बहराइच। उत्तर प्रदेश के बहराइच में एक ऐसी फसल ने किसानों की तकदीर बदल दी है, जिसने न सिर्फ खेतों को हरा-भरा किया, बल्कि उनके सपनों को भी नई उड़ान दी है। जी हां, यह खेती है केले की। केले की इस खेती ने गांव के उन मेहनतकश लोगों की जिंदगी बदल दी, जिन्होंने अपनी उम्मीदों को कभी मरने नहीं दिया।
जिन किसानों ने जी-तोड़ मेहनत की, उनके सपने सच हुए। चाहे वो गुदुआपुर के राजू सिंह हों, कौड़हा के माधव राम वर्मा, या दहौरा के संजय सिंह, केशवपुर के पप्पू सिंह। इन किसानों ने अपने संघर्ष और चुनौतियों के बल पर सफलता की अनूठी कहानी पेश की है।
राजू सिंह के लिए केले की खेती एक नई सुबह लेकर आई। पहले उनकी सौ बीघा जमीन पर केवल धान और गेहूं की पैदावार होती थी, जिससे घर का खर्च तो चलता था, पर सपने कहीं दूर रह जाते थे। केले की खेती उनके लिए एक नई उम्मीद साबित हुई।

अब वे हर साल 50 लाख से एक करोड़ रुपये तक की आय केले की फसल से प्राप्त कर रहे हैं। इसके साथ ही अपने परिवार को न सिर्फ आर्थिक स्थायित्व प्रदान कर रहे हैं, बल्कि एक विशेष पहचान भी दिला रहे हैं। राजू सिंह बहराइच के गुदुआपुर गांव के एक प्रगतिशील किसान हैं, जो सौ बीघे में केले की खेती करते हैं।
वे कहते हैं, “कभी सोचा नहीं था कि अपने खेत में काम करते हुए अपने बच्चों के लिए इतना कुछ कर पाऊंगा। ये केला नहीं, मेरे लिए खुशियों की फसल है।” पिछले दो सालों से राजू सिंह हर साल एक करोड़ रुपये से अधिक का मुनाफा कमा रहे हैं। उनके खेतों में केले की फसल पूरे साल लहलहाती रहती है।
दहौरा के संजय सिंह भी ऐसे ही सपनों को संजोकर अपनी जिंदगी जीते थे। 80 बीघे जमीन पर खेती करना एक बड़ी चुनौती थी, लेकिन केले की फसल ने उनके जीवन को संवार दिया। पहले वे भी गेहूं और धान की फसल पर निर्भर थे, जो उनकी मेहनत का पूरा फल नहीं देती थी।

केले की खेती ने उन्हें वह अवसर दिया, जिसकी उन्हें तलाश थी। लाखों रुपये की आय से अब वे अपने परिवार के भविष्य के लिए बेहतर योजनाएं बना रहे हैं। संजय कहते हैं, “आज मेरी मेहनत ने मेरे बच्चों को एक उज्ज्वल भविष्य दिया है। केले की हर फसल में मेरे सपने फलते हैं, हर पत्ते में मेरी उम्मीदें हरी होती हैं।”
माधव राम वर्मा की कहानी उन सभी किसानों के दिलों को छू जाती है, जो सीमित संसाधनों के साथ अपने खेतों में दिन-रात मेहनत करते हैं। अस्सी के दशक में कौड़हा आए माधव के पास न जमीन थी, न संसाधन, और उनके पास सिर्फ एक मामूली साइकिल थी। उनकी खेती बैलों तक ही सीमित थी।
उन्होंने पहले मक्का, धान और गेहूं उगाया, लेकिन उनकी कमाई बस गुजारे लायक थी। साल 1990 में उन्होंने गन्ने की खेती शुरू की, जिससे आमदनी में थोड़ा सुधार हुआ और साल 2004 में उन्होंने अपने पहले ट्रैक्टर की खरीद की।
माधव के जीवन का असली मोड़ तब आया, जब उन्होंने 2010 में केले की खेती शुरू की। पहले साल सिर्फ 10 बीघे में केले लगाए, और उसके बाद हर साल इस खेती को बढ़ाते गए। आज वे 40 बीघे में केले की खेती कर रहे हैं और हर साल 40 से 50 लाख रुपये की कमाई कर रहे हैं। उनकी आंखों में अब अपने बच्चों के लिए एक बेहतर भविष्य का सपना है। वे कहते हैं, “मेरे बच्चों के पास वह सब कुछ है, जो मेरे पास कभी नहीं था। हर केले की फसल में मैं अपने बच्चों की मुस्कान देखता हूं।”

केले की खेती ने माधव को न सिर्फ आर्थिक स्थायित्व दिया, बल्कि उन्हें समाज में एक सम्मानजनक स्थान भी दिलाया। अच्छी समझ और अच्छे व्यवहार के चलते इलाके के गन्ना किसानों ने उन्हें स्थानीय चीनी मिल का निर्विरोध डायरेक्टर चुना है। इन दिनों वो एक अच्छी जिंदगी जी रहे हैं।
