दिल्ली मॉडल फेल है, तो पास कौन?

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बात शुरू करने से पहले यह डिसक्लेमरः यह स्तंभकार कभी आम आदमी पार्टी या उसके नेता अरविंद केजरीवाल का समर्थक नहीं रहा। उस समय भी नहीं, जब आरएसएस की संगठन शक्ति, बड़े उद्योगपतियों की वित्तीय मदद और कॉरपोरेट मीडिया के प्रचार समर्थन से ‘भ्रष्टाचार’ विरोधी ‘मैं भी अन्ना’ का माहौल बना हुआ था।

जेपी और वीपी सिंह आंदोलनों की अपनी समझ के आधार पर तब भी यह स्तंभकार उस आंदोलन के प्रतिक्रियावादी चरित्र को लेकर आश्वस्त था, जिसे लिखने और बोलने में उसे कोई हिचक नहीं हुई थी।

यह डिसक्लेमर इसलिए, ताकि यह भ्रम ना बने कि दिल्ली में विधानसभा चुनाव के मौके पर यह टिप्पणी आम आदमी पार्टी या केजरीवाल मॉडल का बचाव करने के लिए लिखी गई है।  

इस टिप्पणी का संदर्भ दिल्ली चुनाव के दौरान यह मध्य वर्गीय चर्चा है कि केजरीवाल ने सरकारी खजाने को वोट खरीदने के लिए लुटा दिया है। इस क्रम में अक्सर कहा जाता है कि केजरीवाल मॉडल फेल रहा है। कहा जाता है कि इस मॉडल का नतीजा दिल्ली में आम इन्फ्रास्ट्रक्चर में गिरावट और राजकोषीय सेहत में कमजोरी के रूप में सामने आया है।

इसी चर्चा को बल प्रदान करते हुए एक अंग्रेजी के अखबार ने इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट, कोझीकोड में अर्थशास्त्र के एक शिक्षक एवं एक पोस्ट-ग्रैजुएट छात्र का विश्लेषण प्रकाशित किया है। इस विश्लेषण के निष्कर्ष पर गौर कीजिएः ‘कुल मिला कर राजस्व एवं खर्च के रुझान जाहिर करते हैं कि AAP सरकार ने कल्याणकारी कार्यक्रमों पर खर्च के लिए अपनी राजस्व क्षमता नहीं बढ़ाई। बल्कि अति-आवश्यक पूंजी खर्च को घटा कर उन कार्यक्रमों के लिए धन जुटाया गया।’

इसी निष्कर्ष को बल प्रदान करने के लिए गुरु-शिष्य ने आंकड़े और तथ्य दिए हैं।

चूंकि विश्लेषण के लेखक गुरु- शिष्य मैनेजमेंट संस्थान से जुड़े हैं, जहां कॉरपोरेट सेक्टर के लिए अधिकारी तैयार किए जाते हैं, जिनका मकसद कंपनियों का मुनाफा बढ़ाना होता है, तो उनके नजरिए से देखें, तो उनकी दलीलें सही जगह पर हैं।

जिस निवेश से कॉरपोरेट सेक्टर को तुरंत मुनाफा बढ़ाने में मदद ना मिले, वह उसे बर्बादी मानता है। नव-उदारवाद के दौर में यह तर्क इतने पुरजोर ढंग से फैलाया गया कि न सिर्फ राजनीतिक क्षेत्र में, बल्कि सार्वजनिक जीवन के लगभग हर क्षेत्र में इन्हें सहज स्वीकृति मिली हुई है। नतीजा है कि राजनीति से लेकर मीडिया से लेकर मध्य वर्ग की चर्चाओं तक में दीर्घकालिक बुनियादी विकास और जन कल्याण पर लगाया गया हर संसाधन बेकार बताया जाता है।

इस सोच को जताने के लिए बेहतरीन शब्द ‘रेवड़ी’ ढूंढा गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस शब्द को और प्रचलित किया, इस बात पर परदा डालते हुए की जहां भी चुनाव हों, उनकी भारतीय जनता पार्टी भी ऐसी रेवड़ियों के वायदों का अंबार लगा देती है। उन वादों को पूरा किया जाता है या नहीं, यह अलग बात है। महाराष्ट्र इसकी एक अच्छी मिसाल है।

