हाल के वर्षों में हम देख रहे हैं कि कई राज्यों के मुख्यमंत्री लगातार यह शिकायत कर रहे हैं कि साल दर साल केंद्र से मिलने वाले राजस्व में कटौती हो रही है। विशेषकर दक्षिण भारत के राज्यों की ओर से यह शिकायत उत्तरोत्तर तेज होती जा रही है, और कई बार देखने को मिलता है कि ये लोग देश की राजधानी में आकर अपना विरोध प्रदर्शन तक करने लगे हैं।
लेकिन यह सब ठीक-ठीक हो कैसे रहा है, और 2017 से देश में जीएसटी लागू किये जाने के बाद 5 वर्षों तक टैक्स में राज्यों को होने घाटे की क्षतिपूर्ति को केंद्र सरकार द्वारा भरपाई की अवधि खत्म होने के बाद से राज्य सरकारों का हाल दिन-प्रतिदिन बुरा कैसे होते जा रहा है, का डेटा उपलब्ध नहीं हो पा रहा था।आज अंग्रेजी दैनिक, द हिंदू के डेटा पॉइंट में समरीन वानी ने इसे स्पष्ट करते हुए बताया है कि कैसे करों के बंटवारे में सिकुड़न आ रही है, और इसमें विशेष तौर पर दक्षिणी राज्यों का हिस्सा कम हो चुका है।
इस लेख को 2002 से लेकर 2025-26 के बजट दस्तावेजों, CMIE तथा द हिंदू अखबार के आंकड़ों के आधार पर तैयार किया गया है।इसमें 1 चार्ट और सन 2002 से अभी तक के केंद्र के द्वारा राज्यों को बांटे जाने वाले धन को प्रतिशत के आधार पर दर्शाया गया है।
लेख की शुरुआत ही इस तथ्य को स्थापित करने के साथ होती है कि कोरोना महामारी (2020 से) केंद्र सरकार द्वारा टैक्स के रूप में एकत्र किए जाने वाले प्रत्येक 100 रुपये में से 10-11 रुपये (या 10-11%) सेस और सरचार्ज के तौर पर वसूल किये जा रहे हैं, और यह प्रवृत्ति महामारी वर्ष 2020-21 से यथावत जारी है। इतना ही नहीं, केंद्र सरकार प्रत्येक 100 रुपया टैक्स इकट्ठा करने में जो 1-2 खर्च करती है, उसे कलेक्शन करने की लागत कहा जाता है। इस सेस और सरचार्ज के रूप में जमा की गई राशि के साथ-साथ इसे इकट्ठा करने में जो लागत वसूली जाती है, उसे राज्यों को दिए जाने वाले विभाज्य पूल में शामिल नहीं किया जाता है, जिसका मतलब हुआ कि सेस और सरचार्ज के तौर पर जो 11% हिस्सा टैक्स में वसूला गया, उसे राज्यों के साथ साझा करने की जरूरत खत्म हो जाती है।
2021-22 में केंद्र के द्वारा टैक्स के तौर पर जो प्रत्येक 100 रुपया वसूला गया, उसमें सेस, सरचार्ज और इन्हें इकट्ठा करने की लागत को जोड़ दें तो यह 13.5 रूपये के उच्च स्तर तक पहुंच गया था, जो कि अपनेआप में उच्चतम रिकॉर्ड है। हालांकि इसमें धीरे-धीरे कमी आ रही है और 2025-26 के लिए नवीनतम बजट अनुमान (बीई) के अनुसार इसके लगभग 10.97 रुपये तक रह जाने की उम्मीद है। लेकिन गौर करने वाली बात यह है कि कोरोना महामारी से पहले के वर्षों में यह आंकड़ा मात्र 5 से 7 रुपये के बीच झूलता रहता था। कोविड-19 महामारी को खत्म हुए दो वर्ष से ज्यादा बीत चुके हैं, लेकिन अभी भी सेस और सरचार्ज के माध्यम से डबल टैक्स की वसूली कर सारे राजस्व पर केंद्र का आधिपत्य बना हुआ है।
