गांधी गोडसे: एक युद्ध, इतिहास की फैंटेसी या इतिहास का विकृतिकरण?

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हिदी के प्रख्यात कथाकार असग़र वजाहत ने आज से लगभग 12 साल पहले 2011 में एक नाटक लिखा था, ‘गोडसे@गांधी.कॉम’। कई सालों बाद इस नाटक का संशोधित रूप 2020 में ‘बनास जन’ पत्रिका द्वारा प्रकाशित हुआ। मूल नाटक में कुल 18 दृश्य थे, जबकि संशोधित नाटक में 22 दृश्य हैं।

नाटक की मूल कथा में भी परिवर्तन किया गया। यह बताना मुश्किल है कि नाटक में जो बदलाव किये गये वह इस पर बनने वाली फ़िल्म को ध्यान में रखकर किये गये थे या फ़िल्म बनने के निर्णय से पहले ही कर दिये गये थे। जो बदलाव किये गये वह बहुत महत्वपूर्ण थे और जिन पर हम आगे बातचीत करेंगे। नाटक इस दौरान कई बार खेला भी गया और कई अन्य भाषाओं में अनुवाद भी हुआ।

आमतौर इस नाटक को पसंद किया गया और इसको लेकर कोई गंभीर विवाद सामने नहीं आया। अभी 25 जनवरी 2023 को इस नाटक पर बनी फ़िल्म ‘गांधी-गोडसे : एक युद्ध’ प्रदर्शित हुई है और इसके साथ ही इसको लेकर हिंदी लेखकों के बीच तीव्र विवाद भी खड़ा हो गया है।

फ़िल्म हिंदी सिनेमा के एक लोकप्रिय फ़िल्मकार राजकुमार संतोषी ने बनायी और निर्देशित की है। संतोषी इससे पहले ‘अंदाज अपना अपना’, ‘घायल’, ‘दामिनी’, ‘लज्जा’, ‘दि लिजेंड ऑफ भगतसिंह’, ‘हल्ला बोल’ आदि फ़िल्में बनायी हैं। उनकी कई फ़िल्में काफी सराही गयी हैं।

वे गोविंद निहलानी के सहायक के तौर पर भी काम कर चुके हैं। वे आमतौर पर मेलोड्रामाई शैली में फ़िल्में बनाते हैं लेकिन उनमें प्रगतिशीलता का तत्व भी रहता है। ‘गांधी-गोडसे : एक युद्ध’ असग़र वजाहत के इसी संशोधित नाटक ‘गोडसे@गांधी.कॉम’ पर आधारित है। इसकी पटकथा स्वयं संतोषी ने लिखी है और संवाद लेखन में संतोषी और असग़र वजाहत के नामों का उल्लेख है।

स्पष्ट है कि फ़िल्म में नाटक से अलग जो भी बदलाव किये गये हैं, उससे लेखक की भी सहमति रही होगी। ‘पठान’ के साथ प्रदर्शित होने के कारण इस फ़िल्म को अधिक दर्शक नहीं मिले हैं, लेकिन ओटीटी पर आने पर इसे बड़ी संख्या में लोग देख सकते हैं।

एक विवादास्पद विषय पर फ़िल्म होने के बावजूद संघ परिवार द्वारा इसको लेकर किसी तरह का विरोध नहीं किया गया है। इस फ़िल्म की शूटिंग मध्यप्रदेश में हुई है जिसके लिए फ़िल्म के आरंभ में ही वहां के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह और गृहमंत्री नरोत्तम मिश्र का आभार प्रकट किया गया है।

साफ है कि फ़िल्म की शूटिंग की इजाजत पटकथा देखकर ही दी गयी होगी। भाजपा सरकार को पटकथा में ऐसा कुछ भी नहीं लगा होगा जिसके कारण वे शूटिंग की अनुमति न दे।फ़िल्म देखकर यह स्पष्ट लगता है कि फ़िल्मकार और लेखक दोनों ने यह सावधानी बरती है कि फ़िल्म सेंसर बोर्ड में न रुके और संघ परिवार इसका विरोध न करे जैसाकि बहुत सी फ़िल्मों को लेकर वह करता रहा है। 

राजकुमार संतोषी ने अपने एक साक्षात्कार में कहा है कि सेंसर बोर्ड ने फ़िल्म निर्माता को सलाह दी है कि यह फ़िल्म स्कूलों और कालेजों में भी दिखायी जानी चाहिए। हिंदू महासभा ने फ़िल्म को कर मुक्त करने की मांग भी की है।

फ़िल्म के आरंभ में ही फ़िल्मकार यह स्पष्ट कर देता है कि युद्ध से तात्पर्य वैचारिक युद्ध से है। फ़िल्म में यह भी कहा गया है कि ‘हमने दोनों पक्षों को बिना पक्षपात के और पूरी ईमानदारी और सम्मान के साथ प्रस्तुत किया है’। संतोषी ने एक इंटरव्यू के दौरान यह भी कहा था कि अभी तक गोडसे का पक्ष सामने नहीं आया है। उसे दबाया गया है।

हालांकि तथ्यात्मक रूप से यह सही नहीं है। हत्या के मुकदमे के दौरान गोडसे ने जो काफी लंबा बयान दिया था, वही एक मात्र दस्तावेज है जिससे गोडसे के विचारों को जाना जा सकता है। हालांकि माना यही जाता है कि यह बयान भी गोडसे ने खुद नहीं लिखा था बल्कि सावरकर ने लिखकर दिया था। उसका यह बयान पुस्तक के रूप में तब से ही उपलब्ध रहा है और कई भाषाओं में अनुवाद भी हुआ है।

इसलिए यह कहना सही नहीं है कि गोडसे के विचारों को दबाया गया है। संतोषी ने यह भी कहा था कि एक ‘एक्ट’ से यह नहीं समझ लिया जाना चाहिए कि गोडसे हिंसा का उपासक था। एक ‘एक्ट’ यानी महात्मा गांधी की हत्या। यह एक ‘एक्ट’ फ़िल्मकार को महज ‘एक्ट’ लगता है जबकि इसी ‘एक्ट’ के कारण राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को इस देश से छीन लिया था। 

अपनी फेसबुक टिप्पणी में असग़र वजाहत ने यह सवाल उठाया है कि क्या हिंदुत्व की दो धाराओं (गांधी और गोडसे) के बीच संवाद होना चाहिए? शायद उनका आशय है कि होना चाहिए। लेकिन उनकी टिप्पणी से यह स्पष्ट नहीं होता कि हिंदुत्व से उनका क्या तात्पर्य है।

