भारत-चीन के बीच लद्दाख सेक्टर में वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर तनाव घटाने के लिए हुआ ताजा समझौता अचानक और नाटकीय नहीं है, जैसा कि मीडिया के एक हिस्से में बताया गया है। यह दीगर बात है कि वर्तमान भारत सरकार ने भी अपने चिर-परिचित अंदाज में इसे नाटकीय रूप से पेश करने की कोशिश की।
संभवतः इसलिए कि ब्रिक्स प्लस शिखर सम्मेलन के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग से संभावित मुलाकात को लेकर देश के अंदर अपेक्षित आलोचना की गुंजाइश खत्म हो सके।
वैसे विदेश सचिव विक्रम मिसरी के बयान पर ध्यान दें, तो यह बात साफ हो जाती है कि घटनाक्रम में कोई नाटकीयता नहीं है। मिसरी ने कहा- ‘कई हफ्तों से भारतीय और चीनी कूटनीतिक एवं सैनिक वार्ताकार एक दूसरे से निकट संपर्क में रहे हैं।
‘इन चर्चाओं के परिणामस्वरूप भारत और चीन के बीच सीमा क्षेत्रों में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर पेट्रोलिंग के बारे में समझौता हो गया है। इसके तहत आमने-सामने तैनात (दोनों देशों की) सेनाएं पीछे हटेंगी और इन क्षेत्रों में सितंबर 2020 में पैदा हुए मसले हल होंगे।’
असल में मिसरी चाहते, तो इसे कई महीनों से जारी वार्ताओं का परिणाम भी कह सकते थे। दोनों देशों के रुख में बदलाव के संकेत इस वर्ष जुलाई से मिलने लगे थे। बल्कि कहा जा सकता है कि उसकी शुरुआत अप्रैल में अमेरिकी पत्रिका न्यूजवीक को दिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इंटरव्यू से हुई थी।
मोदी ने उसमें कहा था कि भारत और चीन के संबंध ना सिर्फ इन दोनों देशों, बल्कि पूरी दुनिया के लिए अहम हैं। मोदी ने तब उम्मीद जताई थी कि दोनों देश आपसी रिश्ते में पैदा हुई कुछ समस्याओं को हल कर लेंगे। इसे तब भारत के रुख में आई नई नरमी का संकेत समझा गया था।
चीन में प्रधानमंत्री के बयान पर सकारात्मक प्रतिक्रिया हुई। भारत में जून में लोकसभा चुनाव के नतीजे आए। तीसरे कार्यकाल के लिए मोदी की नई सरकार बनने के बाद नए रुख को जमीन पर उतारने की प्रक्रिया शुरू हुई।
रक्षा विशेषज्ञ प्रवीण साहनी के मुताबिक अभी जिस समझौते का एलान हुआ है, उस पर रजामंदी 29 अगस्त को बीजिंग में हुई कूटनीतिक स्तर की वार्ता में ही हो गई थी। उस वार्ता में अपना रुख नरम का संकेत देते हुए चीन ने भारत के इस प्रस्ताव को मान लिया कि अरुणाचल प्रदेश की सीमा से जुड़े मसलों से पहले लद्दाख के मुद्दे हल किए जाएं।
फिर चीन ने प्रस्ताव रखा कि तनाव के बचे दोनों स्थलों- देपसांग और देमचोक पर दोनों देश अपनी-अपनी सेनाओं को दो किलोमीटर पीछे हटा लें। उससे खाली हुए चार किलोमीटर इलाके में बफर जोन बनेगा, जिसमें दोनों देशों की सेनाएं पेट्रोलिंग कर सकेंगी।
यह चीन के रुख में बड़ा बदलाव है, क्योंकि इसके पहले जिन स्थलों पर बफर जोन बने, आरोप है कि वे सभी उस क्षेत्र में बने जो पहले भारत के नियंत्रण में थे। जबकि देपसांग और देमचोक में चीन अपनी सेना को दो किलोमीटर पीछे हटाने को तैयार हुआ है।
संकेत हैं कि सोमवार को विक्रम मिसरी ने जिस समझौते का एलान किया, वह इसी चीनी प्रस्ताव पर आधारित है। मिसरी ने समझौते के बारे में विवरण नहीं दिया।
उसकी घोषणा के कुछ देर बाद एक टीवी चैनल के कार्यक्रम में विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने कहा कि ‘हम उस स्थिति में पहुंच गए हैं, जहां 2020 के पहले थे।’
