बात तब की है जब लाल किले पर आजाद हिंद फौज के सैनिकों पर मुकदमा चल रहा था। सभी सैनिकों को यहीं कैद किया गया था। कर्नल सहगल, ढिल्लन और शाहनवाज पर मुकदमा चलाया गया। ये सैनिक भारत के स्वाभिमान के प्रतीक बन चुके थे। पूरा देश इनके साथ खड़ा था। कांग्रेस ने आजाद हिंद फौज डिफेंस कमेटी बनाकर इन सैनिकों के बचाव में खड़ी हो गई। भिन्न राह होने के बावजूद पूरी कांग्रेस सुभाष बाबू के फौज के सेनानायकों के साथ थी। नेताजी की अनुपस्थिति में नेहरू अपनी जिम्मेदारी से वाकिफ थे। अरसे बाद उन्होंने वकील का चोगा पहना। इन सैनिकों की गिरफ्तारी और उन पर मुकदमा चलाए जाने से पूरा देश आंदोलित था। धर्म और जाति की दीवारें टूट चुकी थीं।
पर सरकार इस एकता को तोड़ना चाहती थी। सरकार हमेशा की तरह “बांटो और राज करो” की नीति के तहत राष्ट्रीय एकता को सांप्रदायिक रंग देकर खंडित करना चाहती थी। सैनिकों के लिए सुबह जो चाय आती, उसे हिंदू चाय और मुस्लिम चाय का नाम दिया गया, जबकि सभी सैनिक इस तरह के बंटवारे के सख्त खिलाफ थे। पर सरकार का हुक्म था कि हर हाल में हिंदू चाय अलग बनेगी, मुस्लिम चाय अलग बनेगी और इसी नाम से बांटी जाएगी।
सुबह-सुबह हांक लगती थी – “हिंदू चाय… मुस्लिम चाय…” क्रांतिकारी भी इस नफरती व्यवहार को न मानने के लिए कटिबद्ध थे। सो, सुबह चाय आती और क्रांतिकारी उसे एक बड़े बर्तन में मिला देते। फिर बांटकर पी लेते। यह एकता की अद्भुत मिसाल थी।
इसी दौरान महात्मा गांधी भी उन क्रांतिकारियों से मिलने गए। आजाद हिंद फौज के लोगों ने गांधी जी को बताया, “यहां तो सुबह हिंदू चाय और मुस्लिम चाय की हांक लगाई जाती है।” क्रांतिकारियों ने कहा, “ये हमें बांटने की तरकीबें हैं, जिसे हम सफल नहीं होने देते।” गांधी जी ने आश्चर्य से पूछा, “फिर आप लोग क्या करते हैं?”
क्रांतिकारियों ने बताया, “हमने एक बड़ा-सा बर्तन रखा है और उसमें दोनों चाय मिला देते हैं। फिर आपस में बांटकर पी लेते हैं।” गांधी जी इस व्यवहार से बहुत खुश हुए। उन्होंने इसमें सुभाष बाबू की प्रेरणा देखी और उन्हें याद किया।
पर दुखद है कि आजादी के सात दशकों बाद आज फिर वही विघटनकारी शक्तियां नए-नए रूपों में भारत के सामाजिक सद्भाव को तोड़ने के लिए सक्रिय हो उठी हैं और समाज का अधिकांश हिस्सा प्रतिगामी हो गया है। अब तो आए दिन कोई न कोई ऐसे बयान देता मिल जाता है, जिससे ध्रुवीकरण बढ़े। आजाद हिंद फौज के सैनिकों के कारण पुराने फिरंगियों की “बांटो और राज करो” की नीति तो सफल न हो सकी, लेकिन नए फिरंगियों ने फिर से अपनी कोशिशों को परवान चढ़ाना शुरू कर दिया है।
अभी संत के चोले में व्यावसायिक हितों को आगे बढ़ाने वाले रामदेव ने कहा कि अगर फलां शरबत पियोगे तो मस्जिदें, मदरसे बनेंगे और हमारे पतंजलि का पियोगे तो गुरुकुल आदि बनेंगे। कितना शर्मनाक बयान है यह! अपने लाभ के लिए सांप्रदायिकता को हवा देना कितना गर्हित है, कहने की जरूरत नहीं। अगर तब हिंदू चाय और मुस्लिम चाय के नाम पर बांटा जा रहा था, तो आज उसी तर्ज पर हिंदू शरबत और मुस्लिम शरबत के नाम पर बांटा जा रहा है।
सुप्रीम कोर्ट से जलील होने के बावजूद भी इनकी बेशर्मी बरकरार है। अपने उत्पादों का इस हद तक गिरकर प्रचार करने को क्या ही कहा जाए। वाणिज्यिक वृत्ति में नफरत का तड़का लगाना अस्वाभाविक नहीं है। नफरत तो ऐसे लोगों के स्वभाव में होती है, बस मौकों की तलाश रहती है। और फिर आजकल तो जहरीले बयान देने की प्रतियोगिता-सी चल रही है। जब संगठन के शीर्ष स्तर पर गाली देने वाले सम्मान पा रहे हों, तो कोई क्यों इस प्रतियोगिता में पीछे रहे!
याद किया जाए कि कभी स्वामी श्रद्धानंद जामा मस्जिद से हिंदू-मुस्लिम भाईचारे को कायम रखने का संदेश दे रहे थे और आज उसी परंपरा के कुछ लोग खाने-पीने और भाषा में भी हिंदू-मुसलमान खोजते हैं। ऐसे लोग नारा तो अखंड भारत का देते हैं, लेकिन संकीर्णता इतनी कि एक सीमित क्षेत्र में भी दूसरे की उपस्थिति स्वीकार नहीं करते। ये लोग दूसरे के बहिष्कार के मौके ढूंढते हैं। कभी दुकान की नेमप्लेट को लेकर, तो कभी कुंभ में न आने को लेकर शर्मनाक बयानबाजी की जाती है।
जरूरत है ऐसे लोगों को ठीक से पहचानने की, ताकि उनके मंसूबे पूरे न हों और समाज में सद्भाव कायम रहे।
(संजीव शुक्ल स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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