ग्राउंड रिपोर्ट : “हुजूर ! जमीन हमारी मां है, सौदा मत कीजिए; नोटों से खेत बिकेंगे तो बच्चों का भविष्य कहां उगेगा?”

बनारस जिसे वाराणसी और काशी भी कहा जाता है, जहां धर्म और संस्कृति की गूंज होती है, वहां इन दिनों किसानों की कराह भी सुनाई दे रही है। यह कराह शोर नहीं है, यह तड़प है ज़मीन छिनने की। ये वो आवाज़ है जो शांत है लेकिन भीतर बहुत कुछ कह रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र में इंटरनेशनल क्रिकेट स्टेडियम, अर्बन टाउनशिप, स्पोर्ट्स सिटी और फोरलेन सड़क चौड़ीकरण जैसे विकास के नाम पर जबरन भूमि अधिग्रहण के खिलाफ दर्जनों गांवों के किसान कई दिनों से लगातार विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं।

किसानों के विरोध की असल यह है कि जहां के खेतों में सिर्फ अनाज नहीं, संस्कृति भी उगती है, आज उसी काशी की मिट्टी का सौदा हो रहा है। इस सौदे के गवाह हैं गंजारी, परमपुर, हरपुर, हरसोस और आसपास के वे गांव, जहां छोटे-छोटे खेतों में मेहनतकश किसानों की पीढ़ियां पली-बढ़ीं। अब ये खेत, ये घर, ये यादें, सब कुछ ‘विकास’ के नाम पर बुलडोजर के नीचे दबने वाले हैं।

किसानों की आहों और कराहों का दर्द अलग है। उनकी नजर में सरकार कहती है कि वह नई काशी बसा रही है। इसके लिए ‘स्पोर्ट्स सिटी’, ‘वर्ल्ड सिटी’, ‘टाउनशिप’, ‘मेडिसिटी’ जैसे नाम गढ़े गए हैं। सुनने में ये नाम जितने भव्य लगते हैं, उतनी ही करुणा इनमें छिपी है, क्योंकि इन शहरों की नींव पर जिनकी जिंदगियां बिछाई जाएंगी, वे सीमांत किसान हैं, खेतिहर महिलाएं हैं और वे बच्चे हैं जिनका स्कूल अब कहीं दूर विस्थापित होगा।

गंजारी की 65 साल की चमेला देवी अपने घर के आंगन में उदास बैठी थीं। उनका चेहरा झुर्रियों से भरा जरूर है, पर आंखों में एक अजीब सी जिद है। वह कहती हैं, “मैं जब ब्याह कर आई थीं तब ये गांव नया था। खेतों में बबूल और आम के पेड़ थे। कहा जा रहा है कि अब यहां स्पोर्ट्स सिटी’ बनेगी और क्रिकेट खेला जाएगा। हमें खेल नहीं समझ आता। हमें तो सिर्फ यह समझ में आता है कि अगर ये घर चला गया तो हम कहां जाएंगे? किराए के मकान में जी नहीं पाएंगे और खेती तो फिर कभी कर ही नहीं पाएंगे।”

हरसोस की सुशीला देवी के घर में उनका चूल्हा अब भी गोइठे से ही जलता है। खाना बनाते हुए वह कई बार गुमसुम हो जाती हैं। वह कहती हैं, “हमारे यहां भले मोबाइल आ गया हो, लेकिन हमारी दुनिया खेत-खलिहान से ही चलती है। टाउनशिप में हमारे लिए कोई जगह नहीं। हम वहां घुस भी नहीं सकते। जिनके पास कारें हैं, प्लाट हैं, वहां वो लोग ही रह पाएंगे। हम तो बस रजिस्टर में नंबर बनकर रह जाएंगे।”

इसी गांव की इंद्रावती का दर्द भी कुछ ऐसा ही है। उनका बयान गले में अटका हुआ था। वह कहती हैं, “मां हमेशा कहती थीं कि ये खेत तुम्हारे बच्चों को पालेंगे। अब सरकार कह रही है कि इन्हें बेच दो। ये खेत मेरे लिए महज़ खेत नहीं, ये मां का आशीर्वाद हैं। हम कहां जाएंगे, सड़क पर?”

