दिल्ली महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित शहर: कैसे बदलेंगे हालात?

NCRB (National Crime Records Bureau) द्वारा रविवार (03-12-2023) को जारी आंकड़ों के अनुसार दिल्ली महिलाओं के लिए देश भर के सभी महानगरों में सबसे असुरक्षित शहर है। ताजा आंकड़ों के अनुसार दिल्ली में महिलाओं के साथ प्रतिदिन औसतन तीन बलात्कार की घटनाएं दर्ज की जा रही हैं। ध्यान रखिएगा कि पहले तो ये सरकार द्वारा प्रस्तुत आंकड़े हैं और दूसरे ये सिर्फ उन घटनाओं की संख्या है जो पुलिस के पास दर्ज हैं।

भारतीय समाज के चरित्र को समझने वाला कोई भी व्यक्ति यह आसानी से समझ सकता है कि हकीकत इससे कहीं ज्यादा भयावह है। यह सब तब हो रहा है जब केन्द्र सरकार और दिल्ली सरकार महिला सुरक्षा के दावे करते नहीं थकतीं।

महिला सुरक्षा की स्थिति पर दायर एक जनहित याचिका पर दिल्ली हाईकोर्ट की सुनवाई के दौरान दिल्ली पुलिस ने शहर में 6630 CCTV कैमरे लगाए जाने के दावे किए थे। साथ ही महिला सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए 90,000 स्ट्रीट लाइट्स भी लगाए जाने के दावे दिल्ली सरकार करती रही है।

NRCB के आंकड़े जारी होने के सिर्फ तीन दिन बाद गुरुवार (07-12-2023) को केन्द्रीय दिल्ली में एक 17 साल की लड़की पर तेजाब से हमला किया गया। उसकी गलती इतनी थी कि वह उस मां की बेटी थी जिसने अपने बलात्कार के आरोपी के खिलाफ दर्ज FIR को वापस लेने से मना कर दिया था। यह हमला करने वाला खुद बलात्कार का आरोपी था जिसकी उम्र 54 साल थी। 

केन्द्र सरकार ने महिला सुरक्षा को सुदृढ़ करने के लिए ‘निर्भया फंड’ की व्यवस्था की है। ‘निर्भया’ के साथ 2012 की एक शाम राजधानी में दिन-दहाड़े चलती बस में हुई वीभत्स घटना ने सारे देश और दुनिया को हिला कर रख दिया था। इसी घटना के बाद एक अप्रैल 2015 में ‘निर्भया फंड’ की घोषणा की गई थी। वर्ष 2020-2021 तक इस फंड के जरिए 5712.85 करोड़ रुपये आवंटित किए जा चुके थे।

आखिर इतना सब होने के बाद भी ऐसी घटनाएं क्यों बढ़ती जा रही हैं? जवाब है, हम इसके मूल कारणों पर बात नहीं कर रहे। हम ऐसी बुराइयों के समूल नाश की बजाए सिर्फ सुरक्षात्मक उपायों पर जोर दे रहे हैं।

वर्ष 2023 में दिल्ली सरकार का कुल बजट 78,800 करोड़ था। इसमें से 4744 करोड़ रुपये महिला एवं बाल कल्याण विभाग को आवंटित किए गए थे। यह कुल बजट का 6.02 प्रतिशत था। इसके बावजूद राजधानी में प्रति एक लाख महिलाओं पर 186.9 महिलायें अपराधों का सामना करती हैं।

दिल्ली में महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों की संख्या 2020 में 9782 थी जो 2021 में बढ़कर 13982 और 2022 में 14158 हो चुकी हैं। इसके साथ ही राजधानी में महिलाओं के अपहरण की 3909 घटनाएं भी हो चुकी हैं। साथ ही पिछले एक साल में राजधानी में दहेज हत्या की शिकार महिलाओं की संख्या 129 है। 

अब सवाल ये है कि ऐसी घटनाओं के कारण क्या हैं?

