युद्धोन्माद के बहाने जन पत्रकारिता पर हमला

भारत में आतंकवाद खत्म करने के नाम पर मोदी सरकार ने ‘ऑपरेशन सिंदूर’ लॉन्च किया। दो महिला सैन्य अधिकारियों से प्रेस कॉन्फ्रेंस करवाया गया जो प्रेस कॉन्फ्रेंस आज तक खुद प्रधानमंत्री मोदी ने नहीं किया है। उसके बाद जो सिलसिला युद्ध के समर्थन में एक उन्माद पैदा करने का शुरू हुआ वह खत्म ही नहीं हुआ है। मोदी सरकार के इशारे पर जनता के दिमाग में जहर फैलाने वाले टीवी चैनलों ने तो 24 घंटे मोदी की डंका बजाते हुए सिर्फ राष्ट्रवादी और युद्ध उन्माद बढ़ाने का काम किया।

फेक न्यूज़ इतने फैलाए गए कि सच और झूठ का अंतर ही खत्म हो गया। एक चैनल नहीं, रिपब्लिक भारत, न्यूज -18, ABP न्यूज़ समेत कई चैनलों ने पूंछ निवासी कारी मोहम्मद इकबाल नाम के टीचर, जिसकी पाकिस्तानी सेना की गोलीबारी में मृत्यु हो गई, उसे भारतीय सेना के हमले में मारा गया आतंकवादी बता दिया और टीआरपी मेंटेन किया। आखिरकार इस सरकार में आतंकवादी होने का मापदंड बस टोपी पहने-दाढ़ी रखे मुसलमान हैं, से पूरा हो जाता है।

फेक न्यूज के अंबार के बीच जनपक्षधर पत्रकारिता करने वाले लोगों/न्यूज वेबसाइटों ने सरकार के मंसूबे पर सवाल करना शुरू किया तो सरकार ने पलट कर उन पर दमन करना शुरू कर दिया। सीधा सा मतलब है, युद्ध उन्माद बनाने की प्रक्रिया में जो खलल डाले उसे चुप करा दिया जाए।

सबसे पहले 6 मई 2025 को हिलाल मीर नाम के सीनियर पत्रकार को गिरफ्तार करके श्रीनगर सेंट्रल जेल भेज दिया गया। हिलाल मीर हिंदुस्तान टाइम्स, हफ़्फपोस्ट, ग्रेटर कश्मीर जैसे मीडिया में काम कर चुके है। फिलहाल मीर तुर्की आधारित टीआरटी वर्ल्ड में काम कर रहे थे। 1 मई को उन्होंने सोशल मीडिया अकाउंट पर अपने टूटे मकान के साथ एक बूढ़ी महिला के फोटो को शेयर किया था। मीर के अनुसार इस महिला का घर पहलगाम अटैक के बाद सुरक्षा बलों द्वारा गिराया गया था। बाद में उन्होंने इस पोस्ट को डिलीट कर दिया। उनकी गिरफ्तारी के साथ उन पर पुलिस के काउंटर इंटेलिजेंस विंग द्वारा आरोप लगाया गया हिलाल मीर कई सोशल मीडिया अकाउंट के माध्यम से भारत की इमेज खराब कर रहे थे और कश्मीरी के लोगों को पीड़ित दिखाते है। वह विदेशी लोगों के संपर्क में है और उनके आदेश अनुसार काम कर रहे है। 

हिलाल मीर।

ऐसा नहीं है कि कश्मीर के पत्रकारों को पहले काम करने से रोका नहीं गया है। कश्मीर के पत्रकारों का दमन का सिलसिला भी लंबा है जब कश्मीर के लोगों की परेशानियां, आम जिंदगी दिखाए जाने या उनके हक की बात करने के कारण उन्हें कई फर्ज़ी केसों में गिरफ्तार कर परेशान किया गया है। 

इसके पहले 2019 में धारा 370 हटाए जाने के बाद हिलाल मीर ने आरोप लगाया था कि सुरक्षा बलों द्वारा पत्रकारों को डरा धमका कर ‘मॉडरेट रिपोर्टिंग’ करने को कहा जा रहा। पत्रकारों को दो ही ऑप्शन दिया गया है – या तो वो सुरक्षा बलों के कहे अनुसार ‘मॉडरेट रिपोर्टिंग’ करे या फिर उनकी रिपोर्टिंग हमेशा के लिए बंद करवा दी जाएगी। 

इसी तरह ऑपरेशन सिंदूर का विरोध करने के कारण केरल के स्वतंत्र पत्रकार रेजाज शीबा को नागपुर में महाराष्ट्र पुलिस ने तब गिरफ्तार कर लिया जब वह दिल्ली में 3 मई को वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम डे के अवसर पर कैंपेन अगेंस्ट स्टेट रिप्रेशन, जो कई प्रगतिशील संगठनों का ज्वाइंट फ्रंट है, उसके बैनर तले राजकीय दमन का शिकार होकर जेल में बंद पत्रकारों के साथ एकजुटता जताते हुए प्रोग्राम में वक्ता के रूप में शामिल हुए थे। इस कार्यक्रम में वरिष्ठ पत्रकार प्रबीर पुरकायस्थ, फिल्म मेकर और लेखक संजय काक और एक्टिविस्ट शरजील उस्मानी उपस्थित थे। कार्यक्रम से लौटते रेजाज नागपुर गए हुए थे। 

