नई दिल्ली। हुर्रियत कांफ्रेंस के वरिष्ठ और अलगावादी नेता अली शाह गिलानी का निधन हो गया है। वह 92 साल के थे। उन्होंने नजरंबदी में ही आखिरी सांस ली। पिछले दस सालों से उन्हें अपने घर में ही नजरबंद करके सरकार ने रखा हुआ था।
गिलानी जम्मू-कश्मीर विधानसभा में विधायक भी रह चुके हैं। उनकी मौत तब हुई है जब हुर्रियत के उदार धड़े में भी बिखराव की स्थिति बनी हुई है। ऐसा एनआईए के लगातार छापों से लेकर अनुच्छेद 370 खत्म कर सूबे को दो हिस्सों बांटने के फैसले का नतीजा माना जा रहा है।
ऐसा माना जा रहा है कि उनके आखिरी संस्कार के मौके पर बड़ी भीड़ उमड़ सकती है। इसको लेकर प्रशासन बेहद परेशान है। लिहाजा उसने एहतियातन पहले से ही इंटरनेट पर रोक लगाने समेत तमाम किस्म की पाबंदियां लगा दी हैं। गिलानी को एक हार्डलाइनर के तौर पर जाना जाता था। जो संयुक्त राष्ट्र में पारित प्रस्ताव के आइने में कश्मीर समस्या को सुलझाने की वकालत करता था। वास्तव में वह अकेले नेता थे जिन्होंने तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ के उस प्रस्ताव का विरोध किया था जब वह कश्मीर को हल करने के परंपरागत रास्तों को छोड़कर चार बिंदुओं का एक नया फार्मूला सुझाए थे।
गिलानी एक अध्यापक थे और उन्होंने अपना राजनीतिक कैरियर नेशनल कांफ्रेंस के एक नेता मोहम्मद सईद मसूदी के मातहत शुरू किया था। लेकिन बहुत जल्द ही वह जमात-ए-इस्लामी की तरफ चले गए। गिलानी का चुनावी कैरियर सोपोर से शुरू हुआ जिसे परंपरागत तौर पर अलगाववादी होने के साथ ही जमात के गढ़ के तौर पर देखा जाता है। उन्होंने पहली बार 1972 में चुनाव लड़ा और सोपोर का तीन बार विधानसभा में प्रतिनिधित्व किया। उनका आखिरी कार्यकाल एकाएक 1987 में समाप्त हुआ जब घाटी में अचानक आतंकी घटनाओं की बाढ़ आ गयी।

गिलानी मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट के उन चार प्रत्याशियों में से एक थे जिन्होंने 1987 के जबरन कब्जे वाले चुनाव में जीत हासिल की थी। गौरतलब है कि इस चुनाव में कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस के गठबंधन ने सरकार बनायी थी।
कश्मीर के मसले को हल करने के लिए हथियारबंद संघर्ष के मुखर समर्थक गिलानी हुर्रियत कांफ्रेंस के उन सात कार्यकारिणी के सदस्यों में शामिल थे जब उसका 1993 में गठन हुआ था। लेकिन उनका आतंकियों को लगातार समर्थन और तमाम मामलों में अतिवाद ने उनके और हुर्रियत के दूसरे धड़ों के बीच विवाद पैदा कर दिया। और आखिर में इसका नतीजा 2003 में विभाजन के तौर पर दिखा। 2004 में गिलानी ने जमात-ए-इस्लामी से भी दूरी बना ली जब उसने आतंकवाद से खुद को दूर कर लिया। और उसने खुद का अपना राजनीतिक मंच तहरीक-ए-हुर्रियत का गठन कर लिया।
हालांकि गिलानी सालों से बिस्तर पर थे और पिछले दो सालों से बोलने की भी स्थिति में नहीं थे। लेकिन पिछली 30 जून को उन्होंने लोगों को उस समय आश्चर्यचकित कर दिया जब खुद अपने ही स्थापित किए गए संगठन हुर्रियत कांफ्रेंस से खुद को अलग कर लिया। उन्होंने उसका कार्यभार अपने डिप्टी मोहम्मद अशरफ सेहरई को सौंप दिया जिनकी इसी साल की शुरुआत में जम्मू जेल में मौत हो गयी।

हालांकि गिलानी जरूर इस बात को कहते थे कि वह कश्मीर मामले का हल लोगों की इच्छाओं के मुताबिक चाहते हैं लेकिन व्यक्तिगत रूप से वह कश्मीर के पाकिस्तान के विलय के पक्ष में थे। पिछली साल पाकिस्तान की सरकार ने उन्हें निशान-ए-पाकिस्तान से नवाजा था जो वहां का सबसे बड़ा नागरिक सम्मान है।
एनआईए जिसने अभी तक 18 अलगाववादी नेताओं को गिरफ्तार किया है जिसमें हुर्रियत के वो नेता भी शामिल हैं जिन पर आतंकियों को फंडिंग के मामले हैं, का आरोप है कि उन्हें घाटी में संघर्ष पैदा करने के लिए पाकिस्तान से फंड मिला है। एजेंसी ने यहां तक कि गिलानी और मीर वायज उमर फारूक का नाम चार्जशीट में भी डाला है।
पूर्व मुख्यमंत्री और पीडीपी नेता महबूबा मुफ्ती ने गिलानी के निधन पर शोक व्यक्त किया है। उन्होंने कहा है कि “हम उनसे कई सवालों पर भले सहमत न हों लेकिन मैं अपने विश्वास पर पूरी मजबूती के साथ खड़े रहने के लिए उनका सम्मान करती हूं।”
पीपुल्स कांफ्रेंस के नेता सज्जाद लोन ने ट्वीट कर कहा कि “सैय्यद अली शाह गिलानी के परिवार को हार्दिक संवेदना। मेरे स्वर्गीय पिता के वो गहरे दोस्त थे। अल्लाह उन्हें जन्नत बख्शे।”
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने कहा कि देश आधिकारिक शोक प्रगट करेगा और उसका झंडा आधा झुका दिया जाएगा। उन्होंने कहा कि गिलानी ने “अपना पूरा जीवन अपने लोगों और आत्मनिर्णय के उनके अधिकारों के लिए” संघर्ष करने में लगा दिया।
(ज्यादातर इनपुट इंडियन एक्सप्रेस से लिया गया है।)