उनका परिवार सुखी है, और उनके पास एक अच्छा मकान है। साथ ही उन्होंने एक किराने की दुकान और थोक का व्यापार भी शुरू किया है, जिससे उनकी आय में और बढ़ोतरी हो रही है।
केशवापुर के धनेंद्र सिंह की कहानी भी किसी प्रेरणा से कम नहीं। करीब चालीस बीघे में केले की खेती करते हुए उन्होंने उन चुनौतियों का सामना किया, जो एक किसान के जीवन का हिस्सा हैं। पहले उनके पास सिर्फ धान और गेहूं से होने वाली आय थी, जो कभी भी स्थायित्व का अहसास नहीं दिला पाती थी।
पर जब उन्होंने केले की खेती शुरू की, तो मानो जिंदगी ने नई दिशा पकड़ी। वे कहते हैं, “केले की खेती ने हमें सिर्फ पैसा नहीं, सम्मान भी दिया है। हर केले के गुच्छे में मुझे अपने परिवार के सपनों की झलक मिलती है।” आज उनकी फसल से होने वाली कमाई ने उनके जीवन को बदल दिया है, और उनका परिवार बेहतर जीवन जी रहा है।
एक नई कहानी बुन रहा रेहुवा मंसूर
बहराइच जिले की महसी तहसील का एक छोटा सा गांव, रेहुवा मंसूर, अब एक ऐसी कहानी बुन रहा है, जो ग्रामीण भारत के लिए प्रेरणा का स्रोत बन सकती है।

इस गांव के तीरथ राम शुक्ला ने अपनी मेहनत और दृढ़ निश्चय से केले की खेती में जो सफलता पाई है, उसने न सिर्फ उनके घर में खुशहाली लाई, बल्कि गांव के अन्य किसानों के लिए भी एक नया रास्ता खोल दिया है। आज, इस गांव के लोग खेती को एक नई नजर से देखने लगे हैं।
तीरथ राम शुक्ला, जो कभी अपनी हर जरूरत के लिए संघर्ष करते थे, आज चार एकड़ में केले की खेती कर रहे हैं। उनकी इस खेती से होने वाली कमाई ने उनकी जिंदगी में बड़ा बदलाव ला दिया है। पिछले साल प्रति बीघा 80 हजार की कमाई करने वाले तीरथ आज गर्व के साथ बताते हैं, “केले ने हमारे जीवन को संवार दिया है।
पहले घर में पैसों की किल्लत होती थी, छोटी-छोटी जरूरतों के लिए सोचना पड़ता था, पर अब हमारी आमदनी इतनी हो गई है कि न केवल हमारी जरूरतें पूरी हो रही हैं, बल्कि हमने ट्रैक्टर और मोटर कार भी खरीद ली है।”
कभी 95 रुपये रोज की दिहाड़ी पर काम करने वाले तीरथ राम शुक्ल अब बहराइच के सबसे सफल किसानों में से एक बन चुके हैं। तीरथ राम ने अपनी मेहनत और सटीक तकनीक से केले की खेती को इस मुकाम तक पहुंचाया है कि सालाना उनका टर्नओवर 40 से 50 लाख रुपये तक पहुंच गया है।
ग्राउंड रिपोर्ट के लिए जब जनचौक की टीम तीरथ राम के खेत पर पहुंची, तो वे केले की घार से कमजोर केले के गुच्छे अलग कर रहे थे। तीरथ राम ने अपने अनुभव साझा करते हुए बताया, “केले की घार में औसतन 10 से 15 पंजे होते हैं। किसान को चाहिए कि कमजोर फलों को निकाल दें ताकि ऊपर के फल मजबूत और बड़े हो सकें।”

तीरथ राम बताते हैं कि कुछ साल पहले तक वे दैनिक मजदूरी पर काम कर रहे थे। खेती से थोड़ा जुड़ाव था, लेकिन मुनाफा नहीं हो रहा था। साल 2019 में उन्होंने केले की खेती को आजमाने का फैसला किया और देखते ही देखते यह उनकी मुख्य फसल बन गई।
आज उनके पास 18 एकड़ में फैली केले की खेती है। तीरथ राम की सफलता को देख आज आसपास के किसान भी उनसे सलाह लेने आते हैं।
तीरथ राम की खेती की सफलता का सबसे बड़ा राज उनकी तकनीक और पौधों की देखभाल में है। एक एकड़ में लगभग 1200 पौधे लगाए जाते हैं, जिनके बीच की दूरी 6 फीट रखी जाती है।
यह सुनिश्चित करने के लिए कि हर पौधे को पर्याप्त पोषण मिले और जलभराव न हो, हर 15-20 दिन पर सिंचाई की जाती है। वह कहते हैं, “केले की फसल में जलभराव नहीं होना चाहिए, वरना तनागलक जैसी बीमारियां लग जाती हैं।”