अगर वे हिंदुत्व को हिंदू धर्म समझ रहे हैं तो वे इस शब्द की गलत व्याख्या कर रहे हैं। इस शब्द का प्रयोग विनायक दामोदर सावरकर ने सबसे पहले किया था। सावरकर के अनुसार हिंदुत्व एक राजनीतिक विचारधारा है।इस विचारधारा के अनुसार यह देश उनका है जिनकी यह मातृभूमि है और पुण्य भूमि है। मुसलमानों और ईसाइयों की यह मातृभूमि तो हो सकती है लेकिन पुण्यभूमि नहीं है। इसलिए वे विदेशी हैं। वे कभी भी इस देश के प्रति वफादार नहीं हो सकते। इसी धारणा को आगे बढ़ाते हुए गोलवलकर ने लिखा था कि मुसलमानों और ईसाइयों को नागरिकता के वे अधिकार नहीं मिल सकते जो हिंदुओं को सहज ही प्राप्त होंगे। अगर उन्हें इस देश में रहना है तो दोयम दर्जे के नागरिक बनकर रहना होगा।

महात्मा गांधी एक आस्थावान हिंदू अवश्य थे, लेकिन वे हिंदुत्व की ऐसी किसी भी विचारधारा में यकीन नहीं करते थे। महात्मा गांधी ने नागरिकता का आधार कभी भी धर्म, नस्ल, जाति, रंग आदि को नहीं माना। इसलिए यह कहना सही नहीं है कि गोडसे की तरह गांधी भी हिंदुत्व में यकीन करते थे। शायद उनका आशय नरम हिंदुत्व और गरम हिंदुत्व से रहा होगा।

हालांकि नाटक और फ़िल्म में गांधी के माध्यम से जो विचार रखे गये हैं, उसका हिंदुत्व की किसी भी व्याख्या से कोई संबंध नहीं है। भारत की परंपरा और संस्कृति के बारे में उनके विचार हिंदुत्ववादियों से बिल्कुल विपरीत थे जबकि गोडसे विचारों में हिंदुत्ववादी था और सावरकर का अनुयायी था।

हिंदुत्ववाद की विचारधारा दरअसल फासीवाद से प्रेरित विचारधारा है जबकि गांधी की विचारधारा धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र की विचारधारा है। ये दोनों विचारधाराएं एक दूसरे के बिल्कुल विपरीत हैं और आधुनिक विश्व का इतिहास बताता है कि इन दोनों के बीच किसी तरह का संवाद मुमकिन नहीं है और न ही इन दोनों के बीच का कोई रास्ता संभव है।

नाटक और फ़िल्म पर विचार करने के लिए इस पृष्ठभूमि को ध्यान में रखना आवश्यक है। यह आलेख फ़िल्म को ध्यान में रखकर लिखा गया है लेकिन जहां जरूरी हुआ है वहां नाटक की भी चर्चा की गयी है।

गांधी और गोडसे दोनों ऐतिहासिक पात्र हैं। नाथुराम विनायक गोडसे (1910-1949) राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संबद्ध रहा था और हिंदू महासभा का सदस्य था। 30 जनवरी 1948 को जब महात्मा गांधी (1869-1948) प्रार्थना सभा में उपस्थित थे, नाथुराम गोडसे ने उनकी छाती पर तीन गोलियां दागकर उनकी हत्या कर दी थी। नाटक और फ़िल्म दोनों का संबंध इसी घटना से है। 

फ़िल्म की कहानी पूरी तरह से काल्पनिक है। यह मानते हुए कहानी गढ़ी गयी है कि अगर नाथुराम गोडसे की गोलियों से गांधीजी की मृत्यु नहीं हुई होती तो क्या होता। महात्मा गांधी को गोलियां लगने के बाद अस्पताल ले जाया गया और ऑपरेशन के बाद उनके शरीर से गोलियां निकाल ली गयीं और कुछ दिनों बाद वे पूरी तरह से ठीक हो गये।

गांधीजी जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, मौलाना आज़ाद आदि नेताओं के सामने कांग्रेस को भंग करने का प्रस्ताव करते हैं। उनके बीच तर्क-वितर्क होता है। नेहरू आदि नेता कहते हैं कि फैसला हम नहीं ले सकते, कांग्रेस कार्यसमिति ही ले सकती है। वहां प्रस्ताव रखा जाता है और गांधी जी के इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया जाता है। गांधीजी निराश होकर कांग्रेस छोड़ देते हैं।

इस बीच गांधीजी जेल में नाथुराम गोडसे से मिलने जाते हैं और उसे बताते हैं कि उन्होंने उसे माफ कर दिया है और ऐसा उन्होंने अदालत को लिखकर भी दे दिया है। गोडसे गांधीजी की बात से प्रभावित नहीं होता। नेहरू आदि कांग्रेस नेताओं से खिन्न होकर गांधी जी ग्राम स्वराज की अपनी संकल्पना को साकार करने के लिए बिहार चले जाते हैं।

वहां वे स्वयंभू और स्वतंत्र राज्य की स्थापना करते हैं जिसकी अपनी सरकार होती है, अपनी पुलिस होती है और अपना न्यायालय होता है। एक भ्रष्ट पटवारी को जिसने किसी ग्रामीण की बेटी को अगवा कर लिया है गांधी रात में सैकड़ों लोगों का मशाल जुलूस निकालकर उसे छुड़वाते हैं और पटवारी को सजा देते हैं।

इसी तरह पेड़ों को काटने के लिए आये सरकारी कर्मचारियों का विरोध करते हुए गांधी के आह्वान पर गांव के लोग पेड़ों से चिपक जाते हैं। स्वाभाविक है कि उनके इस ‘ग्राम स्वराज’ की टक्कर देश पर शासन करने वाली सरकार से होती है और इस टकराव का परिणाम यह होता है कि प्रधानमंत्री नेहरू के आदेश से गांधी जी को ‘देशद्रोह’ के अपराध में जेल में बंद कर दिया जाता है।

गांधी मांग करते हैं कि उन्हें उसी जेल में और उसी वार्ड में रखा जाये जिसमें नाथुराम गोडसे को रखा गया है। गांधी जी उसी वार्ड में पहुंच जाते हैं और एकबार फिर से गांधी और गोडसे के बीच कथित संवाद शुरू होता है। 

फ़िल्म की इस कहानी के समानांतर सुषमा और नरेन (नाटक में इस पात्र का नाम नवीन होता है) नामक दो युवाओं  की कहानी भी चलती है जो आपस में प्रेम करते हैं। सुषमा एक स्वंतत्रता सेनानी की बेटी है और उसका स्वप्न है कि वह गांधीजी के साथ रहकर देश-सेवा करे।

गांधीजी दोनों को अपने साथ रखने से इन्कार कर देते हैं। नतीजतन नरेन को लौट जाना पड़ता है। गांधी दोनों के साथ रहने के ही नहीं उनके प्रेम के भी विरुद्ध हैं। वे यह भी नहीं चाहते कि वे आपस में किसी तरह का संपर्क भी रखे। 

इस बीच गांधीजी नाथुराम गोडसे से हिंदू राष्ट्र, अखंड भारत, भारत का इतिहास, उसकी सांस्कृतिक परंपरा आदि पर कई सवाल करते हैं और साथ ही इन सब मसलों पर अपने विचार भी रखते हैं।