लोकसभा चुनाव में महाराष्ट्र में भाजपा नेतृत्व वाले गठबंधन-महायुति को पराजय का मुंह देखना पड़ा, जबकि चार महीने बाद ही विधानसभा चुनाव भी होने वाले थे। तो महायुति नेतृत्व ने आनन-फानन अपनी तकदीर पलटने की जो तकरीबें सोचीं, उनमें एक थी-खुले हाथ गरीब मतदाताओं को सरकारी पैसा बांटना। इसके लिए लाड़की बहिन योजना शुरू की गई। उधर प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना के तहत किसानों के लिए किस्तें जारी की गईं।

संभवतः इसका बड़ा लाभ महायुति को मिला। भारी बहुमत से सत्ता में उसकी वापसी हो गई। मगर तब उसे अहसास हुआ कि राजकोषीय सेहत को देखते हुए उसकी सरकार के लिए इतनी ज्यादा दरियादिली दिखाना आसान नहीं है। तो तुरत-फुरत माहौल बनाया गया कि बहुत से “अयोग्य” लाभार्थियों को पैसा मिल गया है।

नई कैबिनेट ने फैसला किया कि ऐसे लाभार्थियों से पैसा वापस लिया जाएगा। बताया गया कि लाड़की बहिन योजना के तहत 30 लाख “अयोग्य” लाभार्थियों को छह महीनों तक 1500 रुपये- यानी नौ-नौ हजार रुपयों- का भुगतान हुआ है। उधर 12 लाख “अयोग्य” व्यक्तियों को किसान सम्मान निधि की राशि मिली है। कुल वसूली जाने वाली रकम चार हजार करोड़ रुपये से ज्यादा है।

मुद्दा यह है कि ऐसी योजनाएं चाहे महाराष्ट्र में लागू की जाएं, या कर्नाटक में या दिल्ली में- निश्चित रूप से उसका खराब असर राजकोषीय सेहत पर पड़ता है। इसकी मार मूलभूत विकास पर पड़ती है। लेकिन, ऐसा ही तब भी होता है, जब कॉरपोरेट्स के लिए टैक्स माफ किए जाते हैं या उनके ऋण को बैंक बट्टा-खाते में डाल देते हैं।

बहरहाल, अब दिल्ली की ओर लौटते हैं।

गुरु-शिष्य ने जो लेख लिखा है, उसका सार यह है कि 2004-05 से 2012-13 की अवधि में (जब शीला दीक्षित की कांग्रेस सरकार थी), दिल्ली में राजकोषीय एवं राजस्व की स्थिति बेहतर थी। हालांकि 2015-16 से 2024-25 की अवधि में भी (जब AAP की सरकार रही है) दिल्ली के सरकारी खजाने का घाटा राजकोषीय उत्तरदायित्व कानून के तहत तय सीमा तीन प्रतिशत से कम रहा है और राजस्व लाभ (surplus) की स्थिति बनी रही है, लेकिन पहले से स्थिति बिगड़ी है।

मगर इसी अवधि में प्रादेशिक सकल घरेलू उत्पाद की तुलना में दिल्ली पर मौजूद ऋण की स्थिति में भारी सुधार हुआ है। पहले एसजीडीपी की तुलना में ऋण की मात्रा 13.7 थी, AAP सरकार जिसे घटा कर दो प्रतिशत पर ले आई है।

इसका एक अर्थ यह भी है कि कांग्रेस के समय राजकोष और राजस्व की स्थिति बेहतर थी, उसमें बड़ा योगदान लिए गए कर्ज का था। क्या इस चर्चा में इस पहलू पर खास ध्यान नहीं खींचा जाना चाहिए?

विश्लेषकों ने कहा है कि दिल्ली में AAP के दौर में राजस्व खर्च तेजी से बढ़ा है। अब एक अजीब बात कही गई है। विश्लेषकों के मुताबिक इस दौर में जहां शिक्षा और स्वास्थ्य पर खर्च में जीडीपी की तुलना में खर्च में 0.08 और 0.06 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, वहीं सामाजिक सेवाओं पर खर्च घटा है। जिन मदों में खर्च घटा है, उनमें स्वच्छता, ट्रांसपोर्ट, संचार, जल आपूर्ति, सड़क एवं पुल निर्माण आदि शामिल हैं। यहां सवाल उठेगा कि क्या शिक्षा एवं स्वास्थ्य दो सबसे जरूरी सामाजिक सेवाएं नहीं हैं?  