रोपाई का सबसे अच्छा समय जून-जुलाई माना जाता है, जिससे पौधे सर्दियों तक 2-3 फीट के हो जाएं और पाले से बच सकें। फसल को पोषित करने के लिए तीरथ राम जैविक खाद का इस्तेमाल करते हैं। वे मुर्गी की बीट और गोबर का भरपूर उपयोग करते हैं, जो फसल की गुणवत्ता और पैदावार दोनों को बढ़ाता है।
संघर्ष और सफलता की कहानी
तीरथ राम शुक्ल जी-9 किस्म के केले लगाते हैं, जो जल्दी फल देने वाली किस्म है और बाजार में भी अच्छी कीमत पर बिकती है। रोपाई के बाद वे खेत में ढैंचा बोते हैं और सितंबर में इसे ट्रैक्टर से मिट्टी में मिलाते हैं, जिससे मिट्टी में पोषक तत्वों की कमी पूरी हो जाती है। फसल की देखभाल में सबसे बड़ी चुनौती है सही समय पर सिंचाई करना और पौधों की जड़ों को नुकसान से बचाना। तीरथ राम बताते हैं, “केले की खेती में प्रति एकड़ डेढ़ से दो लाख रुपये का मुनाफा हो सकता है। एक एकड़ में पौध तैयार करने की लागत करीब डेढ़ लाख रुपये तक होती है। लखनऊ और वाराणसी की मंडियों में हमारे केले की अच्छी मांग रहती है, और वहां हमें अच्छे दाम भी मिलते हैं।”
केले के अलावा तीरथ राम का मुर्गी फार्म, अंडा उत्पादन और मछली पालन भी है। वे कड़कनाथ मुर्गा पालने के साथ-साथ मछलियों के तालाब भी चला रहे हैं, लेकिन उनका मुख्य ध्यान केले की खेती पर है। उनका यह प्रयास न केवल उनकी आर्थिक स्थिति को मजबूत बना रहा है, बल्कि बहराइच के अन्य किसानों के लिए भी एक प्रेरणास्रोत बन गया है। जब हमने उनसे पूछा कि वे खुद खेत में क्यों काम करते हैं, तो तीरथ राम हंसते हुए बोले, “जिस दिन खेत में नहीं आता, उस दिन शरीर में दर्द होता है। खेत में खुद काम करने से फसल से जुड़ाव भी बना रहता है और पता चलता है कि क्या सुधार करना है।”
बहराइच के किसान तीरथ राम शुक्ल की अधिकतर जमीन ठेके पर ली हुई है, लेकिन वे इसे अपनी जमीन की तरह पूरी मेहनत और देखभाल से तैयार करते हैं। जमीन को समतल करवाने के साथ-साथ उसमें भरपूर मात्रा में गोबर और मुर्गी की खाद डालते हैं, जिससे जमीन की उर्वरता बढ़ती है। रासायनिक उर्वरकों का वे सीमित और संतुलित प्रयोग करते हैं, ताकि फसल की गुणवत्ता बनी रहे। तीरथ राम बताते हैं, “शुरुआत में प्रति पौधा 10-15 ग्राम डीएपी, पोटाश और यूरिया देते हैं, और इसके बाद ड्रिंचिंग करते हैं। कुछ हफ्ते बाद इसे दोहराते हैं। फ्लावरिंग के समय पौधों को पोटाश देना बेहद जरूरी होता है, जिससे फल भारी, ज्यादा मात्रा में और लंबी फली वाले होते हैं।”
तीरथ राम के अनुसार, “केले के एक पौधे की लागत लगभग 150 से 175 रुपये आती है। एक पेड़ से औसतन 30 किलो केले की उपज होनी चाहिए, और अगर बाजार में 10 रुपये प्रति किलो का भी भाव मिले, तो एक पौधे से लगभग 300 रुपये की आमदनी होती है। इस तरह किसान आसानी से अपनी लागत और मुनाफा दोनों का हिसाब लगा सकते हैं। वे कहते हैं कि फ्लड सिंचाई से फसल 14 महीने में तैयार हो जाती है, जबकि ड्रिप सिंचाई से कई बार फसल 13 महीने में भी तैयार हो जाती है। कुछ किसान इंटरक्रॉपिंग के रूप में केले के बीच हल्दी भी लगाते हैं, जिससे अतिरिक्त आय का साधन बनता है और जमीन का उपयोग भी बढ़ता है।”

आज तीरथ राम के खेत एक तरह से प्रशिक्षण केंद्र बन गए हैं। आसपास के गांवों के किसान उनकी खेती देखने आते हैं, और तीरथ राम उन्हें सलाह देने में कभी पीछे नहीं हटते। वे बताते हैं, “केले की खेती से मुनाफा तो अच्छा है, लेकिन इसे सही तकनीक और नियमित देखभाल के बिना पाना मुश्किल है। किसानों को चाहिए कि वे खेत की समतलता, सिंचाई और जैविक खाद पर ध्यान दें।” उनकी इस सफलता को देखकर गांव के अन्य किसान भी केले की खेती में दिलचस्पी लेने लगे हैं।