गांधीजी के किसी भी सवाल का जवाब गोडसे नहीं दे पाता। नाथुराम गोडसे दावा करता है कि वह भगवद्गीता को महान ग्रंथ मानता है। गांधी भी गीता में बहुत विश्वास करते थे। गांधी ने गीता की अहिंसावादी व्याख्या भी की थी जबकि नाथुराम गोडसे उससे युद्ध की प्रेरणा लेता है। वह कहता भी है कि धर्म के मार्ग पर चलकर ही अर्जुन अपने ही सगे-संबंधियों से युद्ध लड़ता है।

गांधी कहते हैं कि उन्होंने युद्ध के मैदान में युद्ध लड़ा था, जबकि तुमने तो प्रार्थना सभा में एक निहत्थे पर गोली चलायी थी। नाथुराम गोडसे गांधी की इस बात का कोई जवाब नहीं दे पाता। इस कथित संवाद या वाद-विवाद में ऐसा प्रतीत हो सकता है कि गांधी गोडसे को परास्त करने में कामयाब हुए हैं और गांधी की विजय होती दिखायी देती है। 

एक दिन सुषमा को रोते देख नाथुराम गोडसे उसके रोने का कारण पूछता है तो सुषमा की मां निर्मला बताती है कि गांधी सुषमा को नरेन से मिलने नहीं देते जबकि वे दोनों एक दूसरे से प्रेम करते हैं। नाथुराम उनकी बात सुनकर गांधीजी के पास जाता है और उनको खरी-खोटी सुनाता है।

गोडसे गांधी जी से कहता है कि आपने हमेशा अपने विचार दूसरों पर लादे हैं। कांग्रेस अध्यक्ष पद पर सुभाषचंद्र बोस जीते थे और आपके उम्मीदवार पटाभिसीतारमैया हार गये थे। लेकिन आपके कारण ही सुभाष को इस्तीफा देना पड़ा। सरदार पटेल को बारह राज्य समितियों का समर्थन मिला था और नेहरू को सिर्फ तीन का, लेकिन आपने जवाहरलाल नेहरू को प्रधानमंत्री बना दिया।

आपकी वजह से ही सुषमा और नरेन मिल नहीं पा रहे हैं। आप उनके प्रेम में अवरोध बनकर खड़ें हैं। गोडसे के आरोपों के जवाब में गांधी सिर्फ यही कह पाते हैं कि जो भी मैंने किया देश के हित के लिए किया।

इसके बाद उसी रात स्वप्न में गांधी को कस्तुरबा दिखायी देती है जो गांधीजी को इस बात के लिए दोषी ठहराती है कि उन्होंने मुझे ही नहीं अपने संपर्क में आने वाले हर स्त्री-पुरुष को दुख दिया है। उन्होंने जयप्रकाश नारायण और प्रभावती के जीवन को बर्बाद कर दिया। अपने ही बेटे देवदास और लक्ष्मी का जीवन कष्टों से भर दिया। कस्तुरबा और भी कई नाम लेती है।

गांधी कस्तुरबा के किसी आरोप का जवाब नहीं दे पाते। कस्तुरबा यह भी आरोप लगाती है कि गांधी जी कमजोर को दबाते हैं और ताकतवर से डरते हैं। सुभाष और अंबेडकर से इसी वजह से डरते थे।

एक ओर नाथुराम गोडसे की आलोचना और दूसरी ओर सपने में कस्तुरबा की डांट-फटकार से गांधीजी तय करते हैं कि सुषमा और नरेन को अलग रखना ठीक नहीं है और अपने सचिव प्यारेलाल को कहकर नरेन को बुला लेते हैं और दोनों की शादी करवा देते हैं।

इस फैसले के बाद गांधी गोडसे की तरफ देखते हैं जो विजय भाव से गांधी को कहता है कि आप सही जा रहे हैं। कह सकते हैं कि गोडसे के कारण गांधी का ह्रदय परिवर्तन हो जाता है। 

गोडसे के साथ बातचीत के एक अन्य दौर में गोडसे कहता है कि देश को आज़ादी कांग्रेस की वजह से ही नहीं मिली थी, भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद आदि के बलिदान से मिली थी, लेकिन आपने कभी उनके बलिदान को महत्व नहीं दिया। आपने पाकिस्तान जो हमारा शत्रु है उसको 55 करोड़ रुपये दिलवा दिये।

गांधीजी इन सबका जवाब यह देते हैं कि उनके अपने लोग ही उनकी नहीं सुनते। नाथुराम गोडसे यह भी दावा करता है कि जब उसने गांधी जी को गोली मारी थी उससे पहले उनके पांव इसलिए छुए थे क्योंकि देश को आज़ाद कराने के लिए उनके संघर्ष के प्रति उसके मन में सम्मान था।

फ़िल्म इस बात का संकेत देती है कि गांधी जी की हत्या की कोशिशें बंद नहीं हुई थी। संशोधित नाटक के अनुसार नाथुराम गोडसे के पास रिवाल्वर पहुंचायी जाती है ताकि वह गांधी की हत्या कर सके। लेकिन गोडसे गांधी की हत्या नहीं करता बल्कि रिवाल्वर की गोलियां हवा में चलाकर खत्म कर देता है। इस तरह गांधी की बातों का असर दिखायी देने लगता है।

लेकिन फ़िल्म में यह घटना अलग ढंग से आती है। फ़िल्म के आरंभ में कुछ रियासतों के शासकों को साजिशाना ढंग से यह कहते हुए बताया जाता है कि वे गांधी को रास्ते से हटाना चाहते हैं। लेकिन इसे बहुत साफ तौर पर नहीं कहा गया है। एक व्यक्ति गांधी के आसपास हमेशा मंडराता हुआ नजर आता है जो गांधी को मारना चाहता है। नरेन और सुषमा की शादी के तत्काल बाद उस व्यक्ति को गांधी पर हमला करने का मौका मिल जाता है लेकिन इस बार नाथुराम गोडसे उनको बचा लेता है।

इस तरह गांधी की हत्या का जो अपराध गोडसे ने किया था, इस काल्पनिक कहानी में गोडसे गांधी को बचाकर पाप मुक्त हो जाता है। इसके बाद दोनों ही- गांधी जी और नाथुराम गोडसे एक साथ जेल से छूटते हैं। बाहर एक तरफ गांधी जी के समर्थक हैं और दूसरी तरफ गोडसे के समर्थक। लगभग बराबर की संख्या में। उनके हाथ में गांधी और गोडसे ज़िंदाबाद के प्लेकार्ड हैं। दोनों तरफ की भीड़ अपने-अपने नेता के ज़िंदाबाद के नारे लगाती हैं। दोनों तरफ की भीड़ के बीच से गांधी और गोडसे एक साथ आगे बढ़ते हैं और पीछे गोडसे ज़िंदाबाद का प्लेकार्ड और उसकी तस्वीर चमकती है।