65 गांवों पर सरकार की नजर

बनारस के राजातालाब के पत्रकार और एक्टिविस्ट राजकुमार गुप्ता किसानों के साथ खड़े हैं और उन्हें न्याय दिलाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। उनकी आवाज़ थरथराती है जब वो कहते हैं कि “मोहनसराय से लेकर बाबतपुर एयरपोर्ट तक 65 गांवों पर सरकार की नज़र है। इन गांवों के किसानों से उनका वजूद छीना जा रहा है। वो मिट्टी छीनी जा रही है जिसमें उनकी पीढ़ियों की स्मृतियां बोई गई हैं। कभी रिंग रोड के नाम पर, कभी स्टेडियम के नाम पर और अब स्पोर्ट्स सिटी और टाउनशिप के नाम पर। नाम बदलते हैं, पर ज़ख्म वही रहता है। इन गांवों के किसान दो बार पहले ही ज़मीन दे चुके हैं। अब फिर से उनसे उनकी जड़ें छीनने की तैयारी हो रही है। जिनकी पूरी दुनिया खेती पर टिकी है, उनसे वही छीन लिया जाएगा तो वो कैसे ज़िंदा रहेंगे?”

वे दो टूक कहते हैं, “बनारस का किसान विकास का विरोधी नहीं है। लेकिन क्या विकास का मतलब यही है कि उनकी खेती उजाड़ दी जाए और उनके बच्चों के भविष्य की नींव को ही खोखला कर दिया जाए? अगर सरकार को सचमुच विकास करना है, तो मिर्ज़ापुर जैसे पिछड़े ज़िलों में योजनाएं लाए। उपजाऊ खेतों पर कंक्रीट के जंगल क्यों उगाए जा रहे हैं? भूमि अधिग्रहण कानून साफ़ कहता है कि बहुफसली ज़मीन अधिग्रहीत नहीं की जा सकती है। फिर ये ज़बरदस्ती और ये अन्याय क्यों?”

राजकुमार गुप्ता की आंखों में एक डर है और आवाज़ में आक्रोश, “यह सब एक सुनियोजित कुचक्र है। किसानों से उनकी ज़मीनें छीनी जा रही हैं। कभी शहर के नाम पर, टाउनशिप के नाम पर, स्पोर्ट्स सिटी के नाम पर। कहा जा रहा है कि यह तो सिर्फ़ पहला फेज़ है। इसके आगे और नौ गांवों की ज़मीन ली जाएगी। कुल मिलाकर चार फेज़ में पूरा इलाका निगल लिया जाएगा। लेकिन क्या कभी किसी ने यह सोचा कि जिनके पैरों के नीचे की ज़मीन खींची जा रही है, उनके सिर के ऊपर की छत कहां टिकेगी? उनकी ज़िंदगी किस नींव पर खड़ी होगी?”

हमारी ज़मीन नहीं, हमारी मां है

गंजारी गांव की सुबह पहले जैसी नहीं रही। जहां पहले सूरज की पहली किरण खेतों पर पड़ते ही किसानों के चेहरे पर सुकून की मुस्कान लाती थी और वहां अब चिंता की लकीरें हैं। खेतों की हरियाली अब किसी बुलडोज़र की आहट से कांप रही है। लालचंद, जगधर, चंद्रबली, इंद्रजीत और जयप्रकाश जैसे किसानों की पीढ़ियां मिट्टी से सोना उगाती रहीं और आज उसी मिट्टी को बचाने के लिए सड़क पर बैठे हैं। लालचंद की आंखें धुंधलाई हुई हैं और आवाज़ में थरथराहट है। वह कहते हैं, “जब खेत ही नहीं रहेंगे, तो खाएंगे क्या? ये खेत हमने अपने हाथों से बनाएं हैं। इसमें हमारी जवानी बह गई और अब अफसर कह रहे हैं कि इन पर होटल, मॉल, शोरूम बनेंगे। हम कहां जाएंगे? हमारा तो सबकुछ यहीं है-रोटी, रिश्ते, रहन-सहन।”

बगल में खड़े रामजी गोस्वामी की आंखों से आंसू बहते हैं। वे कहते हैं, “हमने आज़ादी नहीं देखी, लेकिन लगता है कि अब गुलामी देख रहे हैं। हमारे बाप-दादा कहते थे कि आज़ादी के बाद सरकारें जनता के लिए होती हैं। लेकिन अब लगता है कि सरकारें पूंजीपतियों की हैं और हम उनके रास्ते का मलबा। हमें हमारी ही ज़मीन से बेदखल किया जा रहा है।”