इस साल उनके गांव के दस नए किसानों ने केले की खेती शुरू की है, जिनमें से कुछ का कहना है कि तीरथ की मेहनत और सफलता देखकर उन्होंने भी इस दिशा में कदम बढ़ाया। तीरथ बताते हैं, “पिछले साल हमारे गांव से केले की बीस गाड़ियां निकलती देख ऐसा लगा कि हमारे सपने सच हो रहे हैं। अब यह सिर्फ एक फसल नहीं, बल्कि एक अवसर बन गई है।”
केले की खेती से आए इस बदलाव की गूंज अब रेहुवा मंसूर से निकलकर बहराइच जिले के परेवपुर, दहौरा और अन्य गांवों तक पहुंच चुकी है। यहां के किसान अब पारंपरिक खेती के बजाय केले जैसी लाभदायक फसलों की ओर रुख कर रहे हैं।
इन गांवों के सतीश पांडेय, अनिल सिंह, शंकर मिश्र, दयानंद मिश्र, दिनेश प्रताप सिंह, लक्षमीकांत उपाध्याय, संजीव कुमार सिंह, सोमनाथ शुक्ल और विकास मिश्र जैसे किसान भी अब केले की खेती से अपनी अलग पहचान बना रहे हैं। इन किसानों ने देखा कि केले की खेती में अपार संभावनाएं हैं और उन्होंने इसमें हाथ आजमाने का निश्चय किया।
परेवपुर के किसान संजीव कुमार सिंह बताते हैं, “पहले हम सोचते थे कि सिर्फ पारंपरिक फसलें ही हमारे जीवन का हिस्सा हैं, लेकिन तीरथ भाई की सफलता देखकर हमें अहसास हुआ कि केले की खेती में कितनी संभावनाएं हैं। आज हम भी इस राह पर हैं और हमारा जीवन पहले से बेहतर हो रहा है।”
अनूठे किसान हैं अशोक मौर्य
बहराइच के किसान अशोक मौर्य का जीवन संघर्षों और साहस की कहानी है। खेती में घाटा हुआ तो अपनी जमीन बंटाई पर उठाकर व्यापार करने लगे, पर जब व्यापार में भी घाटा हुआ, तो दोबारा केले की खेती की ओर लौट आए।
अशोक मौर्य कहते हैं, “केले ने हमारी तकदीर बदल दी। इसकी खेती से अब अच्छी आमदनी हो रही है, और हम जैविक तरीके से केले की खेती कर रहे हैं। अगर खर्च निकाल दिया जाए तो प्रति बीघा 50 से 70 हजार रुपये का मुनाफा आराम से मिल जाता है।” पिछले चार-पांच सालों से उनकी केले की फसल लगातार मुनाफा दे रही है।
अशोक मौर्य केवल जैविक तरीके से ही खेती करते हैं। उनका मानना है, “केले की खेती के लिए जमीन ऐसी होनी चाहिए, जिसमें पानी का जमाव न हो क्योंकि केले के पौधों को नमी की जरूरत होती है, लेकिन पानी रुकने से पौधे सड़ सकते हैं। फसल एक से डेढ़ साल में तैयार हो जाती है, इसलिए पोषण का खास ध्यान रखना पड़ता है।
गोबर का खाद डालने से केले की पैदावार और गुणवत्ता में सुधार आता है। जैविक खेती का तरीका बहुत आसान है। हम गड्ढों में 10 किलो सड़ी हुई खाद, 250 ग्राम नीम का पाउडर और 20 ग्राम कार्बोफ्युरॉन मिलाकर डालते हैं। पौधों की जड़ों को गड्ढों के बीच में अच्छी तरह से लगाकर मिट्टी से दबा देते हैं। पौधों के बीच का अंतर लगभग 6 फीट होना चाहिए।”
अशोक मौर्य बताते हैं, “एक एकड़ में करीब 1250 पौधे लगाए जा सकते हैं, जिससे फल एक समान और अच्छी गुणवत्ता के आते हैं। लागत की बात करें तो प्रति एकड़ केले की खेती में लगभग डेढ़ से पौने दो लाख रुपये का खर्चा आता है।
वहीं, एक एकड़ की फसल तीन से साढ़े तीन लाख रुपये तक बिक सकती है, जिससे किसान को प्रति एकड़ करीब डेढ़ से दो लाख रुपये का मुनाफा होता है। अगर सही तरीके से केले की खेती की जाए तो इससे मुनाफा कई गुना तक बढ़ सकता है।”
अशोक मौर्य जैसे किसान नई तकनीक और जैविक तरीके अपनाकर परंपरागत खेती में बदलाव ला रहे हैं और दूसरों के लिए एक प्रेरणा बन रहे हैं। उनका यह सफर सिर्फ आर्थिक उन्नति नहीं, बल्कि किसानों को आत्मनिर्भरता की ओर ले जाने का एक प्रयास है।
टिश्यू कल्चर लैब खुलेगी
