियों की पृष्ठ-भूमि यदि अनुपस्थित हो जाये तो विपक्ष के काम का आकलन क्या संभव है?

आकलन तो होता रहेगा, बदलता रहेगा; फिलहाल दिलचस्प है यह पहचानना होगा कि किस-किस कंठ से राहुल गांधी और अखिलेश यादव की आवाज निकल रही है!   

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)  

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