गांधी और गोडसे का अपने-अपने समर्थकों के बीच से गुजरना लेखक के अनुसार दोनों रास्तों यानी गांधीवाद और गोडसेवाद (हिंदुत्ववाद) दोनों रास्तों के अस्वीकार और किसी तीसरे रास्ते की तलाश को दिखाता है। जाहिर है कि इस तीसरे रास्ते पर गांधी और गोडसे साथ-साथ जा रहे हैं। फ़िल्म इस तीसरे रास्ते की व्याख्या करने से पहले ही समाप्त हो जाती है।

गांधी और गोडसे के इस तीसरे रास्ते में जाहिर है कि गांधी के साथ गोडसे भी होंगे। यानी गांधी और गोडसे की विचारधारा क समन्वय। यह समन्वय जाहिर है और अधिक दक्षिणपंथी ही होगा। कहने को फासिस्ट न हो, लेकिन हिंदूपरस्त सांप्रदायिक तो होगा ही।

अन्यथा गांधी के साथ गोडसे के होने का क्या मतलब? इस कथित तीसरे रास्ते का आज वैसे भी कोई औचित्य नहीं है क्योंकि नाटक और फ़िल्म के बाहर न गांधी ज़िंदा है और न गोडसे। गांधी के अनुयायी तो आजकल कहीं नजर नहीं आते लेकिन गोडसे के अनुयायी तो हर कहीं नजर आ रहे हैं और ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि उनमें से किसी का भी ह्रदय परिवर्तन हुआ है या उन्होंने फासिस्ट विचारधारा से नाता तोड़ लिया है या संगठन के तौर पर उनके विचारों में हल्का सा भी लचीलापन आया है।  

यह सही है कि यह फ़िल्म काल्पनिक कथा पर आधारित है। लेखक ने इस काल्पनिक विचार को सामने रखते हुए अपनी कहानी गढ़ी है कि गोडसे की गोली से यदि गांधी नहीं मरते तो क्या होता और अगर गांधी और गोडसे जेल में एक साथ रहते तो उनके बीच किस तरह का संवाद होता।

लेखक कुछ भी कल्पना करने और लिखने के लिए स्वतंत्र है और यही बात फ़िल्मकार पर भी लागू होती है। फ़िल्मकार भी अपनी सोच और कल्पना के अनुसार फ़िल्म बना सकता है।

लेकिन यह प्रश्न ज़रूर उठता है कि कहानी कितनी भी काल्पनिक क्यों न हो, यदि आप ऐतिहासिक पात्रों और घटनाओं को आधार बनाकर अपनी कल्पना प्रस्तुत करते हैं तो यह सवाल तो जरूर पूछा जायेगा कि आपने उनके साथ किस हद तक और किस वजह से छूट ली है और ठीक इसी समय जब देश पर एक सांप्रदायिक फासीवादी सरकार सत्ता में है और जो हिंदुत्व की उसी विचारधारा को मानती है, जो सावरकर और गोडसे की विचारधारा थी, आप फ़िल्म क्यों बना रहे हैं।

कोई भी रचना, कोई भी फ़िल्म समय-निरपेक्ष नहीं होती। दर्शक फ़िल्म को अपने समय से जोड़कर देखेगा ही। यही नहीं वह यह भी जानना चाहेगा कि क्या यह महज संयोग है कि आज़ादी के आंदोलन और सांप्रदायिक आधार पर विभाजित हिंदुस्तान की जो व्याख्या यह फ़िल्म पेश करती है, वह ठीक वही क्यों है जिसे संघ परिवार शुरू से पेश करता रहा है।

इस सच्चाई के बावजूद कि गोडसे का आरएसएस से संबंध था, गांधी की शहादत के इन 75 सालों में आरएसएस का साहस नहीं हुआ कि वे गोडसे से अपने संबंधों को स्वीकारे। अब भी कुछ नेताओं को छोड़कर एक संगठन के तौर पर आरएसएस और भाजपा गोडसे के बारे में चुप ही रहती है।

लेकिन इस फ़िल्म ने गोडसे को न केवल गांधी के समकक्ष ला बैठाया बल्कि उसे महान देशभक्त के रूप में स्थापित कर गोडसे की व्यापक स्वीकृति का मार्ग प्रशस्त कर दिया है। 

गोडसे को फ़िल्म में आरंभ से ही एक साहसी, विचारवान जननायक की तरह पेश किया गया है। जबकि वह एक कायर व्यक्ति था। सावरकर जैसे सांप्रदायिक फासीवादी व्यक्ति का अंधभक्त था, जिन्होंने जेल से छूटने के लिए अंग्रेजों से बारबार माफी मांगी थी और जेल से छूटने के बाद जिसने हमेशा अंग्रेजों का साथ दिया था। जब नाथुराम गोडसे ने गांधीजी पर हमला किया था, उसके बाद वह वहां से भागने की कोशिश करने लगा। लेकिन वहां मौजूद लोगों ने उसे पकड़ लिया तब उसने अपने को मुसलमान बताया। ताकि गांधी की हत्या का इल्जाम मुसलमानों पर आये और देश में दंगे भड़क उठें।

लेकिन फ़िल्म में बताया गया है कि वह भागा नहीं बल्कि दोनों हाथ ऊपर करके वहीं खड़ा रहा। एक साहसी व्यक्ति की तरह जैसे भगत सिंह थे जो एसेंबली में बम फैंकने के बाद भी वहां से भागे नहीं थे। नाटक में सावरकर का उल्लेख कई बार आता है हालांकि वहां भी उनकी आलोचना करने से यथासंभव बचा गया है।

लेकिन फ़िल्म में तो सिर्फ एकबार जिक्र आता है और वह भी इतना कि गोडसे के आदर्श सावरकर हैं। गोडसे जिस पार्टी हिंदू महासभा का सदस्य था, फ़िल्म उसका भी उल्लेख नहीं करती, न आरएसएस का जिसने गांधीजी की हत्या के बाद खुशियां मनायी थी और लड्डू बांटे थे।

नाटक में गांधी गोडसे से पूछते हैं कि सावरकर तो स्वयं हिंदू और मुसलमान को दो अलग राष्ट्रीयता मानते थे और इसलिए विभाजन के सच्चे पक्षधर तो वे थे, तब मुझे क्यों विभाजन का दोषी बता रहे हो। लेकिन यह प्रसंग फ़िल्म से गायब है। शायद इसलिए ताकि सावरकर को हिंदुत्व का सिद्धांतकार और देशभक्त मानने वाली इस सरकार के कोप से बचा जा सके और सावरकर की जो छवि संघ परिवार निर्मित करता रहा है, उस पर खंरोच तक न आये। नाटक और फ़िल्म विभाजन के लिए गांधी और कांग्रेस को दोषी ठहराती है जबकि सच्चाई यह है कि कांग्रेस ने सिद्धांत रूप में विभाजन को कभी स्वीकार नहीं किया। विभाजन के लिए कांग्रेस इसलिए तैयार हो गयी कि ताकि दंगों की विभीषिका को रोका जा सके। 

