जयपुर। “मेरे चार बच्चे हैं। इन्हें स्कूल भेजना तो दूर, खाना खिलाने के लिए भी पैसे नहीं होते हैं। कभी मज़दूरी मिलती है और कभी नहीं मिलती है। ऐसे में मैं इनके खाने की व्यवस्था करूं, या इनकी शिक्षा के लिए चिंता करें? पहले स्कूल में एडमिशन कराने का भी प्रयास किया था। लेकिन जन्म प्रमाण पत्र के बिना स्कूल एडमिशन देने को तैयार नहीं हैं। मैं स्लम बस्ती में रहता हूं। पचास साल पहले मेरे पिता यहां स्थाई रूप से रहने लगे थे। लेकिन आज तक हम में से किसी का आधार कार्ड नहीं बना है।
ऐसे में महिलाएं घर पर ही बच्चों को जन्म देती हैं। जिनका जन्म प्रमाण पत्र नहीं बन पाता है। इसके बिना स्कूल एडमिशन देने को तैयार नहीं हैं। आप बताओ मैं मज़दूरी कर बच्चों का पेट भरूं या इनके एडमिशन के लिए मज़दूरी छोड़कर भाग दौड़ करूं?” यह कहना 40 वर्षीय भोला राम जोगी का, जो राजस्थान की राजधानी जयपुर के रावण मंडी स्थित स्लम बस्ती में रहते हैं।
भले ही राज्य की राजधानी होने के कारण जयपुर शहर बहुत सारी सुविधाओं से लैस होगा। लेकिन इसी जयपुर में आबाद रावण की मंडी नाम से मशहूर स्लम बस्ती, कई बुनियादी सुविधाओं की कमी से जूझ रहा है। करीब 300 लोगों की आबादी वाले इस बस्ती में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदाय के अधिकतर परिवार निवास करते हैं। जिनमें जोगी, कालबेलिया और मिरासी समुदायों की संख्या अधिक है।
यहां स्वास्थ्य और पीने के पानी की समस्या के साथ-साथ बच्चों की शिक्षा भी सबसे प्रमुख मुद्दा है। अधिकतर बच्चे स्कूल जाने की जगह दिन भर खाली घूमते हैं। इसकी वजह से वह कई बार बुरी आदतों का भी शिकार हो जाते हैं। इस सिलसिले में बस्ती के 35 वर्षीय कल्ला राम जोगी कहते हैं कि “बच्चों का आधार कार्ड नहीं बना होने के कारण उनका किसी स्कूल में एडमिशन नहीं होता है।
इसलिए मेरे बच्चे स्कूल न जाकर मेरे द्वारा किये जा रहे कामों को सीखते हैं।” कल्ला राम बांस के बने सामानों को बनाने का काम करते हैं। जिसमें उनकी पत्नी हाथ बंटाती है। अब वह बच्चों के स्कूल नहीं जाने के कारण उन्हें अपना यह पुश्तैनी काम सिखा रहे हैं।

वह बताते हैं कि कुछ वर्ष पूर्व तक विक्रम नाम का एक लड़का स्वैच्छिक रूप से बस्ती के बच्चों को शिक्षित करने आता था। बस्ती के सारे बच्चे उससे पढ़ने जाते थे। जिससे वह थोड़ा बहुत पढ़ना-लिखना सीखने लगे थे। लेकिन फिर उसने अचानक ही आना बंद कर दिया, जिसके बाद अब बच्चों को कोई भी पढ़ाने नहीं आता है।
इस बस्ती के लगभग 25 परिवार कालबेलिया और मिरासी जबकि 35 परिवार जोगी समुदाय के हैं। इनमें करीब 50 से 60 लड़के और लड़कियां ऐसे हैं, जिनकी उम्र स्कूल जाने की है। लेकिन वह शिक्षा ग्रहण करने की जगह या तो दिन भर खाली घूमते हैं, अथवा परिवार की पारंपरिक कलाओं को सीखते हैं। वहीं इस बस्ती में छोटे बच्चों के लिए भी आंगनबाड़ी की कोई व्यवस्था नहीं है। हालांकि इस बस्ती से करीब दो किमी दूर एक प्राइवेट स्कूल भी संचालित है।
लेकिन आर्थिक स्थिति ठीक नहीं होने के कारण वह अपने बच्चों को वहां पढ़ाने में सक्षम नहीं हैं। बच्चे और किशोर स्कूल नहीं जाने की वजह से गलत संगत में आकर आपराधिक कामों में लिप्त होने लगे हैं। बस्ती के अंदर किराना स्टोर चलाने वाले अजय (बदला हुआ नाम) कहते हैं कि “किशोर स्कूल नहीं जाने के कारण गलत दिशा में भटकने लगे हैं। वह दिन भर ताश और जुआ खेलते हैं।