नतीजा यह है कि विभाज्य पूल सिकुड़ता जा रहा है, और इन आंकड़ों को विभाज्य पूल के नजरिए से देखा जा सकता है। चूँकि पिछले कुछ वर्षों से सेस और सरचार्ज का हिस्सा बढ़ा है, इसके चलते विभाज्य पूल सिकुड़ गया है। महामारी वर्ष 2020-21 के बाद से, विभाज्य पूल केंद्र द्वारा एकत्र किए गए प्रत्येक 100 रुपये के लिए 90 रुपये से भी कम हो चुका है। 1 फरवरी को प्रस्तुत 2025-26 के बजट अनुमान के मुताबिक, इसके 90 रुपये से नीचे बने रहने की उम्मीद है। इसके उलट यदि हम कोविड महामारी से पहले के कई वर्षों को देखें तो यह आंकड़ा 91 रूपये से 95 रुपये के बीच बना हुआ था।
जैसा कि चार्ट 1 में दर्शाया गया है कि वित्त वर्ष 2013-14 में राज्यों के साथ साझा किये जाने वाले राजस्व का कुल प्रतिशत 93.47% था जबकि सेस और सरचार्ज के तौर पर मात्र 6.53% वसूली की जा रही थी। लेकिन यदि 2025-26 के बजट को देखें तो राज्यों के साथ साझा किये जाने वाले राजस्व की हिस्सेदारी घटकर 89.03% हो चुकी है, जबकि सेस और सरचार्ज के माध्यम से केंद्र सरकार की मुट्ठी में 10.97% कर संग्रह हो रहा है।
वर्तमान में देखें तो सभी राज्यों को कुल मिलाकर विभाज्य पूल से कुलमिलाकर 41% हिस्सा मिलता है। यह आंकड़ा वित्त वर्ष 21-26 की अवधि के लिए 15वें वित्त आयोग की सिफारिशों के आधार पर निकाला गया है। जबकि इससे पहले वित्त वर्ष 2016 से लेकर 2020 के बीच विभाज्य पूल का हिस्सा 42% तय किया गया था, जोकि वित्त वर्ष 2016 से पहले दिए जाने वाले 32% हिस्से से काफी अधिक है। लेकिन इसके साथ ही हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि तब राज्यों के पास वैट या सेल्स टैक्स वसूल करने के अधिकार थे, जिसमें केंद्र का कोई दखल नहीं था।
कई विशेषज्ञों ने पहले भी इस बात की ओर ध्यान दिलाया है कि एक ही फॉर्मूला होने के बावजूद, व्यवहारिक तौर पर राज्यों को वास्तविक हस्तांतरण वास्तव में जिन सिफारिशों पर सहमति बनी थी, उससे कम है। वास्तव में देखें तो कई गैर-बीजेपी शासित राज्य तो अब यह मांग करने लगे हैं कि इस हिस्सेदारी को 41% से बढ़ाकर 50% कर दिया जाए।
इसमें जीएसटी क्षतिपूर्ति उपकर को विचाराधीन उपकरों की सूची में शामिल नहीं किया गया था, क्योंकि इसे जीएसटी के कार्यान्वयन के कारण राज्यों को होने वाली राजस्व हानि की भरपाई के लिए एकत्र किया गया था।
सेस का उपयोग भी लक्षित उद्येश्यों के लिए नहीं हो रहा
हालांकि सेस और सरचार्ज में की गई वृद्धि अपनेआप में समस्या का एक पहलू है, लेकिन अक्सर देखने को मिलता है कि उनका उपयोग उन विशिष्ट उद्देश्यों के लिए भी नहीं किया जाता, जिनके लिए उन्हें वसूला गया था।
भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) की कई ऑडिट रिपोर्टों में स्पष्ट रूप से बताया गया है कि इन सेस (उपकरों) को पूरी तरह से आरक्षित निधि में स्थानांतरित नहीं किया जा रहा है या इच्छित उद्देश्यों के लिए पर्याप्त रूप से इनका उपयोग नहीं किया जा रहा है। उदाहरण के लिए, कच्चे तेल के सेस को तेल उद्योग विकास निकाय को हस्तांतरित किया जाना था, जिसका पालन नहीं किया जा रहा है। ऐसी करीब तीन नवीनतम रिपोर्ट हैं, जिसमें सीएजी ने बताया है कि वित्त वर्ष 2020 से वित्त वर्ष 2022 के बीच नामित आरक्षित निधि में स्थानांतरित किए जाने वाले लगभग 2.19 लाख करोड़ रुपये के सेस को उन मदों में स्थानांतरित नहीं किया गया।