भारतीय समाज को देखें तो यह वैदिक काल से ही पितृसत्तात्मक और स्त्री विरोधी रहा है। हिन्दू धार्मिक ग्रंथों में इसके प्रमाण भरे पड़े हैं। उत्तर-वैदिक काल में भी स्त्री पराधीनता निरंतर बढ़ती गई है। मध्यकालीन सामंती समाज तक आते-आते औरतों की सामाजिक स्थिति में क्रमिक पतन दिखाई पड़ता है।

इसके बरक्स मध्यकाल में ही स्त्रियों ने इस गैर बराबरी से भरी सामाजिक स्थिति के खिलाफ आवाज बुलंद की थी। विभिन्न भारतीय भाषाओं के संत साहित्य में इसके प्रमाण मिलते हैं। पितृसत्ता की जड़ें भारतीय समाज मे बहुत पुरानी हैं। इसे टिकाये रखने का एक टूल, विवाह संस्था भी है। यह ना सिर्फ सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से घोर पितृसत्तात्मक है बल्कि यह आर्थिक पराधीनता को भी बनाए रखने का बड़ा टूल है।

हिन्दू धर्म सहित अन्य संगठित धर्मों का कठमुल्लावाद इसे बनाए रखने व गहरा करते जाने में प्रमुख भूमिका निभाता है। यह एक तरफ तो उन्हें पुरुषों पर आर्थिक रूप से निर्भर बनाता है। साथ ही उन्हें सामाजिक जीवन से काटकर घर की चारदीवारी में कैद करने की कोशिश भी करता है।

इन सबके जड़ में क्या है? उत्तर जटिल नहीं है; पहला, हमारी समूची सामाजिक-सांस्कृतिक संरचना जो अपने अंतर्वस्तु में बहुत गहराई से पितृसत्ता से सम्बद्ध है और उससे संचालित होती है तथा दूसरा, आर्थिक परनिर्भरता। इसे कोई भी आसानी से समझ सकता है। यह स्त्रियों की सामाजिक अवस्थति के साथ-साथ निर्णय लेने व मोलभाव करने की क्षमता को निचले स्तर तक गिरा देता है और अंततः उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बना कर हाशिए पर धकेल देता है।

यही करण है कि दिल्ली में महिलाओं के साथ 4847 हिंसा की ऐसी घटनाएं हुई हैं, जो खुद उनके पति या संबंधियों द्वारा की गईं हैं। आखिर इसके और क्या करण हो सकते हैं? बाल यौन उत्पीड़न की सबसे ज्यादा घटनाएं रिश्तेदारों व निजी संबंधियों द्वारा की जा रही हैं। इसे आप CCTV से नहीं रोक सकते।

यही बात महिलाओं के बारे में भी सही है। आप इससे आंख नहीं मूंद सकते और न ही इसे नकार कर समाधान की तरफ बढ़ सकते हैं। पर भारत में यही हो रहा है क्योंकि हम इसे धर्म और संस्कृति के अपमान से जोड़कर देखने के आदी हैं।

देश-दुनिया में पूंजीवाद के विकास के साथ ही हम स्त्री पराधीनता के एक नए रूप को देखते हैं। अगर सामंती संस्कृति स्त्री को घर की चारदीवारी में कैद रखकर उसके साथ हिंसा को बढ़ावा देती है तो दूसरी तरफ पूंजीवादी संस्कृति उसे बाजार की एक वस्तु बना देती है। यह पूंजीवाद के मुनाफे का एक टूल है।

स्त्री का यह वस्तुकरण अभिव्यक्ति और मनोरंजन के तमाम माध्यमों द्वारा किया जाता है। इसे सिनेमा, मीडिया तथा प्रचार के तमाम अन्य माध्यमों द्वारा फैलाया जा रहा है। पूंजीवादी-साम्राज्यवादी शक्तियां अपने वित्तीय लाभ के लिए एक ऐसी दूषित संस्कृति को बढ़ा रही हैं जो महिला के वस्तुकरण व उसके खिलाफ होने वाले शरीरिक हिंसा के लिए प्रमुख रूप से जिम्मेदार है। यह दुनिया भर में बढ़ रहा है।