बहराइच और इसके आसपास के जिलों, जैसे गोंडा, बलरामपुर, और श्रावस्ती, को आधुनिक तकनीक से केले की खेती के लिए पायलट प्रोजेक्ट के तहत चुना गया है। साल 1993 में कुछ चुनिंदा किसानों—हनुमान प्रसाद शर्मा, राजा जय सिंह, राजा उदय प्रताप सिंह और अब्दुल हक—ने हरी छाल वाले केले की खेती की शुरुआत की थी।
परंपरागत खेती में काफी समय लगता था, और मुनाफा भी सीमित था। लेकिन जब कृषि विविधीकरण परियोजना शुरू हुई, तो टिश्यू कल्चर के माध्यम से जलगांव, महाराष्ट्र से 3600 पौधे लाए गए और किसानों को पायलट फार्मिंग के लिए दिए गए। इस नई तकनीक ने जल्द ही प्रभाव दिखाना शुरू कर दिया, और किसानों की आय में तेजी से इजाफा हुआ।
धीरे-धीरे बहराइच के केले की महक लखनऊ और वाराणसी के बाजारों तक पहुंची। व्यापारियों और आढ़तियों ने जब यहां के केले की लंबी और मजबूत घारों को देखा, तो उनकी रुचि और भी बढ़ गई।
इसे देखकर पौध तैयार करने वाली कंपनियों ने भी अपने नेट हाउस यहां स्थापित किए, और अब इजराइल से आयात किए गए केले के जर्म प्लाज्म का उपयोग करते हुए इन्हीं नेट हाउस में पौधे तैयार किए जा रहे हैं।
फखरपुर ब्लॉक के दहौरा गांव के किसान संजय कुमार सिंह तो केले को किसी चमत्कार से कम नहीं मानते। वह कहते हैं, “केले की खेती ने उनकी आर्थिक स्थिति को मजबूत किया है।” बौद्ध परिपथ पर स्थित परेवपुर गांव के तेज प्रताप सिंह और दिनेश प्रताप सिंह जैसे किसानों के खेत आज उनके आत्मविश्वास की कहानी बयां कर रहे हैं।
बहराइच के केले की मांग अब दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, जम्मू, हिमाचल, उत्तराखंड, और यहां तक कि नेपाल तक बढ़ चुकी है। उद्यान विभाग के योजना प्रभारी आरके वर्मा बताते हैं, “अगर पौध तैयार करने की लैब और विपणन के लिए मंडी की व्यवस्था हो जाए, तो इस इलाके में केले का उत्पादन और भी बढ़ सकता है।
किसानों को एक-दो फसलों पर निर्भर नहीं रहना चाहिए, बल्कि अपने क्षेत्र की मिट्टी और पर्यावरण के अनुसार फसलों का चयन करना चाहिए। यह बेहतर आय का मार्ग है।”
वर्मा कहते हैं, “अब वह दिन दूर नहीं जब यहां के किसान टिश्यू कल्चर केले के पौधों के लिए दूसरे राज्यों पर निर्भर नहीं रहेंगे। उत्तर प्रदेश में लखनऊ के बाद अब बहराइच में दूसरी टिश्यू कल्चर लैब स्थापित होने जा रही है, जिससे किसानों को बेहतर गुणवत्ता के सस्ते केले के पौधे स्थानीय स्तर पर ही मिल पाएंगे।
इससे न केवल खेती की गुणवत्ता बढ़ेगी, बल्कि कम लागत में उत्तम फसल उगाना संभव हो सकेगा।”
बहराइच उत्तर प्रदेश के उन जिलों में से एक है, जहां केले की खेती बड़े पैमाने पर होती है। यहां पांच हजार हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र में केले की खेती होती है, लेकिन अब तक किसानों को टिश्यू कल्चर के पौधे गुजरात या बंगलुरु जैसे राज्यों से मंगवाने पड़ते थे।

इन पौधों पर अधिक परिवहन खर्च लगने के कारण किसानों के लिए यह महंगा सौदा बन जाता था। अब इस नई लैब के आने से उन्हें सस्ते और उच्च गुणवत्ता वाले पौधे आसानी से मिल सकेंगे, जिससे बहराइच के अलावा गोंडा, बलरामपुर, लखीमपुर, सीतापुर, बाराबंकी, और श्रावस्ती जिलों के किसान भी लाभान्वित होंगे।
यह टिश्यू कल्चर लैब दो एकड़ की जमीन पर स्थापित की जाएगी और जिले के उद्यान विभाग की राजकीय पौधशाला, रिसिया में इसका निर्माण होगा। जिला उद्यान अधिकारी पारसनाथ कहते हैं, “लैब की योजना तैयार की गई है। लैब पर लगभग दो करोड़ रुपये का खर्च आएगा, और इसके लिए प्रस्ताव जिलाधिकारी डॉ. दिनेश चंद्र के माध्यम से शासन को भेजा गया है।”
केले की खेती का विस्तार