सभी राज्यों को कुल मिलाकर विभाज्य पूल का 41% हिस्सा प्राप्त होता है, जिसे वित्त आयोग के द्वारा तय किये गये एक सूत्र के आधार पर गणना कर प्रत्येक राज्य को उसका हिस्सा दिया जाता है। मुख्य रूप से, इसे आय दूरी के द्वारा तय किया जाता है, जो इस बात को मापता है कि कोई राज्य उच्चतम प्रति व्यक्ति आय वाले राज्य से कितनी दूरी पर स्थित है। इसके साथ इसमें जनसंख्या, जनसांख्यिकीय प्रदर्शन (जनसंख्या नियंत्रण), वन क्षेत्र, क्षेत्र एवं कर संग्रह में दक्षता जैसे अन्य कारकों को भी महत्व दिया जाता है।
हालांकि कुछ राज्यों ने विभाज्य पूल में उनके हिस्से की गणना के तरीके को लेकर सवाल खड़े किये हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि यह फार्मूला कहीं न कहीं राजनीतिक पूर्वाग्रह का शिकार है और इसके चलते उनके राज्य को आर्थिक और सामाजिक प्रगति से वंचित होना पड़ रहा है।
विभाज्य पूल में राज्यों को मिलने वाले हिस्से की कहानी
वित्तीय वर्ष 2002 से 2025 की तुलना करने पर यह माजरा काफी हद तक स्पष्ट होने लगता है। अख़बार ने तालिका 2 में वित्त वर्ष 2002, 2007, 2012, 2017, 2022 और 2025 में विभिन्न राज्यों को विभाज्य पूल से मिलने वाले राजस्व को दर्शाया है। इस तालिका को देखने पर बेहद चौंकाने वाले परिणाम नजर आते हैं। लगभग सारे ही दक्षिणी राज्यों के हिस्से में घटोत्तरी हुई है। सबसे भयानक मार केरल को पड़ी है। वित्तीय वर्ष 2002 में केरल को जो 3.08% हिस्सा प्राप्त होता था, वह वित्तीय वर्ष 2017 में गिरकर 2.5% हो चुका था, लेकिन वित्तीय वर्ष 2026 के (बजट अनुमान) में तो इसके और भी कम होकर 1.9% हो जाने का अनुमान है। यह गिरावट 61.68% है, जबकि केरल राज्य को विभाजित कर कोई नया राज्य भी नहीं बना है।
इसी तरह वित्त वर्ष 2002 में तमिलनाडु का हिस्सा 5.46% था, वो भी वित्तीय वर्ष 2017 में घटकर 4.02% रह गया था, और वित्तीय वर्ष 2026 में भी इसके इसी स्तर पर रहने की उम्मीद है। वित्तीय वर्ष 2002 में कर्नाटक का हिस्सा 4.98% था, जिसके वित्तीय वर्ष 2026 बजट अनुमान के हिसाब से 3.6% रह जाने की उम्मीद है। इसी प्रकार वित्त 2002 में आंध्र प्रदेश और तेलंगाना की हिस्सेदारी 7.7% थी, वह वित्तीय वर्ष 2017 में घटकर 6.75% रह गई थी, और वित्तीय वर्ष 2026 में इसके घटकर 6.1% रह जाने की उम्मीद है। इस दौरान पश्चिम बंगाल और ओडिशा की हिस्सेदारी में भी लगातार कमी हुई है।
यदि आप सोच रहे हैं कि इसका बड़ा लाभ उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों को मिला होगा, तो ऐसा नहीं है। वित्त वर्ष 2002 में उत्तर प्रदेश को 19.15% प्राप्त होता था, जो 2012-13 में बढ़कर 19.68% तक पहुंच गया था, लेकिन वित्त वर्ष 2017-18 में यह घटकर 17.96% कर दिया गया और इस वित्तीय वर्ष में भी उसके हिस्से में 17.90% ही मिलने की उम्मीद है। बिहार को लेकर इस बार के बजट में वित्त मंत्री ने जमकर प्रचार किया, लेकिन 2002 की तुलना में उसके हिस्से में भी कटौती जारी है। वित्तीय वर्ष 2002 में बिहार को 11.49% प्राप्त हुआ था, जिसके 2025-26 में 10.1% हो जाने की उम्मीद है।
कौन से राज्य लाभ की स्थिति में हैं?