कुछ किशोर नशे में भी लिप्त पाए जाने लगे हैं। इसके लिए वह बस्ती और आसपास के दुकानों में चोरियां भी करने लगे हैं। किसी के भी घर या बाहर रखे सामानों की चोरियां करने लगे हैं। जो इस समाज और क्षेत्र के लिए बहुत चिंता का विषय है।
“वहीं एक अन्य निवासी गंगा राम बताते हैं कि “कई बार इस बस्ती में अलग-अलग संगठनों से जुड़े कार्यकर्ता आते हैं, और विकास से जुड़े पहलुओं पर काम करते हैं। जिसका बस्ती वालों को थोड़े समय के लिए लाभ भी मिलता है। लेकिन कोई भी बच्चों और किशोर-किशोरियों की शिक्षा पर काम नहीं करता है। जिसकी वजह से यहां की नई पीढ़ी को उचित मार्गदर्शन नहीं मिल रहा है।
बस्ती में रह रहे मिरासी समुदाय के सलमान और ईद मोहम्मद बताते हैं कि “करीब 35 वर्ष पूर्व उनका परिवार बेहतर काम की तलाश में अजमेर से इस बस्ती में रहने आया था। यहां अन्य सुविधाओं के साथ-साथ शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाओं की भी बहुत बड़ी कमी है।
यहां के लोग शिक्षा के महत्व को समझने लगे हैं और अपने बच्चों को पढ़ाना भी चाहते हैं, लेकिन घर पर जन्म होने की वजह से उनका प्रमाण पत्र नहीं बनता है, जिससे वह आधार कार्ड जैसी ज़रूरी सुविधाओं को प्राप्त करने से वंचित रह जाते हैं। इसके बिना यहां कोई भी सरकारी स्कूल उन्हें एडमिशन नहीं देता है। “वह बताते हैं कि यहां कालबेलिया और जोगी समुदाय के साथ मिलकर मिरासी समुदाय भी रहता है। उनके सुख-दुःख का साथी होता है। लेकिन बच्चों का शिक्षा से वंचित रह जाना इस बस्ती के सभी परिवारों का सबसे बड़ा दुःख है।

सलमान और ईद मोहम्मद बताते हैं कि बस्ती के अभिभावक रोज़ी-रोटी कमाने में व्यस्त होने के कारण किशोरावस्था में पहुंच चुके अपने बच्चों पर ध्यान नहीं दे पाते हैं, जिसकी वजह से वह बच्चे अपने भविष्य से जुड़े सही और गलत दिशा का चुनाव नहीं कर पा रहे हैं।
यदि उनके लिए शिक्षा की व्यवस्था हो जाए, बिना किसी प्रमाण पत्र के सरकारी स्कूल में उनके पढ़ने की व्यवस्था हो जाए तो यहां के न केवल जागरूक अभिभावकों की चिंता दूर हो जाएगी बल्कि इससे अन्य अभिभावक भी प्रेरित होंगे और अपने बच्चों को पारंपरिक काम को सीखने से पहले स्कूल भेजना पसंद करेंगे।
इस बार के बजट में राजस्थान सरकार ने शिक्षा पर 38 हज़ार 712 करोड़ रूपए खर्च करने का निर्णय लिया है। जिसे राज्य के द्वारा संचालित 63 हज़ार सरकारी स्कूलों पर खर्च किया जायेगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि इस राशि से रावण की मंडी जैसे स्लम बस्ती में रहने वाले बच्चों और किशोर-किशोरियों को शिक्षा से जोड़ने का काम करेगा।
उनके लिए स्कूल तक पहुंचना आसान बनाएगा। जहां बिना किसी प्रमाण पत्र की आवश्यकता और अनिवार्यता के वह आसानी से स्कूल जा सकें, क्योंकि शिक्षा से वंचित बच्चों का भविष्य न केवल किसी परिवार का भविष्य बल्कि समाज और देश का भविष्य भी अंधकारमय बना देता है।
यह वह आवश्यक तत्व है जो मानव समाज के विकास और प्रगति के लिए बहुत जरूरी है। शिक्षा समाज में विवेक, ज्ञान, समझ और समर्पण की भावना विकसित करती है। ऐसे में आज़ादी के 75 साल बाद भी रावण की मंडी जैसे शहरी स्लम बस्ती के बच्चों और किशोर-किशोरियां का इससे वंचित रहना सभ्य समाज के विकास में बहुत बड़ी बाधा है। जिसे दूर करने के लिए केवल सरकार और विभाग ही नहीं, बल्कि समाज को भी आगे बढ़कर बहुत बड़ी भूमिका निभानी होगी।

(जयपुर से नरेंद्र शर्मा की ग्राउंड रिपोर्ट।)
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