किसानों से वार्ता करते पुलिस और प्रशासनिक अफसर

हरहुआ-राजातालाब मार्ग पर बैठे बुजुर्ग किसान हरिनाथ पटेल अपनी लाठी पर झुके हैं, लेकिन हौसले में अडिग, “हमारी ज़मीन सिर्फ़ खेत नहीं है, हमारी मां है। हमने उसकी गोद में अपने बच्चों को खिलाया है। उसी की छांव में हमने त्योहार मनाए और सुख-दुख बिताए। अब उसी मां को हमसे छीनने की कोशिश हो रही है। क्या मुआवज़े के कुछ नोट इस ममता की भरपाई कर पाएंगे?” उनकी आवाज़ कांपती है. लेकिन शब्दों में चट्टान सी मज़बूती है। उनकी बातों में वह दर्द छिपा है जो कागज़ों की सरकारी भाषा में कभी दर्ज नहीं हो सकता।

गंजारी के रंजीत पटेल का कहते हैं, “पहले भी रिंग रोड और स्टेडियम के नाम पर ज़मीन ली गई थी। वादे हुए थे रोजगार के, मुआवज़े के, लेकिन मिला क्या? अब फिर वही झूठ दोहराया जा रहा है। इस बार हम चुप नहीं रहेंगे। अगर हमारी ज़मीन गई, तो जीने का मकसद ही खत्म हो जाएगा।”

किसानों के आंदोलन की अगुवाई कर रहे हैं पूर्वांचल किसान यूनियन के अध्यक्ष योगीराज सिंह पटेल। वे गुस्से और ग्लानि से भरे स्वर में कहते हैं, “क्या वाकई विकास की कीमत सबसे ग़रीब और सबसे मेहनतकश लोगों से वसूली जानी चाहिए? क्या खेल के स्टेडियम, चौड़ी सड़कें और मॉल एक किसान की जिंदगी से ज़्यादा कीमती हैं? यह सिर्फ़ भूमि अधिग्रहण नहीं, बल्कि आत्मा का अपहरण है।”

वे कहते हैं, “हमारी ज़मीनें हमारी मां हैं। यहां बच्चों का जन्म हुआ, ब्याह हुए, यहां हम मरेंगे और यहीं दफन होंगे। अगर सरकार इसे छीनती है तो समझिए हम सबको मार डाला जाएगा। यह आंदोलन अब खेत का नहीं, अस्मिता और अस्तित्व का है। जब तक सरकार टाउनशिप और सड़क चौड़ीकरण की योजना को वापस नहीं लेती, तब तक हमारा आंदोलन जारी रहेगा।”

गंजारी की मिट्टी बचाने की लड़ाई

बनारस के राजातालाब प्रखंड में एक गांव है-गंजारी। इस गांव की पहचान कभी उसके हरे-भरे खेत, मेहनती किसान और स्कूलों में गूंजती बच्चों की किलकारियों से होती थी। लेकिन आज गंजारी के हवाओं में उदासी है, खेतों में सन्नाटा है और चौपालों पर आक्रोश। इस गांव के उस बाग में, जहां कभी आम के झूले लटकते थे वहां आज धरना हो रहा है। वही जगह अब आंसुओं से भीग रही है। वहां बैठी औरतें, बच्चे, बूढ़े सबकी आंखों में एक ही सवाल है, “अगर हमारी ज़मीन चली गई, तो हम कहां जाएंगे?”

इलाके के किसान गंजारी इलाके के कई दिनों से धरना दे रहे हैं। उनके चेहरे पर थकावट नहीं, बल्कि एक गहरी चिंता है और अपनी ज़मीन को बचा लेने की जिद। इसकी वजह है इंटरनेशनल क्रिकेट स्टेडियम, जिसके लिए गंजारी और उसके आसपास के नौ गांवों की उपजाऊ ज़मीनें ली जा रही हैं। यह वही ज़मीनें हैं, जिन्हें पीढ़ियों ने अपने खून-पसीने से सींचा, जहां हर फसल एक त्योहार होती थी और हर बीज में उम्मीद पलती थी।