नाटक की शुरुआत रेडियो पर प्रसारित इस घटना से होती है कि गांधीजी पर हुए हमले में वे बच गये हैं जबकि फ़िल्म की शुरुआत विभाजन के बाद दिल्ली में हुए दंगों से होती है। इन दंगों से गांधी और गोडसे दोनों विचलित हैं। गोडसे इस बात से परेशान है कि पाकिस्तान में हिंदुओं को मारा जा रहा है, औरतों के साथ बलात्कार हो रहा है। गोडसे को हिंदू शरणार्थियों के बीच परेशान हालत में घूमते हुए दिखाया जाता है।

गोडसे के सामने ही जब एक शरणार्थी को पुलिस वाला लाठी से मारता है तो गोडसे लाठी पकड़ लेता है। शरणार्थी गोडसे को कहता है कि वहां मुसलमान हमें मार रहे हैं और यहां भी सरकार हम पर लाठी चला रही है। गोडसे कहता है कि यह सरकार की नहीं गांधी की लाठी है और जल्दी ही टूट जाएगी। 

कश्मीर पर पाकिस्तान के हमले के कारण नेहरू सरकार तय करती है कि पकिस्तान को जो 55 करोड़ दिये जाने है, वह नहीं देगी। इस बात के लिए सरदार पटेल ज्यादा दबाव डालते हैं। माउंटबेटन गांधीजी को कहते हैं कि वह सरकार पर 55 करोड़ पाकिस्तान को लौटाने के लिए दबाव डाले। गांधी कहते हैं कि मेरी कोई नहीं सुनता। 

गांधी हत्या से पहले का यह घटनाक्रम सतह से देखने पर सही लग सकता है लेकिन ऐसा है नहीं। यह सही है कि फ़िल्म में गांधी के अनशन को पाकिस्तान को 55 करोड़ देने से नहीं जोड़ा गया है लेकिन फ़िल्म 55 करोड़ देने को एक महत्त्वपूर्ण घटनाक्रम के रूप में प्रस्तुत करती है जिसका उल्लेख बाद में भी गोडसे गांधी जी से करता है। फ़िल्म में इस बात पर जोर देना कि पाकिस्तान से आने वाले हिंदू शरणार्थियों की मदद करने की बजाय उन्हें पुलिस परेशान करती है, यहां तक कि उन पर लाठियां भी चलाती है। उनकी कहीं कोई सुनवाई नहीं है।

गांधी हिंदुओं के शरणार्थी शिविर में जाते हैं और शरणार्थी उन्हें बहुत बुरा-भला कहते हैं। गांधी इससे दुखी होते हैं। इसके बाद गांधीजी मुसलमानों के एक समूह से मिलते हैं और वे लोग गांधी जी से मदद की गुहार लगाते हैं। उनके रोने-गिड़गिड़ाने से विचलित होकर उनकी सुरक्षा के लिए गांधीजी अनशन पर बैठ जाते हैं। अनशन द्वारा गांधी जी सरकार पर दबाव डालते हैं कि मुसलमानों को पूरी सुरक्षा दी जाये।

अब तक के फ़िल्म के हिस्से से जाहिर हो जाता है कि गांधी जी को केवल मुसलमानों की चिंता है, हिंदुओं की नहीं है। सरकार भी मुसलमानों की सुरक्षा के लिए कदम उठाती है और हिंदुओं के लिए कुछ नहीं करती। और यह सब गोडसे अपनी आंखों से देख रहा है और इसी से विचलित होकर वह गांधी की हत्या करने के लिए प्रेरित होता है।

स्पष्ट है कि फ़िल्म में सारे घटनाक्रम को गोडसे की नज़र से दिखाया जा रहा है, न कि तथ्यों के आधार पर। इस पूरे घटनाक्रम में नाथुराम गोडसे की मौजूदगी फ़िल्मकार की अपनी कल्पना है, वास्तविकता से इसका कोई संबंध नहीं है।

नाथुराम गोडसे अपने साथियों के साथ एक साजिश के तहत दिल्ली आया था और उनका मकसद आरंभ से ही गांधी की हत्या करना था। और अब यह साबित हो चुका है कि इस साजिश का मास्टरमाइंड खुद सावरकर थे।

यह सही है कि गांधी ने 12 जनवरी 1948 को जो अनशन आरंभ किया था, वह मुसलमानों के विरुद्ध हो रहे दंगों को रुकवाने और उन्हें सुरक्षा मुहैया कराने के लिए किया था। गांधीजी ने अनशन तब खत्म किया था जब आरएसएस सहित हिंदुओं और सिखों के संगठनों ने गांधी को बताया कि वे मुसलमानों के विरुद्ध हमले रोक चुके हैं। लेकिन फ़िल्म में इन दोनों तथ्यों को इस तरह से प्रस्तुत किया गया है कि तत्कालीन सरकार और गांधीजी दोनों को केवल मुसलमानों की चिंता थी। इसलिए गोडसे का गांधी के प्रति गुस्सा वाजिब था। 

फ़िल्म में बहुत जोर देकर जो कहा गया है कि नेहरू सरकार पाकिस्तान से आने वाले हिंदू शरणार्थियों के लिए कुछ नहीं कर रही थी और केवल उन्हें परेशान कर रही थी और उन पर लाठियां बरसा रही थीं, दरअसल संघियों का झूठा प्रचार था। उस समय की सरकार ने शरणार्थियों के लिए जरूरी सब कदम उठाये थे।

न केवल उस समय बल्कि आगे आने वाले कई सालों तक सरकार द्वारा उठाये गये कदमों का ही नतीजा था कि दिल्ली की कई बस्तियां उन्हीं शरणार्थियों की स्थायी कालोनियां बन गयी थीं। पश्चिमी दिल्ली में तिलक नगर, कीर्ति नगर, मोती नगर से पटेल नगर, उत्तरी दिल्ली में किंग्स्वे कैंप से मॉडल टाउन, अशोक विहार और दक्षिणी दिल्ली में लाजपत नगर और उसके आसपास की बस्तियां शरणार्थियों से ही बसायी गयी थीं और यह सब नेहरू के प्रधानमंत्रित्व काल में हो चुका था।

फ़िल्म में गोडसे की गोलियों से बचने के बाद गांधी जी कांग्रेस के प्रमुख नेताओं नेहरू, पटेल, मौलाना आज़ाद के सामने प्रस्ताव रखते हैं कि कांग्रेस आज़ादी के आंदोलन का एक खुला मंच थी, उसे अब भंग कर देना चाहिए। उनके बीच बहस होती है।

गांधीजी के प्रस्ताव से कोई सहमत नहीं होता। वे उन्हें यह कहते हैं कि हम आपका प्रस्ताव कांग्रेस कार्यसमिति में रखेंगे और वहां जो भी निर्णय होगा उसके अनुसार काम करेंगे। कार्यसमिति में गांधी का प्रस्ताव स्वीकार नहीं होता और निराश होकर गांधी जी कांग्रेस छोड़ देते हैं।