बहराइच से लेकर लखनऊ तक अब केले की खेती का विस्तार हो चुका है, और इसे देखकर ऐसा लगता है कि यह फसल किसानों की तकदीर बदलने का जरिया बन गई है। तीरथ राम शुक्ला जैसे किसान, जिन्होंने गरीबी के दिन देखे हैं, आज अपने गांव के अन्य किसानों को भी इस सफर में साथ लेकर चल रहे हैं।
वह कहते हैं, “हमने अपनी मेहनत से खुशहाली लाई है, और अब चाहते हैं कि बाकी किसानों के भी दिन बदलें। केले की खेती ने हमें सम्मान और खुशी दोनों दिए हैं।”
केले की खेती के चलते बहराइच जिले ने देश में दूसरे “भुसावल” का दर्जा हासिल कर लिया है। पहले महाराष्ट्र का जलगांव ही केलों की राजधानी माना जाता था, लेकिन अब बहराइच के किसानों का संघर्ष और सफलता इस जिले को एक नई पहचान दिला रहे हैं। महसी इलाके का विकास न केवल खेती में हुआ है, बल्कि तकनीकी उन्नति में भी यह जिला अग्रणी बना है।
माधव, राजू और तीरथ जैसे किसानों ने न केवल अपनी जिंदगियां बदली हैं, बल्कि उन्होंने यूपी में बहराइच को केले की राजधानी का गौरव दिलाया है। ये किसान सिर्फ केला नहीं, बल्कि अपने सपनों की फसल काट रहे हैं।
ये जानते हैं कि खेती में चुनौतियां हमेशा रहेंगी, पर हर मुश्किल का सामना कर उन्होंने अपने लिए एक नई राह बनाई है।
बहराइच के किसानों ने केले के बागीचों में जलवायु प्रबंधन के अद्भुत उपाय भी अपनाए हैं। सूखे क्षेत्रों में केले के पेड़ों को पास-पास लगाकर जमीन की नमी को बरकरार रखने की तकनीक अपनाई गई।
साथ ही, बाग के किनारों में गजराज घास लगाकर एक सूक्ष्म जलवायु प्रबंधन किया गया, जिससे हवा के कारण होने वाले सूखे से बचाव हुआ। यह तकनीक बागों को एक प्रकार के प्राकृतिक कूलर के रूप में काम करने में मदद करती है और पेड़ों को आवश्यक नमी प्रदान करती है।
जलवायु की असुविधाओं के बावजूद, आज महसी तहसील के किसान आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो चुके हैं। यूपी के विभिन्न जनपदों से 70 फीसदी केला अब बहराइच से ही भेजा जा रहा है।
पूर्वांचल की मंडियों के व्यापारी जो पहले महाराष्ट्र के जलगांव से केला मंगाते थे, अब बहराइच से मंगा रहे हैं। अगर केले की खेती के आधार पर किसी जिले को राजधानी बनाया जाए, तो निस्संदेह बहराइच ही इस खिताब का हकदार है।
बहराइच में अब 5500 हेक्टेयर में केले की खेती की जा रही है, और यह आंकड़ा हर साल बढ़ता ही जा रहा है। जरवल ब्लॉक के प्रगतिशील किसान गुलाम मुहम्मद ने साल 2000 में उद्यान विभाग द्वारा दिए गए 250 पौधों से शुरुआत की थी। आज वह 36 एकड़ में केवल केले की खेती कर रहे हैं, जिससे उन्हें प्रति वर्ष कम से कम 40 लाख रुपये का लाभ हो रहा है।
अब उन्होंने केले के प्रसंस्करण के लिए 40 लाख की लागत से राइपनिंग चैंबर यानी केला प्रसंस्करण यूनिट स्थापित कर लिया है। इस यूनिट में प्रति वर्ष 40 से 41 लाख रुपये का लाभ प्राप्त हो रहा है, और इसकी उत्पादन क्षमता 320 क्विंटल है।
मोटा मुनाफा कमा रहे किसान
उत्तर प्रदेश में केले की खेती ने पिछले एक दशक में उल्लेखनीय प्रगति की है, और राज्य का योगदान देश के कुल केले उत्पादन में महत्वपूर्ण हो गया है। पिछले 7 से 8 वर्षों में केले के उत्पादन में 70 फीसदी की वृद्धि देखी गई है, जिससे यह साबित होता है कि धान और गेहूं की पारंपरिक खेती के मुकाबले केला अधिक लाभकारी फसल है।
उत्तर प्रदेश उद्यान विभाग के आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 2014-15 में राज्य में केले का उत्पादन 19,898 टन था, जो 2021-22 में बढ़कर 33,910 टन हो गया है। इस वृद्धि का मुख्य कारण किसानों का अन्य फसलों से हटकर केले की खेती की ओर झुकाव है।