सरकार कह रही है कि यहां स्टेडियम बनेगा, टाउनशिप बसाई जाएगी, चौड़ी सड़कें निकलेंगी। लेकिन जिन खेतों पर यह सब बनने वाला है, वहां आज भी किसान की थाली उसी खेत की उगी हुई रोटी से सजती है। और जब यही खेत छीने जा रहे हैं तो किसान पूछ रहे हैं, “हम खाएंगे क्या? हमारे बच्चे पढ़ेंगे कहां? गांव के दो स्कूल तो पहले ही तोड़े जा चुके हैं। जिन दीवारों पर कभी बच्चों ने अपनी पहली कविता लिखी थी, उन्हें बिना एक आंसू पोंछे गिरा दिया गया। किसी ने नहीं पूछा कि अब वे बच्चे कहां जाएंगे और कौन उनके भविष्य की ज़िम्मेदारी लेगा? “

धरना स्थल पर बैठे एक बुज़ुर्ग किसान शोभनाथ कहते हैं, “हम मुआवज़े की बात नहीं कर रहे। हम तो अपनी ज़मीन बचाने की बात कर रहे हैं। ये खेत हमारे लिए सिर्फ़ आमदनी का ज़रिया नहीं, बल्कि हमारी पहचान हैं। यहां हमने अपने बच्चों को जन्मते देखा, बड़े होते देखा, इसी मिट्टी में हमने अपनों को दफनाया है। अब अगर यही मिट्टी छिन गई तो हम रहेंगे कैसे? “

किसानों के हाथों में न तो पत्थर हैं, न ही हथियार। सिर्फ़ तख्तियों पर लिखे शब्द हैं, “हम अपनी ज़मीन नहीं देंगे।” उनकी आंखों में डर भी है और गुस्सा भी। डर इस बात का कि कहीं ये विरोध भी अनसुना न रह जाए और गुस्सा इस बात का कि बार-बार वादों में उन्हें ठगा गया। गंजारी की हवा में आज कराह भी है और क्रांति भी। यह आंदोलन सिर्फ़ एक गांव की पुकार नहीं, पूरे देश के किसानों की चेतावनी है, “हमारी ज़मीन नहीं, हमारी मां है। और मां को हम किसी कीमत पर नहीं बेचेंगे।”

गांवों की गलियों में अब बच्चों की हंसी नहीं गूंजती। मांएं कहती हैं, “हमने अपने बच्चों को खेत दिखाकर सिखाया था मेहनत का मतलब। अगर खेत ही नहीं रहे तो हमारी शिक्षा क्या होगी? ” पिता कहते हैं, “ज़मीन बेचकर मिले पैसों से ट्रैक्टर नहीं, ज़मीर खोएंगे हम।”

यह आंदोलन किसी पार्टी का हिस्सा नहीं है। यह उन किसानों की आत्मा की आवाज़ है, जिन्हें मिट्टी से प्यार है और जिन्हें पता है कि मुआवज़ा कभी भी जड़ों की कीमत नहीं चुका सकता। वे जानते हैं कि शहर की चकाचौंध गांव के अंधेरे को मिटा नहीं सकती, बल्कि और गहरा बना देती है।

गंजारी के लोग कहते हैं, “हमें विकास चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं कि हमारी सांसें छीन ली जाएं। ऐसा विकास नहीं जिसमें खेत उजड़ें, स्कूल टूटें, और आत्मसम्मान रौंदा जाए। हमें हमारा हक़ चाहिए, हमारी मिट्टी चाहिए, क्योंकि गंजारी की लड़ाई सिर्फ़ एक ज़मीन की नहीं है, यह लड़ाई उस मां की है, जिसकी गोद में बचपन बीता और जिसके आंचल में पूरी ज़िंदगी बसी है। गंजारी कह रहा है, “यह ज़मीन नहीं, हमारी मां है। और मां को कोई कैसे छोड़ सकता है?”

धरना हर दिन बढ़ता जा रहा है। परमपुर, हरपुर, हरसोस जैसे गांवों से किसान जुटते हैं। “किसान एकता ज़िंदाबाद!” का नारा सिर्फ़ राजनीतिक नारा नहीं, एक जख़्मी दिल की पुकार बन चुका है। मिट्टी की सौंधी महक में अब संघर्ष की गंध है। इस बीच प्रशासन ने भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया को तेज करने की कोशिश की। वीडीए, पीडब्ल्यूडी और राजस्व विभाग की टीमें गांव पहुंचीं, लेकिन किसानों के जबर्दस्त विरोध के कारण बैरंग लौटना पड़ा। किसानों ने दो टूक कह दिया, “विकास चाहिए, लेकिन हमारी जमीन की कीमत पर नहीं। ये ज़मीन हमारी है और इसे कोई नहीं ले सकता।”