यह पूरा प्रसंग फ़िल्म में भी है और नाटक में भी। बल्कि नाटक में जिस रूप में प्रस्तुत किया गया है, कमोबेश उसी रूप में फ़िल्म में भी दिखाया गया है। यह जरूर है कि नाटक में जो बात बहुत उभरकर नहीं आती वह फ़िल्म में आ जाती है कि कांग्रेस के नेता सत्ता लोलुप थे और वे किसी भी स्थिति में सत्ता नहीं छोड़ना चाहते थे। 

दरअसल यह पूरा प्रसंग गढ़ा हुआ है। निश्चय ही इसके लिए लेखक और फ़िल्मकार को पूरी तरह से दोषी नहीं ठहराया जा सकता। तथ्य यह है कि गांधी ने कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता 1934 में ही छोड़ दी थी, इसलिए नाटक और फ़िल्म में यह कहा जाना पूरी तरह से गलत है कि कांग्रेस भंग करने के उनके प्रस्ताव को अस्वीकार करने के कारण गांधी जी ने कांग्रेस छोड़ दी थी।

1934 में कांग्रेस छोड़ने की वजह यह थी कि सुभाषचंद्र बोस ने गांधी की इस बात के लिए आलोचना की थी कि वे अपनी बात मनवाने के लिए दबाव डालते हैं। दूसरी वजह यह थी कि अंबेडकर के साथ पूना पैक्ट के बाद गांधी की काफी आलोचना हो रही थी।

इसी वजह से उन्होंने निराश होकर कांग्रेस की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया था। यही नहीं वे लगभग सात महीने राजनीति से अलग रहकर दलितों के बीच काम करने में जुट गये थे। कांग्रेस की सदस्यता उन्होंने वापस कभी नहीं ली थी, लेकिन कांग्रेस नेता न केवल उनके संपर्क में रहे बल्कि उनसे सलाह-मशविरा भी लेते रहते थे।

गांधी 1934 के बाद भी कांग्रेस द्वारा चलाये गये आंदोलनों में भाग लेते थे और इसी वजह से 1942 में दो साल से अधिक समय के लिए वे गिरफ्तार कर नजरबंदी में रखे गये थे।  

जहां तक कांग्रेस भंग करने की बात है गांधीजी ने ऐसा कोई प्रस्ताव कांग्रेस के सामने कभी नहीं रखा। दरअसल उनकी हत्या के तीन दिन पहले 27 जनवरी 1948 को, एक विदेशी पत्रकार विंसेट शीन को उन्होंने इंटरव्यू दिया था जिसमें उन्होंने यह कहा था कि सत्ता भ्रष्ट करती है और हर तरह की सत्ता और अधिक भ्रष्ट करती है।

उन्होंने यह भी कहा था कि जो अहिंसा में विश्वास नहीं करते उन्हें सत्ता से दूर रहना चाहिए। उन्होंने यह भी सुझाव दिया था कि कांग्रेस को अब दो भागों में बंट जाना चाहिए और एक को सामाजिक कार्यों में लगा देना चाहिए। लेकिन उन्होंने ऐसा कोई प्रस्ताव कभी नहीं दिया कि कांग्रेस को भंग कर देना चाहिए। इसके विपरीत उन्होंने 27 जनवरी को ही कहा था कि, ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस जो कि सबसे प्राचीन राष्ट्रीय राजनीतिक संगठन है और जिसने लंबे संघर्षों के बाद अहिंसात्मक रास्ते से आज़ादी हासिल की है, उसे मरने नहीं दिया जा सकता। अगर (कांग्रेस) मरेगी तो राष्ट्र् के साथ ही मरेगी।—कांग्रेस ने राजनीतिक आज़ादी हासिल कर ली है लेकिन उसे अभी आर्थिक, सामाजिक और नैतिक स्वतंत्रता हासिल करनी है। इन स्वतंत्रताओं को हासिल करना राजनीतिक स्वतंत्रता की तुलना में अधिक मुश्किल है’ (डी. जी. तेंदुलकर : ‘महात्मा : लाइफ ऑफ मोहनदास करमचंद गांधी, खंड-8, 1954, पब्लिकेशन डिविजन, नयी दिल्ली, पृ. 282-83)।

दरअसल गांधीजी की बात को पूरे संदर्भों से काटकर उसे इस तरह पेश किया गया जैसे वह यह चाहते थे कि कांग्रेस भंग कर दी जाये और यही उनकी अंतिम इच्छा थी। इस बात को फैलाने में कांग्रेस से असंतुष्ट गांधीवादी, समाजवादी और संघी बहुत सक्रिय रहे। और पिछले 75 सालों में यह बात इतनी बार दोहरायी गयी कि इसे आम नागरिक ही नहीं लेखक, पत्रकार और फ़िल्मकार भी सच मानने लगे। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि असग़र वजाहत जैसे वरिष्ठ लेखक भी तथ्यों का पता लगाये बिना इसे सच मान बैठते हैं और उसे बढ़ा-चढ़ाकर अपने नाटक का हिस्सा बना लेते हैं। 

कांग्रेस को भंग करने वाले प्रसंग का मकसद भी यह बताना है कि नेहरू सहित कांग्रेस के सभी नेता देशभक्त नहीं सत्ता-लोभी थे। नाटक में भी और फ़िल्म में भी दिखाया गया है कि आज़ादी के बाद कांग्रेस जनता का शोषण और उत्पीड़न करने में लग गयी थी और जब गांधीजी ने आवाज़ उठायी तो उन्हें जेल में ठूंस दिया गया। इसके विपरीत गोडसे अपने अखबार द्वारा कांग्रेस की जनविरोधी नीतियों और कार्रवाइयों का विरोध कर जनता में जागरूकता पैदा कर रहा था। वह लगातार लिखकर सरकार की खबर ले रहा था और उसके लेखन से नेहरू आदि नेता भी घबराये से रहते थे यानी कि गोडसे सच में एक जननायक था।

एक सच्चा देशभक्त जो जेल में बैठा-बैठा सरकार की जड़ें हिला रहा था।  लेकिन सच्चाई यह थी कि गांधी जी की हत्या के बाद एक पार्टी के तौर पर हिंदू महासभा लगभग समाप्ति के कगार पर पहुंच गयी थी। आरएसएस को प्रतिबंध के बाद लिखकर देना पड़ा था कि वह एक सांस्कृतिक संगठन है और उसका राजनीति से कुछ भी लेना-देना नहीं है।

जब आरएसएस ने एक राजनीतिक दल के रूप में भारतीय जनसंघ की स्थापना की थी तो लगभग दो दशकों तक उनको मामूली-सा जनसमर्थन प्राप्त था। इतिहास की इन सच्चाइयों के विपरीत गोडसे को राजनीतिक रूप से एक सजग और सक्रिय नेता के रूप में दिखाना इतिहास का विकृतिकरण है।

