बीकानेर। सुबह की पहली किरण जब हमारे घर पर पड़ती है, तो नींद खुलती नहीं, बल्कि आँखें खुद-ब-खुद डर से खुल जाती हैं कि आज फिर वही कच्चे रास्ते को पार करना है। एक किशोरी होने के नाते मैं जानती हूं कि हमारे लिए रास्ते का मतलब सिर्फ दूरी तय करना नहीं है, वो हर दिन एक इम्तिहान है, सहनशीलता और हिम्मत का।
राजपुरिया जैसे राजस्थान के कुछ गांव आज भी ऐसे हैं जहां पक्की सड़क नहीं पहुंची है। जो रास्ता हमें स्कूल, अस्पताल, बाजार या बस स्टैंड तक ले जाता है, वह दरअसल सिर्फ मिट्टी, धूल और गड्ढों का एक लंबा, थकाऊ सफर है। बारिश में कीचड़ से लथपथ और गर्मियों में तपती हुई रेत से भरा ये रास्ता, हमारे जीवन का सबसे बड़ा अवरोध बन जाता है।
सड़क की कमी का असर गांव के बुज़ुर्गों के दैनिक दिनचर्या में देखने को मिलता है। उनके लिए ये रास्ता एक बड़ा अभिशाप है। गांव की एक 72 वर्षीय बुज़ुर्ग मीणा देवी बताती हैं कि उन्हें गठिया की बीमारी है, जिससे उन्हें चलने फिरने में दिक्कत आती है। एक बार उन्हें शहर के अस्पताल जाना पड़ा। 8 किमी दूर अस्पताल पहुँचने में ही उन्हें तीन घंटे लग गए। इतनी तकलीफ देखकर उनका मन ही बैठ गया। वो कहती हैं कि “अब मैं कहीं नहीं जाती, जो होगा यहीं होगा।”

वहीं 61 वर्षीय बुज़ुर्ग किसान तोलाराम कहते हैं कि “कभी-कभी ऐसा लगता है जैसे हम दुनिया से कटे हुए हैं। हमारी दुनिया तो घर में ही सिमट कर रह गई है। इस उम्र में कहीं आने जाने में भी डर लगता है। वर्षा के दिनों में मंडी तक फसल पहुंचाना एक बड़ी चनौती होती है। इससे कृषि कार्य भी प्रभावित होता है।” वह कहते हैं कि ‘अच्छी सड़क के बिना हमने तो जीवन गुज़ार लिया, लेकिन गांव की नई पीढ़ी के विकास में जर्जर सड़क एक बड़ी बाधा है।’
तोलाराम का ये कहना बिलकुल सही है कि ‘नई पीढ़ी के विकास में जर्जर सड़क एक बड़ी बाधा है।’ टूटी सड़क की वजह से बारिश के दिनों में बच्चे अक्सर स्कूल जाते समय कीचड़ में फिसल जाते हैं। कभी उनकी कॉपी गंदी हो जाती है तो कभी स्कूल ड्रेस. जिसकी वजह से वर्षा के दिनों में बच्चे और विशेषकर लड़कियां स्कूल जाना बंद कर देती हैं। इस कारण केवल उनकी पढ़ाई का ही नुकसान नहीं होता है बल्कि उनका आत्मविश्वास भी कमज़ोर हो जाता है।
17 वर्षीय प्रियंका बताती है कि “एक बार मेरी सहेली स्कूल जाते वक्त कीचड़ में गिर गई। उसे काफी चोट आई और उसके घुटने से खून बहने लगा। कीचड़ में गिरने की वजह से उसकी कॉपी भी खराब हो गई। उसने अगले दिन स्कूल जाना छोड़ दिया। उसका कहना था “हर दिन ड्रेस गंदा होने से अच्छा है घर पर रहना।”