आंदोलन शांति से चल रहा है, लेकिन सरकार की अनदेखी उसे उग्र रूप दे सकती है। ये चेतावनी नहीं, दिल से निकली हुई एक करुण पुकार है, “अब और नहीं।” पूर्वांचल के वरिष्ठ किसान नेता राजेन्द्र सिंह हर दिन आंदोलन स्थल पहुंचते हैं। वे कहते हैं, “हरहुआ-राजातालाब रिंग रोड के नाम पर ज़मीनें पहले भी ली गईं। मुआवज़ा मिला, लेकिन जो खेत लिए गए, वो कभी वापस नहीं आए। अब 1000 एकड़ ज़मीन अर्बन टाउनशिप और स्पोर्ट्स सिटी के नाम पर छीनी जा रही है। अफसर सिर्फ़ रटी-रटाई भाषा में बोलते हैं कि मुआवज़ा मिलेगा। लेकिन क्या वे कभी किसानों की आंखों में झांक कर देख पाए हैं?”

छात्र नेता अवनीश पटेल कहते हैं, “अगर 70 फीसदी किसान सहमत हों तभी ज़मीन ली जाए। हम सहमत नहीं हैं। हम जान दे देंगे, लेकिन ज़मीन नहीं देंगे। ये विरोध सरकार की उस नीति के ख़िलाफ़ है जो गांवों को मलबा और किसानों को ‘हटा देने लायक चीज़’ मानती है।”

मनरेगा मज़दूर यूनियन के सुरेश राठौर कहते हैं, “अब बचा ही क्या है हमारे पास? ज़मीन मत छीनिए और न उजाड़िए। शहर बसाना है तो मिर्ज़ापुर जैसे पिछड़े इलाकों में बसाइए जहां वाकई ज़रूरत है। हमारे गांव तो पहले ही मेहनत से सजे हैं। यहां विकास नहीं, केवल विनाश हो रहा है।”

गंजारी के रंजीत पटेल की बातें आंखें नम कर देती है। वह कहते हैं, “हमें न रोजगार मिला, न मुआवज़ा, न इज़्ज़त। अब फिर हमारी पुश्तैनी ज़मीन छीनी जा रही है। सरकार को सोचना चाहिए कि वह विकास किस कीमत पर करना चाहती है?”

धरने में सैकड़ों किसान ओमप्रकाश सिंह पटेल, रामदुलार, राजेश पटेल, अवधेश, रणजीत, राकेश, विरेंद्र बौद्ध, रामचंद्र, सत्यनारायण, कल्पनाथ, राजकुमार, प्रहलाद, मनोज, विनोद, निहोरीलाल, जयप्रकाश सब एकजुट हैं। सभी कह रहे हैं, “हमारी लड़ाई न पार्टी से है, न राजनीति से। यह हमारी मिट्टी, हमारी मां और हमारे वजूद की लड़ाई है।”

“हम कहां जाएंगे, साहब?”

गंजारी में किसानों का आंदोलन अचानक नहीं शुरू हुआ है। पिछले महीने राजातालाब के एसडीएम गंजारी व हरसोस गांव में पहुंचे और किसानों को हुक्म सुनाया कि वो मुआवजा लें और अपनी जमीन सरकार के हवाले कर दें। किसानों ने सवाल किया कि बिना नोटिफिकेशन, बिना गजट के, किस अधिकार से आपने ज़मीन की निशानदेही करा दी? जवाब मिला-अधिग्रहण अभी नहीं हुआ है, पर जब खूंटा गाड़ दिया तो अधिग्रहण का अर्थ भी तो यही है ना?

किसानों का कहना था ये ज़मीन बहुफसली है हुजूर। हर मौसम में कुछ न कुछ उगता है। साग-सब्ज़ी से लेकर धान-गेहूं तक। और भूमि अधिग्रहण कानून साफ़ कहता है कि बहुफसली ज़मीन का अधिग्रहण नहीं हो सकता। फिर क्यों ये छल? वे फिर किसी कोने में, भूखे पेट, अपने टूटे घर के मलबे में बच्चों की आंखों में भविष्य ढूंढेंगे?