नाटक में तो लेखक ने उसे लगभग गांधी की तरह लोकप्रिय बताया है जिसके पास ढेरों चिट्ठियां आती हैं। उसे औरतें स्वेटर बनाकर भेजती हैं। उसके साथ गिरफ्तार साथी बताते हैं कि जब उसने कोर्ट में बयान दिया था तब वहां मौजूद लोगों की आंखों में आंसू आ गये थे।

लेकिन लेखक यह बताना भूल जाता है कि कोर्ट में गोडसे द्वारा दिया गया बयान उसका लिखा हुआ नहीं था बल्कि सावरकर ने उसे लिखकर दिया था। वैचारिक रूप से वह शून्य था और गांधी से उसकी तुलना करना या उनके समकक्ष खड़ा करना गांधी को ही नीचा दिखाना है। 

नाटक में भी और फ़िल्म में भी गांधीजी के जिस ग्राम स्वराज के प्रयोग को दिखाया गया है, उसका गांधीजी के ग्राम स्वराज से कुछ भी लेना-देना नहीं है। गांधीजी ने ग्राम स्वराज की ऐसी कल्पना कभी नहीं रखी थी जहां गांव नक्सलबाड़ी आंदोलन के दौरान मुक्त कराये गये क्षेत्रों की तरह हो। जहां का शासन ही नहीं बल्कि पुलिस और न्यायालय तक उनकी अपना हो।

गांधीजी ने स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान कभी मशाल जुलूस निकाला था, इसका कोई उल्लेख कहीं नहीं मिलता। ग्राम स्वराज से उनका तात्पर्य इतना भर था कि एक ऐसा आदर्श गांव जहां सब लोग मिलजुल कर रहें, आत्मनिर्भर और स्वावलंबी हो। उनकी अपनी पंचायत हो जिसके द्वारा वे स्थानीय समस्याओं को सुलझा सकें। उन्होंने ग्राम स्वराज के लिए 18 क्षेत्रों में काम करने को जरूरी बताया था : 1. सांप्रदायिक एकता, 2. छुआछुत को खत्म करना, 3. मद्य निषेध, 4. खादी, 5. ग्रामीण उद्योग, 6. ग्रामीण स्वच्छता, 7. नयी और बुनियादी शिक्षा, 8. प्रौढ़ शिक्षा, 9. महिला उत्थान, 10. स्वास्थ्य संबंधी शिक्षा, 11.प्रांतीय भाषाएं, 12. राष्ट्रीय भाषा, 13. आर्थिक समानता, 14. किसान, 15. मज़दूर, 16. आदिवासी, 17. कुष्ठ रोगी, 18. विद्यार्थी (17 मार्च, 1946 में ‘हरिजन’ में ग्राम पुनर्निर्माण के अंतर्गत बताये गये कार्य-क्षेत्र; गांधी फॉर ट्वंटी फर्स्ट सेंचुरी, खंड-14, संपादन : आनंद टी. हिंगोरानी, 1966, भारतीय विद्या भवन, मुंबई, पृ. 133)।

इनमें से कुछ को बाद में संविधान में जगह दी गयी है, तो कुछ सरकारी योजनाओं का हिस्सा बनीं और कुछ का दायित्व पंचायती राज को दिया गया। फ़िल्म में पर्यावरण की रक्षा का जो प्रसंग आया है, वह उपर्युक्त 18 कार्यक्षेत्र में शामिल नहीं है क्योंकि उस समय तक पर्यावरण का मुद्दा सार्वजनिक चिंता का विषय नहीं बना था। यह मुद्दा भी जबरन गांधी के साथ जोड़ दिया गया।

स्पष्ट ही गांधी की ग्राम स्वराज की कल्पना का किसी भी लोकतांत्रिक और जनकल्याणकारी राज्य से किसी तरह का टकराव होने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता। लेकिन फ़िल्म में जिस कथित ग्राम स्वराज को पेश किया गया वह दरअसल एक समानांतर सरकार की तरह है और स्पष्ट ही उसका टकराव होना पूरी तरह संभव है। चूंकि गांधी को नेहरू सरकार द्वारा देशद्रोह में गिरफ्तार करवाना था इसलिए ग्राम स्वराज को स्वतंत्र और स्वयंभू राज्य की तरह पेश किया गया। यह लेखक और फ़िल्मकार द्वारा जानबूझकर किया गया विकृतिकरण है। 

नेहरू सरकार द्वारा गांधी जी को देशद्रोह के अपराध में जेल भिजवाने की आधारहीन कल्पना क्या यह बताने के लिए नहीं है कि आज़ादी के बाद जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में जो कांग्रेस सरकार बनी वह दरअसल गांधी जी के विचारों की विरोधी सरकार थी और अगर सचमुच गांधी जी जीवित होते तो वह इस सरकार के विरुद्ध आंदोलन करते और उनका वही हश्र होता जो नाटक में दिखाया गया है यानी देशद्रोह के अपराध में गिरफ्तार कर लिया जाता।

इसके विपरीत सच्चाई यह है कि नेहरू चाहते थे कि अंग्रेजों के जमाने का देशद्रोह का कानून समाप्त कर दिया जाये लेकिन उनकी बात नहीं मानी गयी। यही नहीं गांधी को गिरफ्तार करने के अपराध में केवल नेहरू को नहीं बल्कि अंबेडकर को भी जिम्मेदार बताया गया है जो नेहरू पर दवाब डालते हैं कि गांधी जी के विरुद्ध कानून के अनुसार कार्रवाई की जाये।

नेहरू के संदर्भ में देशद्रोह का उल्लेख भी अनायास नहीं है। पिछले आठ सालों में इस कानून का सबसे ज्यादा इस्तेमाल मोदी सरकार ने किया है और आज भी इस कानून के तहत कई लोग निरपराध होते हुए भी जेलों में बंद हैं। लेकिन यह फ़िल्म देशद्रोह का ठीकरा भी नेहरू के सिर फोड़ती है ताकि लोगों के बीच संदेश यह जाय कि इस कानून को सबसे पहले लागू नेहरू और कांग्रेस ने किया और वह भी गांधी के विरुद्ध। 

इस पूरी फ़िल्म को इस तरह प्रस्तुत किया गया है कि देखने वाले यह समझें कि यह नाटककार और फ़िल्मकार की कल्पना नहीं बल्कि वास्तविकता है। वास्तविकता का आभास कराने के लिए फ़िल्म में लगातार उस दौर के अखबारों के हेडिंग्स की कतरनों का इस्तेमाल किया गया है जिससे यह संदेश जाये कि जो कुछ भी दिखाया जा रहा है वह सचमुच घटित हुआ है।

यह कल्पना नहीं है बल्कि वास्तविकता है। फ़िल्म के ऐसे सभी प्रसंगों को फ़िल्म से अलग कर छोटे-छोटे टुकड़ों के रूप में दिखाया जाये तो लोग यही समझेंगे कि ऐसा वास्तव में हुआ है। 