नागपुर से ही उन्होंने अपने सोशल मीडिया अकाउंट से ऑपरेशन सिंदूर के दौरान  भारत-पाकिस्तान दोनों तरफ से मारे गए लोगों के आंकड़े देते हुए दोनों सरकारों को कठघरे में खड़ा किया था और जिसमें उन्होंने इस ऑपरेशन का विरोध किया था। फिलहाल सरकार द्वारा उनके सभी सोशल मीडिया अकाउंट को सस्पेंड कर दिया गया है। उन पर बीएनएस की कई गंभीर धाराएं लगाईं गईं हैं जिसमें 149, 192,  ( 353 (1) (बी), 353 (2), 353 (3) और इनफॉर्मेशन एंड इंटेलिजेंस एक्ट की धारा 67 लगाई गई है।

रेजाज पत्रकार होने के साथ-साथ एक एक्टिविस्ट भी हैं जो केरल के डेमोक्रेटिक स्टूडेंट एसोसिएशन संगठन से जुड़े हुए हैं। रेजाज हर तरह के राजकीय दमन के खिलाफ मुखर रहते हैं। वह फिलिस्तीनी जनता के समर्थन में इजरायली साम्राज्यवाद के खिलाफ लगातार लिखते रहते हैं। 29 अप्रैल को भी कश्मीरी जनता के लिए आयोजित कार्यक्रम में शामिल होने के कारण उन पर एफआईआर दर्ज कर उन्हें डिटेन कर लिया गया था।

रेजाज के पास दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर रहे जी एन साईबाबा के जीवन पर आधारित किताब मिली है, जो ‘कमेटी फॉर डिफेंस एंड रिलीज ऑफ डॉ जी एन साईबाबा’ के तरफ से 7 मार्च को हैदराबाद में रिलीज़ की गई थी। जी एन साईबाबा विश्व के प्रख्यात मानवाधिकार कार्यकर्ता थे जिन्होंने ऑपरेशन ग्रीन हंट के खिलाफ मुखर रूप से बोला और आदिवासियों पर दमन के खिलाफ लोगों की गोलबंदी की थी। इसकी कीमत उन्होंने 10 साल जेल में रह कर चुकाई लेकिन बॉम्बे उच्च न्यायालय ने उन्हें सारे आरोपों से बरी कर दिया था। लेकिन अपनी रिहाई के कुछ ही महीने बाद ईलाज के दौरान हैदराबाद में उनकी मौत हो गई। 

इसके साथ ही दिल्ली से निकलने वाली ‘नजरिया’ मैगजीन का पर्चा भी मिला है जो सीपीआई (माओवादी) और भारतीय राज्य के बीच शांति वार्ता के संदर्भ में है। इसके अलावा उनके पास से एक्टिविस्ट के मुरली की किताब ‘क्रिटिंग ब्राह्मणिज़्म ‘ जब्त की गई है। तो क्या एक मानवाधिकार कार्यकर्ता जो राज्य की सांस्थानिक हत्या का शिकार हुआ है, उसकी जीवनी पढ़ना कोई गुनाह है? क्या शांति वार्ता की वकालत करता हुआ पर्चा रखना कोई जुर्म है? के मुरली ने अपनी किताब जब्त करने पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि….अगर इस देश में ब्राह्मणवाद की आलोचना करने वाली किताबों को रखना जुर्म है तो सबसे पहले डॉक्टर आंबेडकर की सारी किताबों को जब्त किया जाना चाहिए। क्योंकि आंबेडकर ने तो सार्वजनिक रूप से ब्राह्मणवाद की आलोचना की है। यह बेहद शर्मनाक है कि जिस देश में आंबेडकर को संविधान का जनक माना जाता है वहां जाति व्यवस्था पर एक किताब को एक आतंकी सामग्री के रूप में देखा जा रहा है…

रेजाज की गिरफ्तारी के बाद महाराष्ट्र पुलिस और महाराष्ट्र के एंटी टेररिस्ट स्कॉड (एटीएस) द्वारा उनके घर यानी केरल में छापा मारा गया और न्यूज वेबसाइटों के अनुसार उन्होंने कार्ल मार्क्स की किताब जब्त की है। अब सवाल यह बनता है कि क्या मार्क्स को पढ़ना भारत में गैरकानूनी है? क्या मार्क्स की किसी किताब को भारत सरकार ने प्रतिबंधित कर रखा है? अगर कार्ल मार्क्स की किताब रखना गैरकानूनी है तो इस देश की आधी जनता को गिरफ़्तार करना पड़ेगा, विश्वविद्यालयों के लाइब्रेरियों में मार्क्स की किताब रखी हुई है? क्या महाराष्ट्र पुलिस उन सभी विश्वविद्यालयों में छापा मार कर उनकी सभी किताबों को ज़ब्त करेगी?