मगर यह बयान संभवतः तथ्य नहीं है। दरअसल, खुद भारत की तरफ से सोमवार को कहा गया कि अभी सेना पीछे लौटाने (disengagement) पर रजामंदी हुई है। चीन अपनी सेना को 2020 में जहां तक ले आया, वहां से संपूर्ण वापसी (de-escalation) का सवाल अभी बाकी है।
भारत की मांग रही है कि अप्रैल 2020 के बाद से पूरे एलएसी पर सेना की जो असामान्य तैनाती चीन ने कर रखी है, उसे वह वापस ले। उसके बाद दोनों देश संबंध सुधार की तरफ बढ़ें। जबकि फिलहाल समझौता यह हुआ है कि देपसांग और देमचोक में भारतीय बल उस बिंदु तक पेट्रोलिंग कर सकेंगे, जहां तक वे 2020 के पहले तक जाते थे।
दरअसल, इस पेट्रोलिंग के साथ कुछ शर्तें भी जुड़ी होंगी। इनमें एक यह भी है कि दोनों देश जब वहां पेट्रोलिंग के लिए जाएंगे, तो उसके पहले एक दूसरे को सूचित करेंगे। संभवतः एक शर्त यह भी है कि दोनों देश 15 दिन में सिर्फ दो बार वहां पेट्रोलिंग कर पाएंगे। स्पष्टतः यह 2020 के पहले की स्थिति का बहाल होना नहीं है।
फिर भी जो समझौता हुआ है, वह स्वागतयोग्य है। इससे आगे का रास्ता निकलता है। अतः इसे सवा चार साल से जारी गतिरोध के समाधान की दिशा में दोनों देशों की तरफ से उठाया गया एक महत्त्वपूर्ण कदम माना जाएगा। इस बात ने सबका ध्यान खींचा है कि विदेश सचिव विक्रम मिसरी ने समझौते की घोषणा ब्रिक्स प्लस शिखर सम्मेलन शुरू होने से ठीक एक दिन पहले की।
निर्विवाद है कि इस समझौते से भू-राजनीति के क्षेत्र में भारत और चीन के बीच सहयोग के लिए भी अनुकूल स्थितियां बनेंगी। ब्रिक्स प्लस एवं शंघाई सहयोग संगठन जैसे उभरते मंचों पर भारत और चीन जैसे बड़े देशों के तनाव का असर साफ नज़र आता था।
आशा है कि ग्लोबल साउथ की आवाज बन रहे ऐसे मंच अब उस अवांछित असर से बच पाएंगे। इसका संकेत रूस के कजान शहर में शुरू हो चुके ब्रिक्स प्लस शिखर सम्मेलन से ही देखने को मिल सकता है।
चीन और रूस दोनों ही इस बात के लिए इच्छुक रहे हैं कि भारत ब्रिक्स प्लस एवं शंघाई सहयोग संगठन में पूरे मनोयोग से शामिल हो। वहां वह व्यापक आम सहमति का हिस्सा बने। बताया जाता है कि 2020 से ही रूस के राष्ट्रपति व्लादीमीर पुतिन भारत और चीन के बीच तनाव को नियंत्रित रखने के लिए सक्रिय भूमिका निभाते रहे हैं।
जून 2020 में गलवान घाटी में हुई हिंसक झड़प के बाद उनकी पहल पर उसी वर्ष सितंबर में रूसी विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव की मौजूदगी में विदेश मंत्री जयशंकर और चीन के विदेश मंत्री वांग यी के बीच एक साझा वक्तव्य पर दस्तखत हुए थे। उससे तब तनाव को नियंत्रित करने में काफी मदद मिली थी।
दोनों देशों के बीच आर्थिक संबंध की जरूरतें भी इस समझौते का एक प्रेरक तत्व रही हैं। भारतीय उद्योगपति लगातार भारत में चीनी निवेश, तकनीक और विशेषज्ञों की जरूरत पर जोर देते रहे हैं। इसके अलावा एलएसी पर अत्यधिक सैन्य तैनाती से भारत के राजकोष पर जो अतिरिक्त बोझ पड़ रहा था, उससे भी अब देश राहत पा सकेगा।
तो कुल मिलाकर लंबे समय बाद विदेश नीति के मोर्चे पर एक ऐसी घटना हुई है, जिसे जन हित के लिहाज से भारत के लिए लाभदायक कहा जाएगा। आशा है, अब जो रास्ता खुला है, दोनों देश उस पर आगे बढ़ेंगे, ताकि संबंधों के पूरे दायरे को सहज और सुगम बनाया जा सके।
(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)
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