गोडसे के विपरीत गांधीजी का व्यक्तित्व जो फ़िल्म में चित्रित किया गया है वह एक सनकी, अपनी इच्छाएं दूसरे पर थोपने वाला, स्त्री-विरोधी व्यक्ति है। इतिहास में गांधीजी के जो सबसे बड़े योगदान थे, उन्हें फ़िल्म हाशिए पर भी याद नहीं करती। आज़ादी के आंदोलन में व्यापक जनभागीदारी गांधीजी के प्रयत्नों से शुरू हुई थी। एक फकीर की तरह रहने का वरण गांधी ने इसलिए किया था कि देश के गरीब से गरीब लोग अपने को गांधी से जोड़ सकें।

यह उनकी लोकप्रियता ही थी कि उनकी शवयात्रा में दस लाख से ज्यादा लोग शामिल हुए थे और हिंदू सांप्रदायिक उन्मादियों को छोड़कर जिन्होंने गांधी की हत्या पर लड्डू बांटे थे, सारा देश आंसू बहा रहा था। इन्हीं गांधीजी ने कांग्रेस को सदैव एक ऐसी पार्टी बनाये रखने के लिए काम किया जो देश के सभी लोगों का प्रतिनिधित्व करे। हिंदू का भी, मुसलमान का भी, सिख का भी ईसाई का भी। हर भाषा-भाषी का भी हर जाति और धर्म वाले का भी।

यह गांधी ही थे जिन्होंने औरतों को आज़ादी की लड़ाई में शामिल होने का आह्वान किया था और उनके आह्वान पर हजारों-हजार औरतें घर की चारदीवारी लांघकर सड़कों पर निकल आयी थीं। गांधी जी ने सदैव हिंदू-मुस्लिम सौहार्द के लिए काम किया और सांप्रदायिकता के विरुद्ध अपनी जान-जोखिम में डालकर भी जीवन के अंतिम क्षण तक संघर्ष किया।

गांधीजी ने अपने जीवन का बड़ा हिस्सा दलितों के उत्थान में, उन्हें बराबरी का दर्जा दिलाने में लगाया। लेकिन यह सब फ़िल्म से गायब है। इसकी बजाय बकरी का दूध पीने वाले, ब्रह्मचर्य को सबसे बड़ा मूल्य मानने वाले, स्त्री-पुरुष प्रेम का सनक की हद तक विरोध करने वाले और अपनी इच्छाएं दूसरों पर थोपने वाले गांधी ही फ़िल्म में दिखते हैं। 

सुषमा और नरेन का पूरा प्रसंग पूरी तरह से गढ़ा हुआ प्रसंग है। क्या वास्तव में गांधी स्त्री-पुरुष प्रेम के विरोधी थे। क्या वे प्रेम करने को विकार समझते थे? इसके विपरीत सच्चाई यह है कि उन्होंने अपने आश्रमों में कई अंतर्धार्मिक और अंतर्जातीय विवाह कराये और अपने जीवन के अंतिम सालों में तो उन्हीं दंपत्तियों को आशीर्वाद देते थे जिनमें से एक दलित हो।

कस्तूरबा द्वारा जयप्रकाश नारायण और प्रभावती के बारे में जो कहा गया उसका भी कोई उल्लेख नहीं मिलता। हां, यह अवश्य है कि जब जयप्रकाश नारायण पढ़ने के लिए अमरीका गये थे, तब प्रभावती गांधीजी के आश्रम में रहती थीं जिसे वे अपनी बेटी की तरह मानते थे। गांधीजी के जीवित रहते जयप्रकाश नारायण गांधीवादी नहीं बल्कि समाजवादी थे और बहुत सी बातों पर गांधीजी से मतभेद था। बाद में वे गांधीवादी बने। नाटक में कस्तुरबा के मुख से मीरा बहन को अपनी सौतन कहलाना, लेखक की घटिया सोच का नतीजा है।

जेल में बकरी ले जाने वाला प्रसंग भी गांधी को सनकी बताने के लिए लाया गया है। यह सही है कि गांधीजी को जब भैंस और गाय का दूध पचना बंद हो गया तब वे बकरी का दूध पीने लगे थे और बकरी उनके आश्रम में रहती थीं। इसका अर्थ यह नहीं था कि गांधीजी हर जगह बकरी ले जाते थे। यानी गांधी के जीवन में जो बातें हाशिए पर थीं, उनसे ही नाटक और फ़िल्म में गांधी का चित्र उकेरा गया है।

फ़िल्म में नाथुराम गोडसे में ऐसी कोई सनक या बुराई नहीं है। जबकि नाथुराम गोडसे का जिस विचारधारा और भारतीय संस्कृति की जिस रूढ़िवादी परंपरा से संबंध था, उसमें प्रेम और उदारता के लिए कोई जगह नहीं थी और न आज है। ये गोडसे के अनुयायी ही हैं जो मोरल पुलिस बने प्रेम करने वालों पर हमले करते हैं और जिनकी सरकारें रोमियो स्कवेड बनाती हैं और लव जिहाद के नाम पर प्रेम करने वालों को जेल में बंद कर देती हैं। 

दरअसल यह पूरी फ़िल्म संघ परिवार के राजनीतिक एजेंडे का जाने-अनजाने अनुसरण करती है। कांग्रेस और नेहरू के प्रति जो नफरत संघ परिवार व्यक्त करता रहा है, फ़िल्म उस नफरत को बढ़ाने में ही योग देती है।

फ़िल्म पूरी दृढ़ता से यह स्थापित करती है कि नाथुराम गोडसे एक साहसी और सच्चा देशभक्त था। गांधी की हत्या उसने जरूर की जिसके लिए उसे माफ कर दिया जाना चाहिए, क्योंकि गांधी जी ने तो उसे माफ कर दिया था। लेकिन अगर गांधी जिंदा रहते तो नाथुराम गोडसे नेहरू और कांग्रेस से कहीं ज्यादा गांधी के नजदीक होता और शायद उनका प्रिय भी।

दरअसल यह फ़िल्म गांधी को संघ परिवार में समायोजित करने, नेहरू और कांग्रेस को खलनायक बताने और गोडसे को महान देशभक्त बताकर नायक के रूप में स्थापित करने के संघी अभियान को कामयाब बनाने की दिशा में उठाया गया एक ठोस कदम है।

निश्चय ही यह फ़िल्म विवेक अग्निहोत्री की फ़िल्म ‘कश्मीर फाइल्स’ की तुलना में ज्यादा चालाकी से और बेहतर ढंग से बनायी गयी है। कलाकारों से काम भी बेहतर ढंग से लिया है। लेकिन इससे फ़िल्म के वास्तविक मंतव्य पर पर्दा नहीं डाला जा सकता। 

( जवरीमल्ल पारख साहित्य और सिनेमा के गंभीर अध्येता हैं। गुडगांव में रहते हैं।)

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