कुछ लम्हे ऐसे होते हैं जो तिजारत की दुकानों में नहीं मिलते, वो किसी विज्ञापन से नहीं बनते, बल्कि यादों की तह में, दिलों की दरारों में, और रिश्तों की रूह में पलते हैं। रूह अफ़ज़ा उन्हीं लम्हों में से एक है – एक बोतल नहीं, एक दौर है। एक पेय नहीं, बल्कि तहज़ीब का मीठा दस्तावेज़, जिसमें न सिर्फ़ स्वाद है, बल्कि साझी विरासत का सुर्ख रंग भी है।
जब बोतल में तहज़ीब बंद हो…
रूह अफ़ज़ा का ज़िक्र करते ही ज़हन में वो शामें तैरती हैं जब इफ्तार की दस्तरख़्वान पर वो पहला घूंट राहत बनकर उतरता था। वो दोपहरें याद आती हैं जब गर्मी से बेहाल बच्चों को घर लौटते ही माएं बर्फ में डूबा एक गिलास थमा देती थीं। वो सावन की फिज़ा, वो होली-दिवाली की मेलजोल वाली तस्वीरें – ये सब उस एक बोतल में कहीं समाया रहता है।
मगर आज वही बोतल कुछ लोगों को खटक रही है।
जब सियासत को मिठास से डर लगने लगे…
बाबा रामदेव जैसे व्यापारी जब रूह अफ़ज़ा को “जिहादी शरबत” कहकर नफ़रत का रंग पोतने लगते हैं, तो ये समझ लेना चाहिए कि अब तास्सुब की हदें बोतल की तह तक उतर चुकी हैं। ये वही व्यक्ति हैं जो “गाय का मूत्र” बेचकर इसे आर्य संस्कृति का प्रतीक बताते हैं, और जिनका अधिकतर उत्पाद बाज़ार में मुंह की खा चुका है – मगर उन्हें असल डर उस तहज़ीब से है जो बिकती नहीं, बस दिलों में बसती है।
क्योंकि रूह अफ़ज़ा कभी किसी मज़हब का इश्तिहार नहीं बना। वो कभी ‘हिन्दू’, ‘मुसलमान’, ‘सिख’ या ‘ईसाई’ नहीं हुआ। वो बस रूह को ठंडक देता रहा। मगर अब नफ़रत के सौदागर चाहते हैं कि उस ठंडक को भी शक की गर्मी से जला दिया जाए।
कड़वाहट के इस दौर में मिठास एक जुर्म है…
आज जब मोहब्बत एक बयान बन जाए, और राहत एक प्रचार का हिस्सा ठहरा दी जाए – तो समझ लीजिए कि मुल्क किस मोड़ पर खड़ा है। अब सवाल रूह अफ़ज़ा के स्वाद का नहीं है, अब सवाल उस तहज़ीब का है जो हर बोतल के साथ पीढ़ियों से एक कहानी सुनाती रही है – मोहब्बत की, मेल की, साझेदारी की।
जब एक शरबत भी ‘आइडियोलॉजी’ बन जाए, तो समझिए कि लड़ाई अब ज़ुबानों की नहीं, ज़मीर की है।
ये रूह अफ़ज़ा नहीं, एक इम्तिहान है…
हर बार जब इस शर्बत पर कीचड़ उछाली जाती है, तो ये उस तहज़ीब पर वार होता है जो सदियों से लिबासों में नहीं, लहज़ों में ज़िंदा रही है। वो तहज़ीब जो मां की ममता में, दादी की मीठी डांट में, और मोहल्लों की चहल-पहल में सांस लेती है। और रूह अफ़ज़ा – उस तहज़ीब का गवाह है। जब उसे ‘जिहाद’ कहा जाता है, तो दरअसल एक तहज़ीब को ‘अपराध’ बनाया जाता है।
मगर याद रखिए – मोहब्बत की तासीर कभी फ्लॉप नहीं होती…
जिन्हें रूह अफ़ज़ा से डर है, वो दरअसल उस तहज़ीब से डरते हैं जो नफ़रत की दुकानदारी को ठुकरा देती है। और ये डर उनकी हार है।
क्योंकि जब मोहब्बत गिलास में छलके, तो नफ़रतें ख़ुश्क हो जाती हैं।
जब एक बूढ़ी मां अपने बेटे को रूह अफ़ज़ा का गिलास पकड़ा दे, तो उसमें न कोई फ़तवा होता है, न कोई षड्यंत्र। उसमें सिर्फ़ ममता होती है – वो ममता जो किसी सरकार की नीति नहीं, एक तहज़ीब की पूंजी है।
तो आइए – रूह अफ़ज़ा को फिर से उसके असल मक़ाम पर रखिए।
उसे एक बार फिर उस मुक़द्दस दस्तरख़्वान पर सजाइए जहां जात-पात, मज़हब और नाम की कोई पूछताछ नहीं होती। उसे एक बार फिर मोहब्बत की ज़ुबान में ढालिए, ताकि आने वाली नस्लें जान सकें कि इस मुल्क में अब भी मिठास ज़िंदा है।
क्योंकि तहज़ीब की इस बोतल में जो मिठास बंद है, उसे न बाबा रामदेव की बयानबाज़ी मिटा सकती है, न नफ़रत की कोई फ़ैक्टरी।
रूह अफ़ज़ा एक स्वाद नहीं – एक सबक़ है।
और जब तक ये सबक़ हमारे लहज़ों में, हमारी यादों में, और हमारी रूह में ज़िंदा है – तब तक हर वो कोशिश जो इसे बदनाम करना चाहती है, नाकाम रहेगी।
(जौवाद हसन स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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