‘कांग्रेस की सरकार’ से ज्यादा ‘हुड्डा की सरकार’ के प्रचार ने हरियाणा में किया नुकसान

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लोकसभा चुनाव के परिणामों के बाद हरियाणा में भाजपा के लगभग दस साल के शासनकाल के प्रति आमजन के साथ-साथ भाजपा के कार्यकर्ताओं में भी एक नाराजगी स्पष्ट तौर पर दिखाई दे रही थी। अलग-अलग सामाजिक वर्ग अपनी अपेक्षाओं के पूरा न हो पाने से भाजपा पर अविश्वास करने लगी थी और मुखर रूप से सरकार की आलोचना करने लगी थी। विधान सभा चुनावों में भाजपा के पास अपनी उपलब्धियां बताने के लिए कुछ विशेष था नहीं। प्रदेश के मुद्दे भाजपा के सामने मुद्दे मुंह बाये खड़े थे। किसानों से लेकर कर्मचारी तक बेरोजगार युवाओं से लेकर महिलाओं तक हर वर्ग सरकार की कार्यप्रणाली से क्षुब्ध था।

भाजपा ने लोक सभा चुनावों में अपना रणनीतिक दांव अन्य ‘पिछड़ा वर्ग’ का चल दिय था जिसका लाभ भाजपा को अपने गढ़ में दक्षिण हरियाणा व जीटी रोड बेल्ट में मिला। भाजपा विधान सभा चुनावों में जीत के लिए अबकी बार फिर भी आश्वस्त नहीं थी। प्रदेश में विभिन्न गुटों को साधने की चुनौतियाँ अलग से भाजपा की चिंता बढ़ाये हुए थी। कार्यकर्ताओं की नाराजगी दूर करने के लिए पंचकूला में की गयी बैठक में कार्यकर्ताओं की कम संख्या और उठते हुए सवालों ने भाजपा को गहरी परेशानी में धकेल दिया था।

गृह मंत्री अमित शाह ने कार्यकर्ताओं को स्पष्ट कर दिया था कि टिकट न मिलने पर वो पार्टी से नाराज ना होना बल्कि पूरी ऊर्जा से चुनावों में जुट जाएँ। पूर्व मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर की कार्यशैली के कारण उपजी नाराजगी को दूर करने में भाजपा जुटी हुयी थी। नये मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी अपने कार्यों से प्रदेश में कोई प्रभाव छोढ़ने में उलझे हुए थे।

लोकसभा चुनावों में 5 सीटों की जीत से कांग्रेस उमीदों की नयी उड़ान पर सवार थी। जनता में व्याप्त असंतोष को अपनी जीत का मंत्र मान कर प्रदेश कांग्रेस अपनी गोलबंदी में मशगूल हो गई। आपसी गुटबाजी को कांग्रेस हल करने में पिछले पांच वर्षों में असफल रही। सबसे महत्वपूर्ण प्रदेश में संगठन को बनाने में भी कांग्रेस कोई उपलब्धि हासिल नहीं कर पायी। पिछले पांच वर्षों से विपक्ष में रहते हुए कांग्रेस के खाते में कोई बड़ा आंदोलन नहीं है। बेरोजगारी, मंहगाई, किसानों के मुद्दों को लेकर कांग्रेस जमीन कोई गोलबंदी करने में असक्षम साबित हुयी। राहुल गाँधी की भारत जोड़ो यात्रा के बाद प्रदेश में कांग्रेस की कोई ठोस रणनीति सामने नहीं आयी। लोक सभा चुनावों में मिली जीत और राज्य सरकार से जनता की नाराजगी के सहारे कांग्रेस अपनी जीत मान कर बैठी रही। प्रदेश कांग्रेस ने टिकट बंटवारे में एकतरफा वर्चस्व पूरे प्रदेश में नकारात्मक संदेश दिया।