बेशक, यह बेहतर स्थिति होती कि उन मदों पर भी खर्च में गिरावट नहीं आती। AAP शासन से पहले वाले दस साल- यानी कांग्रेस शासनकाल में इन मदों पर अधिक खर्च हुआ। उस कारण बेहतर सड़कें बनीं, फ्लाईओवर बने, मुमकिन है कि साफ-सफाई की सूरत तब बेहतर रही हो। इन कार्यों की जरूरत से कोई इनकार नहीं कर सकता। मगर तब जो काम नहीं हुए, उस पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए।

तब गरीब इलाकों में, खासकर झुग्गी-झोपड़ी बस्तियों में मुफ्त बिजली और पानी की सुविधाएं नहीं थीं- या कम से कम बदतर स्थिति थीं।  

उस दौर में स्कूल और अस्पताल सुविधाओं को सुलभ एवं बेहतर बनाने पर ध्यान नहीं दिया गया। सरकारी स्कूलों का कायापलट कर देने का AAP का दावा अतिशयोक्ति से भरा हो सकता है, मगर यह कहना भी हकीकत को नकारना होगा कि इस दौर में इन क्षेत्रों में कोई बेहतर काम नहीं हुआ है।

मोहल्ला क्लीनिक्स के ढांचे में कई बुनियादी समस्याएं हैं। मसलन, इस आरोप में दम है कि वहां स्वास्थ्यकर्मी ठेके पर रखे गए हैं। गंभीर बीमारियों के इलाज के लिए मरीजों को सरकारी खर्च पर प्राइवेट अस्पतालों में भेजना भी एक समस्याग्रस्त मॉडल है।

लेकिन स्वास्थ्य जांच एवं दवाओं की मुफ्त उपलब्धता, कई अस्पतालों का निर्माण और स्कूलों सुविधाओं को बेहतर बनाने की कोशिशें सही दिशा में पहल रही हैं। यह पहल उन रेवड़ियों से बेहतर है, जिनके तहत ज्यादातर राज्यों में सीधे नकदी का हस्तांतरण कुछ खास वर्ग के लोगों को किया जा रहा है।

इसके अलावा झुग्गी-झोपड़ी बस्तियों में मुफ्त बिजली देने और पानी पहुंचाने पर हुआ खर्च सिर्फ उन लोगों को निरर्थक लग सकता है, जिनकी लोकतंत्र की समझ संपूर्णतः अभिजात्यवादी है। वरना, आजादी के 75 बाद भी ऐसी बुनियादी सुविधाओं से लोग वंचित रहे हैं, तो सवाल यह उठना चाहिए कि भारत कैसा लोकतंत्र है अथवा क्या यह लोकतंत्र है भी?

बेशक अन्य नेताओं की तरह ही केजरीवाल भी अवसरवादी नेता हैं। सांप्रदायिकता और अंध विश्वास फैलाने की होड़ में भाजपा को टक्कर देने की उनकी कोशिश की निंदा की जानी चाहिए। जन कल्याण का उन्होंने कोई अलग मॉडल पेश नहीं किया है।

मगर सस्ती लोकप्रियता हासिल करने की तमाम राजनीतिक दलों के बीच लगी होड़ के बीच उनकी पार्टी ने कुछ ठोस कार्य भी किए हैं। फिर अगर सभी दल इसी होड़ में शामिल हैं, तो फिर अकेले AAP को इसके लिए निशाना क्यों बनाया जाना चाहिए? मुद्दा यह है कि अगर केजरीवाल मॉडल फेल है, तो पास कौन या किसका मॉडल हो रहा है?

बात करनी हो, तो नव-उदारवाद के दौर में विकास और जन कल्याण की बदली समझ पर होनी चाहिए। इसके तहत कॉरपोरेट्स और धनी तबकों को हुए सार्वजनिक धन के ट्रांसफर पर होनी चाहिए। मगर सवाल सिर्फ तब उठाए जाते हैं, जब आम जन की न्यूनतम भलाई की दिशा में सरकारी धन खर्च किया जाता है।

फिलहाल, जो दिशा है, उसमें AAP का रिकॉर्ड शायद ही किसी से खराब हो। बल्कि संभव है कि कुछ मामलों में यह बेहतर ही हो। कम-से-कम यह तो कहा जाएगा कि AAP एक ऐसी पार्टी है, जो शिक्षा एवं स्वास्थ्य को बहस के एजेंडे पर बनाए रखती है और इन क्षेत्रों में अपने काम के आधार पर भी वोट मांगने जाती है।

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)

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