कुछ दिन बाद फिर खबर आई कि गंजारी और हरसोस से होकर अब 100 फीट, 200 फीट चौड़ी सड़क निकलेगी और अगल-बगल मॉल बनेंगे, होटल बनेंगे और किसान कहां जाएंगे? इस सवाल का सरकार के पास कोई जवाब नहीं है। गंजारी के धरना-प्रदर्शन में वो किसान हिस्सा ले रहे हैं जिन्होंने बीजेपी को वोट दिया था। यहां वे मज़दूर भी हैं जो कांग्रेस की रैली में नारे लगाते थे। और यहां वे लोग भी हैं जो सिर्फ़ दो वक़्त की रोटी के लिए सुबह से शाम खेत में खटते थे।

किसानों का तर्क यह है कि हमें ऐसा स्टेडियम नहीं चाहिए, अगर उसके बदले हमारे बच्चों की भूख बढ़े। हमें अर्बन सिटी नहीं चाहिए, अगर उसके लिए हमारे गांवों को खामोश कर दिया जाए। हमें वो टाउनशिप नहीं चाहिए, जिसकी नींव हमारी बर्बादी पर रखी जाए। हम बस यही पूछना चाहते हैं, “जब हमारी ज़मीन नहीं रहेगी तो हम जिएंगे कैसे? हम जाएंगे कहां? हेरिटेज के नाम पर हक छीन लिया जाएगा तो क्या बचेगा? “

हेरिटेज सिटी… टाउन सिटी… वैदिक सिटी… ये नाम कितने भी सुनहरे हों, लेकिन जब इन नामों की चकाचौंध में 65 गांव उजाड़े जा रहे हों, तो सवाल उठता है कि क्या सिर्फ नाम बचेंगे और इंसान खो जाएंगे? मोहनसराय से लेकर बाबतपुर एयरपोर्ट तक 65 गांव यानी हज़ारों परिवार। उनके खेत, उनके बगीचे. उनके मंदिर, उनकी यादें… सब मिट्टी में मिल जाएंगी। और फिर सवाल उठता है, “लोग जाएंगे कहां?” इनके बच्चों का भविष्य कहां जाएगा? क्या किसी टाउनशिप में इनकी पीढ़ियों का कोई कोना सुरक्षित रहेगा? जिस तरह ये विस्थापन हो रहा है, उसकी परछाईं नर्मदा घाटी के आंदोलन से मिलती है जहां 250 गांव उजाड़ दिए गए थे और आज तक कई परिवार तंबुओं में ज़िंदगी काट रहे हैं। वही दोहराव यहां भी शुरू हो चुका है।

किसान नेता योगीराज सिंह पटेल ‘जनचौक’ से बातचीत में कहते हैं, “जहां खेतों की हरियाली छिन जाए और उसके बदले चमचमाते मॉल आ जाएं तो किसानों कहां जाएंगे। आज हम बस इतना चाहते हैं कि हमारी ज़मीन बची रहे। कोई आए, हमें समझाए, सुने… वरना ये आग जो भीतर सुलग रही है। कल लपट बनकर उठेगी और तब कोई टाउनशिप नहीं बचेगी, बल्कि सिर्फ़ सिसकती आवाज़ें होंगी…। हुक्मरानों को याद रखना चाहिए कि किसान हारेगा तो तो देश भूखा ही सोएगा। और तब न स्टेडियम काम आएगा, न होटल… बस मिट्टी याद रहेगी, जिसे हमने कभी धरती मां कहा था।”

“राजातालाब के लोग बरसों से मांग कर रहे हैं कि अब जब उनका इलाका शहरी हो चुका है, तो उन्हें शहरी सुविधाएं भी दी जाएं। सड़कें बेहतर हों, पीने का पानी मिले, अस्पताल बने, स्कूलों की हालत सुधरे। लेकिन सरकार उनकी आवाज़ नहीं सुन रही, क्योंकि वहां संसाधन खर्च करना पड़ेगा, बजट लगेगा और बदले में सत्ता को कोई सीधा लाभ नहीं मिलेगा। न वहां से कोई चंदा आएगा, न मुनाफा होगा। जिन गांवों की ज़मीनें हड़पी जानी हैं, वहां विकास की झूठी कहानी गढ़ी जा रही है। लाखों-करोड़ों की दलाली तय हो चुकी है। ज़मीन की खरीद-फरोख्त से कुछ रसूखदारों की जेबें भरेंगी, राजनीतिक दलों को चुनावी चंदा मिलेगा और किसान अपने खेत, अपने आंगन, अपनी यादें-सब कुछ गंवा देंगे। यह विकास नहीं, यह एक गहरी साज़िश है।”