दरअसल हरियाणा में भूपेंद्र हुड्डा की महत्वाकांक्षा और कांग्रेस पर वर्चस्व ने कांग्करेस के दूसरे नेताओं को नाराज कर दिया। लोकसभा चुनाव से पहले कुमारी सैलजा की पूरे हरियाणा में राजनीतिक यात्रा ने हरियाणा में अन्य जातियों को कांग्रेस की ओर पलटने में एक भूमिका निभायी उसका परिणाम लोकसभा चुनावों में स्पष्ट देखने को मिला। जिससे कांग्रेस 5 सीटों पर विजयी हुयी। विधानसभा चुनाव आते-आते भूपेंद्र हुड्डा ने प्रदेश में एक रणनीति के तहत कांग्रेस पार्टी से खुद को बड़ा बना कर दिखाने के प्रयासों में पूरी ताकत झोंक दी। चुनाव से पहले के प्रचार ‘कांग्रेस की सरकार’ से ज्यादा ‘हुड्डा की सरकार’ पर केंद्रित कर दिए।

विधानसभा चुनावों में भाजपा के पास दस साल के कार्यकाल के बाद भी बताने लायक कोई उपलब्धि नहीं थी। हर मुद्दे पर विफलता को ढकने के लिए बार-बार पिछड़ा वर्ग और दलितों को लुभाने के प्रयास भाजपा कर रही थी। कांग्रेस को लोकसभा में प्रदेश की दोनों आरक्षित सीटों पर मिली सफलता से प्रेरित हो कर कुमारी सैलजा ने फिर से यात्रा निकालने की घोषणा कर दी। जिसका उद्देश्य कांग्रेस की झोली में और अधिक सफलता को लाना था। लेकिन भूपिंद्र हुड्डा खेमे को सैलजा का बढ़ता रुतबा नागवार गुजरने लगा और अपना अधिपत्य बढ़ाने के लिए आनन-फानन में दीपेंद्र हुड्डा ने एक समानांतर अभियान ‘हरियाणा मांगे हिसाब’ की घोषणा कर दी। हालाँकि इस अभियान को केंद्रीय नेतृत्व से अनुमति नहीं मिली। सैलजा की यात्रा से पहले ही दीपेंद्र हुडा ने अपने खेमे को इकट्ठा करके पंचकुला में जाकर हरियाणा मांगे हिसाब अभियान की शुरुआत कर दिया था।

हरियाणा मांगे हिसाब के बाद भाजपा को बैठे बिठाये कांग्रेस और हुड्डा के पिछले 10 साल के कार्यकाल का हिसाब मांगने का जो मौका मिला उसको भाजपा ने अपने प्रचार का आधार बना लिया। भाजपा ने अपने हिसाब बताने से पहले ही कांग्रेस से हिसाब मांगना शुरू कर दिया। नौकरियों में पक्षपात से लेकर पैसों में नौकरियां बांटने की बात हो या दलितों पर हुए हिंसा की बात या अन्य मुद्दे।

भाजपा ने कांग्रेस को घेर कर अपना रास्ता आसान कर लिया। खर्ची पर्ची के नैरेटिव ने हुड्डा के शासन को लोगों के जेहन में फिर से ताज़ा करने में पूरा जोर लगा दिय। प्रधानमंत्री की रैलियाँ भी इसी बिंदु पर केंद्रित रहीं। टिकटों के बंटवारे में भूपेंद्र हुड्डा खेमे की मनमानी ने आमजन खासकर अन्य पिछड़े वर्गों में एक असुरक्षा की भावना को जागृत कर दिया। अबकी बार हुड्डा सरकार खुद को जीता हुआ मान कर अपनी गोलबंदी में मशगूल हो गई। यही से चुनाव में जो चूक हुयी। बचा खुचा काम बागियों ने कर दिया।

चुनाव परिणामों के बाद भी प्रदेश कांग्रेस में हुड्डा खेमे को ज्यादा चिंता नेता विपक्ष बनाने बनवाने की है न की हार का दायित्व स्वीकारने की।

(जगदीप सिंह सिंधु वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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