सड़क का न होना सिर्फ लड़कियों की पढ़ाई को ही नहीं रोकता है, बल्कि ये उनके पूरे जीवन को सीमित कर देता है। 22 वर्षीय किशोरी सरिता कहती है कि ‘कॉलेज में लड़कियां जब अपने अपने गांव के विकास और उन्नत सड़क की वजह से शहर तक कनेक्टिविटी के बारे में बताती हैं तो मैं चुप हो जाती हूं क्योंकि मुझे पता है, मेरे सपनों और उन तक पहुंचने के रास्ते के बीच जो दूरी है, वो सिर्फ किलोमीटर की नहीं, टूटी सड़क के कारण आने वाली बाधाओं की भी है। हममें से कई लड़कियां अपने मन की बात कह भी नहीं पातीं। कहीं कोई सुनेगा भी नहीं क्योंकि सड़क नहीं होने का दुख कोई समझता ही नहीं, जब तक वो खुद उस रास्ते पर न चला हो।’
वहीं 11वीं में पढ़ने वाली 17 वर्षीय भारती कहती है कि ‘जब हम स्कूल से देर से लौटते हैं, तो सिर्फ हमारे घर वालों को ही डर नहीं लगता है, बल्कि हमें भी घबराहट होती है, और फिर वही होता है, माता पिता स्कूल छुड़वा देते हैं। इस तरह हमारे सपने पीछे रह जाते हैं।’ वह कहती है कि हमारे गांव में लड़कियों को अक्सर कहा जाता है “रात को मत निकलो, रास्ता सुनसान है।” शायद सड़क बेहतर होती तो हम पर ये पाबंदी नहीं लगती।
इस संबंध में सामाजिक कार्यकर्ता सुखराम कहते हैं कि राजस्थान में कई ऐसे गांव हैं जहां सड़क की सुविधा अच्छी नहीं होने के कारण स्कूल तक पहुंचने के लिए छात्र-छात्राओं को प्रतिदिन 5 से 10 किमी पैदल चलना पड़ता है। यह समस्या विशेष रूप से लड़कियों की शिक्षा को प्रभावित करती है, क्योंकि माता-पिता सुरक्षा कारणों से उन्हें दूर के स्कूलों में भेजने के लिए तैयार नहीं होते हैं। जिससे उन लड़कियों की शिक्षा अधूरी रह जाती है। वह कहते हैं कि राजपुरिया गांव के अधिकतर घरों की भी यही कहानी है। जहां टूटी सड़कों से होकर गुजरने की चिंता से मां बाप लड़कियों की पढ़ाई छुड़ा देने को प्राथमिकता देते हैं।
लेकिन अब राजपुरिया गांव की किशोरियां सिर्फ शिक्षा नहीं चाहतीं, बल्कि सम्मान भी चाहती हैं और कभी-कभी सम्मान की पहली शर्त होती है सुरक्षित और बेहतर रास्ता। एक ऐसी पक्की सड़क, जो सिर्फ जमीन पर नहीं, बल्कि किशोरियों के जीवन में एक स्थायित्व और सुरक्षा का मार्ग बन सके। बातें सिर्फ चार दीवारों तक सीमित न रहें, बल्कि पक्की सड़क जैसी मजबूत और साफ होकर दुनिया तक पहुंचें। दरअसल रास्ते का वीरान होना, अंधेरा होना और “रात को मत निकलो” जैसे वाक्य ये सब किसी इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी से कहीं ज्यादा, महिलाओं को ‘घर तक सीमित’ रखने वाली सोच का हिस्सा नजर आता है।
अगर पक्की सड़क न होने की वजह से लड़कियां स्कूल नहीं जा पाती हैं, तो यह सिर्फ शिक्षा का मुद्दा नहीं है बल्कि यह उनकी आजादी, पढ़ने का अधिकार और इज्जत से जीने की बात है। सड़क अगर नहीं है, तो इसमें सिर्फ ईंट और बजरी की कमी नहीं है बल्कि उस सोच की कमी भी है जहां लड़कियों के लिए सुरक्षित रास्ता कभी प्राथमिकता में रहा ही नहीं। लेकिन राजपुरिया गांव की लड़कियां अब बोल रही हैं, सवाल कर रही हैं और लिख रही हैं कि उन्हें एक पक्की सड़क के साथ साथ समाज में एक पक्की सोच भी चाहिए, जो उन्हें एक बराबर का नागरिक माने।
(राजस्थान के लूणकरणसर से ममता शर्मा की रिपोर्ट)