राज्य में लगभग 1.50 लाख हेक्टेयर में केले की खेती हो रही है, जिसमें अकेले लखीमपुर में ही 25,000 हेक्टेयर भूमि पर केला उगाया जा रहा है।
बाराबंकी के प्रगतिशील किसान और पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित रामसरन वर्मा कहते हैं, “केले की खेती किसानों के लिए अधिक लाभकारी साबित हो रही है। किसान प्रति एकड़ दो से तीतन लाख रुपये तक की आय प्राप्त कर रहे हैं, जो कि धान और गेहूं जैसी फसलों की अपेक्षा कहीं अधिक है।
इसी वजह से लखीमपुर, बाराबंकी, सीतापुर, बहराइच, फैजाबाद, बस्ती, कुशीनगर, और प्रयागराज के किसान केले की खेती की ओर आकर्षित हो रहे हैं। यूपी के किसानों को उच्च गुणवत्ता वाले कच्चे केले के लिए सिर्फ 20 से 21 रुपये प्रति किलो का ही दाम मिल रहा है।”
“बहराइच के किसानों का मानना है कि यदि मार्केटिंग व्यवस्था और सप्लाई चेन को सुधारकर उत्तर प्रदेश के केले का निर्यात बढ़ाया जाए, तो उनकी आय में 25 फीसदी तक की वृद्धि संभव है।
आज ताजे फलों में केले की बढ़ती मांग को देखते हुए राज्य के पूर्वांचल क्षेत्र में धान उगाने वाले किसानों ने केले की खेती को अपनाया है और यह उनके लिए अधिक लाभदायक साबित हो रही है। बेहतर क्वालिटी के पौध का चयन, कटाई के बाद शेल्फ लाइफ बढ़ाने के उपायों पर ध्यान देकर किसानों की आय में वृद्धि की जा सकती है।”
निर्यात की संभावनाएं
एपीडा (APEDA) के अनुसार, वर्ष 2021-22 में भारत में कुल केले का उत्पादन 3.25 करोड़ टन हुआ, जिसमें उत्तर प्रदेश की हिस्सेदारी 10 फीसदी से अधिक रही। राज्य का यह योगदान दर्शाता है कि उत्तर प्रदेश देश के केला उत्पादन में एक प्रमुख भूमिका निभा रहा है। उत्तर प्रदेश में जी-9 किस्म के केले की खेती की जाती है, जो कि 7-8 इंच लंबे होने के लिए जानी जाती है।

इस आकार के केले की ग्लोबल मार्केट और मेट्रो सिटीज में अधिक मांग है, और इन्हें अच्छे दाम भी मिलते हैं। इसके विपरीत, छोटे आकार के केले की बाजार में कम मांग होने के कारण इन्हें कम कीमत पर बेचना पड़ता है।
किसानों की शिकायत है कि उन्हें गुणवत्तायुक्त पौध नहीं मिल पा रहे हैं, जिससे उनकी फसल से छोटे आकार के केले प्राप्त हो रहे हैं। यदि किसानों को उच्च गुणवत्ता के पौध उपलब्ध कराए जाएं, तो उनकी फसल का आकार और गुणवत्ता बेहतर हो सकती है, जिससे बाजार में उन्हें अधिक मूल्य मिल सकता है।
केले की उपज के बेहतर विपणन और निर्यात के लिए कूलिंग चेंबर, कूलिंग वैन, और राइपनिंग चेंबर की व्यवस्था की जाए। इन सुविधाओं से 8-10 दिनों तक केले को सुरक्षित रखा जा सकता है, जिससे गल्फ देशों सहित अन्य देशों में निर्यात की संभावनाएं बढ़ेंगी।
प्रगतिशील किसान माधव राम वर्मा कहते हैं, “आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, और मध्य प्रदेश के किसानों को उत्तर प्रदेश के किसानों की तुलना में केले पर 5-10 रुपये प्रति किलो अधिक मूल्य मिलता है, क्योंकि इन राज्यों में निर्यात सुविधाएं बेहतर हैं। अगर सरकार इस दिशा में कदम उठाती है, तो उत्तर प्रदेश के किसानों की आय में भी वृद्धि हो सकती है।”
बाराबंकी के प्रगतिशील किसान मोइनुद्दीन, जिन्होंने पहले बड़े पैमाने पर फूल और केले की खेती की थी, बताते हैं कि निर्यात के लिए ठोस योजना के अभाव में उन्होंने केले की खेती छोड़ दी। उनका कहना है, “अगर निर्यात को बढ़ावा देने के लिए कूलिंग और राइपनिंग चेंबर स्थापित किए जाएं, केले के क्लस्टर बनाए जाएं और ठोस योजना बनाई जाए, तो किसानों की आय में वृद्धि हो सकती है।