2002 में महाराष्ट्र के हिस्से में 4.71% थे, जिसके वित्त वर्ष 25-26 में बढ़कर 6.3% तक पहुंच जाने की उम्मीद है।राजस्थान भी 5.49% से थोड़ा बढ़कर 6% हिस्सेदारी पाने वाला राज्य बन गया है। मध्य प्रदेश एक अन्य राज्य है जिसकी हिस्सेदारी 2002 में 6.47% थी, वह अब 7.9% तक होने जा रही है।छत्तीसगढ़ और झारखंड को भी इसका लाभ मिल रहा है। लेकिन गुजरात की तो बात ही रह गई।
वित्त वर्ष 2002 में गुजरात को मिलने वाला प्रतिशत 2.87 था जिसे वित्त वर्ष 12-13 में बढ़ाकर 3.04% तक कर दिया गया था। लेकिन वित्त वर्ष 25-26 में यह अब बढ़कर 3.5% तक पहुंच चुका है। इनमें से एक झारखंड को छोड़ दें तो सभी राज्यों में भाजपा की सरकारें हैं।
हालांकि यह भी सच है कि इस हिस्सेदारी में पूर्वोत्तर के राज्यों (अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड, मणिपुर, सिक्किम और त्रिपुरा) और छोटे राज्यों (गोवा, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और जम्मू-कश्मीर) के हिस्से में सबसे ज्यादा वृद्धि की गई है। इन राज्यों की हिस्सेदारी में यूपीए सरकार के दौरान भी वृद्धि की गई थी, जिसे मोदी सरकार ने और आगे बढाया है, लेकिन किन राज्यों की कीमत पर?
इस प्रकार हम इन महत्वपूर्ण आंकड़ों के माध्यम से पाते हैं कि न केवल राज्यों को बांटे जाने वाले विभाज्य पूल में सेस और सरचार्ज के माध्यम से सिकुड़न आ रही है, बल्कि कुछ राज्यों को आवंटित किये जाने वाले हिस्से में भी कमी का सिलसिला लगातार जारी है। इसमें से अधिकांश राज्य दक्षिण भारत से हैं, और बंगाल, ओडिसा सहित उत्तर प्रदेश और बिहार को भी इसका दंश झेलना पड़ रहा है। हालाँकि यूपी और बिहार जैसे राज्यों को केरल या अन्य दक्षिण के राज्यों की तरह बड़े असंतुलन का सामना नहीं करना पड़ रहा है।
यही वह मुख्य वजह है जिसके चलते आये दिन दक्षिण भारत के राज्य लगातार असंतोष को व्यक्त कर रहे हैं। देश की जीडीपी और विदेशी निवेश में अग्रणी दक्षिण न सिर्फ सबसे बढ़चढ़कर केंद्र के साथ जीएसटी और आयकर में हिस्सेदारी करते हैं, बल्कि हाल के वर्षों में देश के भीतर सबसे बड़ी संख्या में पिछड़े राज्यों का श्रमिक वर्ग इन राज्यों में ही रोजगार की तलाश में पलायन कर रहा है। क्या इन विपक्ष शासित राज्यों को उनके अधिकार से सिर्फ इसलिए वंचित करना उचित है कि इन राज्यों में से किसी में भी भाजपा की सरकार नहीं है, और निकट भविष्य में भी कोई सूरत नजर नहीं आती?
(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं)
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