भारत जैसे देश में पूंजीवाद-साम्राज्यवाद द्वारा पोषित उपभोक्तावादी संस्कृति और सामंती, ब्राह्मणवादी संस्कृति के मेल से एक बेहद प्रतिगामी संस्कृति का निर्माण किया गया है। यहां पूंजीवादी पितृसत्ता और ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के आपसी संबध साफ दिखाई पड़ते हैं। इसमें स्त्री मुक्ति का अवसान या तो उपभोक्ता संस्कृति में होता है या फिर नए तरह के संकर संस्कृति में, जहां बाजार के जरिए पारंपरिक परिवार तथा विवाह संस्था को नया जामा पहनाया गया है।

इसके और भी भयावह परिणाम देखने को मिलते हैं। पूंजीवादी शक्तियां अपने सामानों को बेचने व उनके प्रचार के लिए स्त्री देह को एक वस्तु की तरह इस्तेमाल कर रहीं हैं, तो ब्राह्मणवादी शक्तियां उनकी चेतना को कूपमण्डूक बना रही हैं। स्त्री की एक ऐसी छवि गढ़ी जा रही है जिसमें वह या तो घर के दैनिक कामों से बंधी दिखती है या बाजार की एक वस्तु।

नहाने का साबुन हो या रसोई का कोई भी दृश्य (TV पर दिनभर आने वाले तमाम विज्ञापनों को ध्यान से देखिए) या तो महिला पत्नी, बहू और मां के रूढ़ छवियों में दिखती है या फिर एक Sex Object की तरह। यह सामंती और पूंजीवादी-साम्राज्यवादी संस्कृति ही है जिसके कारण महिलाओं पर होने वाली हिंसा की घटनाएं लगातार बढ़ती जा रही हैं।

पूंजीवाद-साम्राज्यवाद की निजी लाभ केंद्रित व्यवस्था ने एक बड़ी आबादी को बेरोजगारी के दलदल में धकेल दिया है। आज युवाओं की एक बड़ी आबादी बेकारी की जिंदगी गुजार रही है। यह बेरोजगार युवा अपराध व नशे की चपेट में हैं। महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा मे कई बार ऐसे बेरोजगार लोग शामिल होते हैं। ‘निर्भया’ के साथ हुई वीभत्स घटना में ऐसे ही लोग शामिल थे। ऐसे अपराधों के पीछे निश्चित ही वर्तमान व्यवस्था, हमारी सामाजिक-सांस्कृतिक संस्थाएं, हमारा परिवेश और उसमें रहने वाले व्यक्ति का समाजीकरण जिम्मेदार है।

अब सवाल उठता है कि महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा की घटनाओं को कैसे खत्म किया जा सकता है? क्या सिर्फ सुरक्षात्मक उपायों से ऐसा करना संभव है?

जवाब है- नहीं! अगर ऐसा होता तो ‘निर्भया फंड’ व ऐसी ही अनेक योजनाओं के बाद भी महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा इस कदर न बढ़ रही होती। पूंजीवादी समाज लोगों को निरा व्यक्तिवादी बना रहा है। अपने लाभ के लिए कुछ भी करने को ही यहां सभ्य और समझदार होने का पैमाना बना दिया गया है।

पूंजीवादी समाज में स्त्री एक शोषित अस्मिता है। ऐसे समाज में स्त्री का शोषण कई स्तरों पर होता है। इसमें नस्ल, रंग, जाति, जातीयता आदि के कारक भी काम रहे होते हैं। ऐसे में इससे निपटने का रास्ता क्या हो? हमें निश्चित तौर पर स्त्री-मुक्ति के सवाल को सभी जनवादी आन्दोलनों का एक अनिवार्य प्रश्न बनाना होगा।