सरकार ने साल 2022 में केले के निर्यात को बढ़ावा देने के लिए जरूरी कदम उठाए थे, लेकिन अफसरों की उदासीनता के कारण ये प्रयास धरातल पर नहीं उतर सके।” मोइनुद्दीन का मानना है कि धान और गेहूं की तुलना में केले की खेती तराई क्षेत्र के किसानों के लिए अधिक लाभदायक हो सकती है, लेकिन इसके लिए सरकारी प्रयासों की सख्त आवश्यकता है।
मुनाफे में अंतर और प्रतिस्पर्धा
उत्तर प्रदेश के किसान अपनी फसल का एक बड़ा हिस्सा अन्य राज्यों को सप्लाई करते हैं। हालांकि, गुणवत्तापूर्ण पौध और कम शेल्फ लाइफ के कारण उन्हें दूसरे राज्यों के किसानों की तुलना में कम मुनाफा मिल रहा है।
वर्मा और मोइनुद्दीन दोनों मानते हैं कि अगर सरकार विपणन व्यवस्था में सुधार करती है और निर्यात को प्रोत्साहित करने के लिए ठोस कदम उठाती है, तो उत्तर प्रदेश के किसानों की आय में 25 फीसदी तक की वृद्धि हो सकती है।
उत्तर प्रदेश में केले की खेती ने बीते वर्षों में उल्लेखनीय प्रगति की है, लेकिन विपणन, निर्यात और गुणवत्तापूर्ण फसल की दिशा में अब भी कई चुनौतियां बरकरार हैं। केले की खेती करने वाले किसानों का कहना है कि लंबी दूरी के बाजारों तक पहुंचने और उच्च लागत वाली वाणिज्यिक गतिविधियों की शुरुआत में कई बाधाएं हैं।
इनका समाधान करने के लिए उत्तर प्रदेश के उद्यान विभाग की सक्रियता आवश्यक है। किसानों का यह भी मानना है कि केले की गुणवत्ता और शेल्फ लाइफ को बढ़ाने के लिए विशेष प्रयासों की जरूरत है, ताकि ग्लोबल मार्केट में उत्तर प्रदेश के किसानों को बेहतर दाम मिल सके।
केले की मार्केट सप्लाई चेन को मजबूत करने और निर्यात को बढ़ावा देने के लिए उद्यान विभाग को ठोस कदम उठाने चाहिए। इससे राज्य के केला किसानों की आय में वृद्धि होगी और उन्हें अपने उत्पाद का उचित मूल्य मिल सकेगा।
भारत दुनिया का सबसे बड़ा केला उत्पादक देश है, लेकिन इसके बावजूद केले के निर्यात में उसकी हिस्सेदारी महज एक फीसदी है। वित्त वर्ष 2022-23 में भारत ने केवल 176 मिलियन अमेरिकी डॉलर के केले का निर्यात किया है।
विशेषज्ञों का मानना है कि अगर केले के निर्यात को व्यवस्थित और प्रभावी ढंग से बढ़ावा दिया जाए, तो भारत वैश्विक बाजार में और भी प्रमुखता से स्थापित हो सकता है। इससे न केवल किसानों की आय में वृद्धि होगी, बल्कि इस आपूर्ति श्रृंखला में 10,000 से अधिक लोगों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार मिल सकता है।
भारत से केले का निर्यात मुख्यतः ईरान, इराक, यूएई, ओमान, उज्बेकिस्तान, सऊदी अरब, नेपाल, कतर, कुवैत, बहरीन, अफगानिस्तान और मालदीव जैसे देशों में होता है। एपिडा (APEDA) के अनुसार, अमेरिका, रूस, जापान, जर्मनी, चीन, नीदरलैंड, यूके और फ्रांस जैसे देशों में भी भारतीय केले के निर्यात की संभावनाएं अत्यधिक हैं।
एपिडा का अनुमान है कि 2024 तक भारत का केला निर्यात 303 मिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुंच सकता है।
बहराइच ने दी भुसावल को चुनौती
पहले बहराइच में ज्वार, बाजरा और मोटे अनाजों की खेती हुआ करती थी, लेकिन अब यह तस्वीर तेजी से बदल रही है। यहां के किसान केले की खेती में हाथ आजमा रहे हैं, और यह प्रयोग इतना सफल हो रहा है कि बहराइच को ‘भुसावल’ बनने की दिशा में एक बड़ा कदम माना जा रहा है।
पारंपरिक खेती की सीमाएं तोड़ते हुए बहराइच के किसानों ने इस उभरते क्षेत्र में अपनी पहचान बना ली है।
(विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं। बहराइच से उनकी ग्राउंड जीरो रिपोर्ट)
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