योगीराज यह भी कहते हैं, ” एक रणनीति है जिसमें किसान की तकदीर, उसकी ज़िंदगी, उसकी जमीन सबको बलि चढ़ा दिया जाए। हम चिल्लाएंगे नहीं, लड़ेंगे नहीं, लेकिन अपने हक की मांग पूरी मजबूती से करेंगे। अब बात सिर्फ़ जमीन की नहीं है, बात है पहचान की। बात है पीढ़ियों के भविष्य की। बात है उस मिट्टी की जिसमें हमारे पूर्वजों के पसीने की गंध है। और इस बार, हम खामोश नहीं रहेंगे। हम लड़ेंगे-शब्दों से, तर्कों से, सच्चाई से। जब तक ज़मीन बचेगी, उम्मीद जिंदा रहेगी और जब तक उम्मीद जिंदा रहेगी, किसान झुकेगा नहीं।”

प्रशासनिक दलीलें: वाराणसी विकास प्राधिकरण और आवास विकास परिषद द्वारा तैयार की गई योजना के अनुसार:

  • स्पोर्ट्स सिटी: 208 एकड़ में गंजारी के पास।
  • वर्ल्ड सिटी: 245 एकड़ में कोइराजपुर।
  • मेडिसिटी: 250 एकड़ में लालपुर।
  • टाउनशिप: गंजारी, परमपुर, हरपुर समेत आसपास के गांव।

शासन स्तर पर 1300 हेक्टेयर भूमि के सर्वे के बाद अब 18,000 करोड़ रुपये की परियोजना मंजूरी के लिए सरकार के पास भेजी गई है। जमीनों की रजिस्ट्री पर प्रतिबंध भी लगा दिया गया है। यह कानूनन अधिग्रहण की पूर्व तैयारी मानी जाती है। लेकिन सबसे अहम सवाल यह है कि क्या ग्रामीणों से उनकी सहमति ली गई? कई किसानों का कहना है कि उन्हें कोई अधिसूचना तक नहीं मिली, केवल अफवाहें हैं या पटवारी मौखिक रूप से बता रहा है कि, “सरकारी योजना है, जमीन लेनी पड़ेगी।”

नई काशी योजना में वर्ल्ड सिटी, स्पोर्ट्स सिटी, वैदिक सिटी, मेडिसिटी, वरुणा सिटी और विद्या निकेतन जैसी योजनाएं शामिल हैं। हर एक शहर की परिकल्पना स्मार्ट सिटी की तरह की गई है, जिसमें बड़ी बिल्डिंगें, पॉश रिहायशी इलाके, मॉल, मल्टीप्लेक्स होंगे। लेकिन यहां किसान का बच्चा कहां पढ़ेगा? उसकी पत्नी कहां इलाज कराएगी? उसका घर कहां होगा? ये सवाल विकास के दस्तावेज़ों में नहीं हैं।

कोई भी सरकारी अधिकारी अब तक ग्रामीणों से खुलकर संवाद नहीं कर सका है। किसान खुद को छला हुआ महसूस कर रहे हैं। रंजीत जो गुलाब की खेती करते हैं। वह कहते हैं, “गुलाब अब मेरे हाथों में नहीं रहेंगे। अब यहां पत्थर उगेगा। अगर हमें मुआवज़ा भी मिला, तो क्या करें? शहर में क्या वो पैसा दोबारा एक बीघा जमीन दिला सकता है? “

बनारस के वरिष्ठ पत्रकार विनय मौर्य कहते हैं, “काशी के विकास की गाथा के पीछे एक और कहानी चल रही है, जिसमें हर किसान गुमनाम किरदार है। वह नायक नहीं, केवल बाधा समझा जा रहा है। विकास की इस दौड़ में ज़रूरत है संतुलन की। अगर शहर बसाना है, तो पहले उन हाथों का सम्मान कीजिए जिन्होंने इस मिट्टी को उपजाया। यदि नई काशी बनानी है, तो पुराने गांवों की आत्मा को मिटाकर नहीं, उन्हें साथ लेकर बनाइए, क्योंकि हर स्टेडियम की नींव में सिर्फ कंक्रीट नहीं, कई अनकही कहानियां दबी होती हैं।”

(विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक हैं)

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