साथ ही हमें भारत में स्त्री मुक्ति संघर्षों की समृद्ध परंपरा को आगे बढ़ना होगा। इसमें सवित्रीबाई-ज्योतिबा फुले, फातिमा शेख, तारबाई शिंदे, पंडित रमाबाई, बेगम रुकाइया शेखावत आदि आती हैं। हमें उनके सपनों और संघर्षों को आगे बढ़ाना होगा।

नारी मुक्ति के सभी आंदोलनों को हमें पूरी ताकत के साथ आगे बढ़ाना होगा और इसे मजबूती और विस्तार देना होगा। फासीवाद के इस दौर में हमें एक साझे संघर्ष की जरूरत है। एक ऐसा संघर्ष जो किसी को भी पीछे न छोड़े।

स्त्री मुक्ति का सवाल सिर्फ आधी आबादी की मुक्ति का ही सवाल नहीं है बल्कि समूची मानवता की मुक्ति का सवाल है। इसके बिना हम किसी आमूल-चूल परिवर्तन की दिशा में आगे नहीं बढ़ सकते। यह रोज लड़ी जाने वाली लड़ाई है। बल्कि इसे हर घंटे लड़ा जाना है। ऐसा इसलिए क्योंकि सामंती-पूंजीवादी संस्कृति समाज के साथ-साथ व्यक्ति की चेतना को भी प्रभावित व निर्धारित करती है।

महिला-विरोधी विचार और पितृसत्ता हमारे व्यवहार का हिस्सा बन चुके हैं। कई बार ये इतने सूक्ष्म तरीके से प्रकट होते हैं कि इनकी पहचान करना काफ़ी सतर्कता की मांग करता है। पितृसत्ता के बीज बचपन से ही पनपने लगते हैं। यह परिवार की बनावट और सांस्कृतिक माध्यमों के जरिए सबसे पहले हमपर हमला करते हैं। इसी कारण महिलाओं के खिलाफ हिंसा की काफी घटनाएं परिवार के भीतर ही होती हैं।

हमें ऐसे कदम उठाने होंगे जिससे सुरक्षित व जनवादी परिवेश का निर्माण हो। जहां सभी बिना किसी डर के जी सकें। यह ब्राह्मणवादी-पूंजीवादी व्यवस्था के नाश और साम्राज्यवाद को हराए बिना नहीं किया जा सकता। यह एक जनवादी-समाजवादी समाज के निर्माण द्वारा ही किया जा सकता है जिसमें पराधीनता की जड़ों को ही काट दिया जाता है।

एक सच्ची समाजवादी संस्कृति के निर्माण द्वारा ही हम पूंजीवादी-उपभोक्तावादी संस्कृति के बुरे प्रभावों से समाज को बचा सकते हैं। सभी तरह के वर्गीय व जातिगत विभाजन को मिटाकर ही स्त्री के वस्तुकरण और उसके उपभोग की वस्तु बनने की प्रक्रिया को रोक जा सकता है।

यह न सिर्फ पूंजीवादी दूषित संस्कृति को मिटाने का एकमात्र रास्ता है बल्कि इसके द्वारा सामंती, ब्राह्मणवादी मूल्यों को भी जड़ से उखाड़ा जा सकता है और तमाम तरह के शोषण का अंत किया जा सकता है।

(ज्ञान वर्धन सिंह का लेख। लेखक केंद्रीय विद्यालय में शिक्षक हैं, फिलहाल मणिपुर में कार्यरत हैं।)

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One thought on “दिल्ली महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित शहर: कैसे बदलेंगे हालात?

  1. समस्या पूरी संरचना में ही है. सुधार भी संरचनात्मक ही होगा. सुधार के लिए समेकित और संगठित प्रयास की जरूरत है. बेहतरीन आलेख.

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