देश की विडंबना है कि अपनी ही जनता के पक्ष में बोलने के कारण पत्रकारों को चुप कराया जाता है। रेजाज को गिरफ्तार करने बाद से 15 मई तक पुलिस हिरासत में रखा गया है। फासीवाद का यह आलम है कि क्योंकि रेजाज अपने सोशल मीडिया के माध्यम से मोदी सरकार द्वारा चलाए जा रहे ‘ऑपरेशन कगार’ के खिलाफ भी मुखर रूप से लिखते रहे हैं इसलिए महाराष्ट्र पुलिस द्वारा उन्हें माओवादी तो बताया ही गया है, लेकिन क्योंकि रेजाज एक मुसलमान हैं, कश्मीरी जनता के हक में बोलते हैं इसलिए उनका सम्बन्ध जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट और पाकिस्तान से भी जोड़ दिया गया है। यानी कश्मीरी जनता की बात करना आपको पाकिस्तानी एजेंट बना सकता है। एक तरह से कहें तो जनपक्षधर पत्रकारों को सरकार की तरफ से यह खुली धमकी है कि यह सत्ता से सवाल पूछना बंद करें अन्यथा अंजाम जेल ही होगा। 

मोदी सरकार एक तरफ तो दलाल चैनलों के माध्यम से लोगों को रक्त पिपासु बना रही, वहीं दूसरी तरफ सत्ता से सवाल करती रिपोर्टों को बर्दाश्त नहीं कर पा रही है। 9 मई को ‘द वायर’ के न्यूज वेबसाइट को सिर्फ इसलिए ब्लॉक कर दिया गया क्योंकि उन्होंने फ्रांस से खरीदे गए राफेल विमानों को पाकिस्तान के सेना द्वारा मार गिराए जाने से संबंधित खबर छापी थी। यह खबर न्यूज एजेंसी सीएनएन से ली गई थी। वेबसाइट ब्लॉक हो जाने की स्थिति में मजबूरन ‘द वायर’ को यह खबर अपनी वेबसाइट से हटानी पड़ी तब जाकर कई घंटों बाद इसे एक्सेस किया जा सका।

अब सरकार इस बात पर घिर गई है कि राफेल विमान को जनता के पैसे से लगभग चार गुने दाम में खरीदा गया और पूरा ढिंढोरा पीटा गया लेकिन इस्तेमाल करते ही पाकिस्तान आर्मी द्वारा इसे मार गिराया गया, जैसा कि तमाम अंतर्राष्ट्रीय न्यूज़ एजेंसियां बता रही हैं। तो सरकार एड़ी-चोटी का जोर लगाकर इस बात पर पर्दा डालने की कोशिश में है। 11 मई को तीनों भारतीय सेना के अधिकारियों द्वारा किए गए प्रेस कॉन्फ्रेंस में जब वायुसेना के एयर मार्शल एके भारती से राफेल विमान पर जवाब मांगा गया तो उन्होंने इस बात पर टिपण्णी करने से मना कर दिया है। संदेश साफ है कि सरकार इस पर चुप्पी तो साध ही रही है, लेकिन अगर कोई मीडिया इस पहलू पर जोर देने की कोशिश करेगी तो उसे भी सरकार के तरफ से दमन का सामना करना पड़ जाएगा। यानी अब पत्रकारिता भी सरकार के शर्त पर ही होगी।

इसी तरह इसी दौरान ‘मकतूब’ मीडिया के एक्स अकाउंट को भी बिना कारण बताए बंद कर दिया गया और अभी तक रेस्टोर नहीं किया गया है। 29 अप्रैल को पहलगाम के हमले के कारण मोदी-अमित शाह को कठघरे में खड़ा करने के कारण मोदी सरकार ने ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ और ‘लोकव्यस्था’ का हवाला देते हुए यूट्यूब चैनल 4PM को ब्लॉक कर दिया था। इसके खिलाफ दायर याचिका पर 13 मई को सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान सरकार ने इस निर्णय को वापस ले लिया है। 

पत्रकारों पर यह दमन एक सुनियोजित अभियान के हिस्से जैसा लगता है जब बीबीसी को दिए गए इंटरव्यू में तत्कालीन गुजरात के मुख्यमंत्री मोदी ने खुद को आलोचना करते हुए मीडिया पर ठीक ढंग से काम न कर पाने पर गुस्सा जताया था। अब दमन का रुख देखकर लगता है कि अब मोदी सरकार मीडिया पर ‘ठीक ढंग’ से काम कर रही है। एक तरफ जन पत्रकारिता करने वाले लोग दमन का शिकार हो रहे हैं वहीं मेनस्ट्रीम चैनल को कठपुतली बना लिया गया है। कोई हैरत की बात नहीं है कि प्रेस फ्रीडम 2025 के मामले में भारत विश्व के 180 देशों में 151 पायदान पर है और आगे भी गिरावट निश्चित है।

(आकांक्षा आजाद स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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