69000 शिक्षक भर्ती में आरक्षित श्रेणी के युवाओं के साथ नाइंसाफी: आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट

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लखनऊ। 69000 शिक्षक भर्ती मामले में हाईकोर्ट ने 13 अगस्त 2024 के अपने फैसले में चयन सूची रद्द करने और आरक्षण अधिनियम 1994 को लागू करते हुए नये सिरे से सूची तैयार करने का आदेश जारी किया है। हाईकोर्ट के फैसले में यह भी नोट किया गया है कि बेसिक शिक्षा (शिक्षक) सेवा नियमावली 1981 में 2018 में किए गए 22 वें संशोधन के उपरांत मौजूदा स्थिति पैदा हुई। उत्तर प्रदेश सरकार ने भी स्वीकार किया कि आरक्षित श्रेणी के युवाओं को नियमानुसार आरक्षण देने में गलती हुई है। सरकार ने आरक्षित श्रेणी के 6800 अभ्यर्थियों की अतिरिक्त सूची चयन हेतु जारी भी की थी। जिसे नियमों का उल्लंघन मानते हुए हाईकोर्ट की सिंगल बेंच ने खारिज कर दिया था।

हाईकोर्ट के फैसले से इतना तो स्पष्ट है कि आरक्षित श्रेणी के युवाओं के साथ नाइंसाफी हुई है और आरक्षण अधिनियम 1994 का अनुपालन नहीं किया गया। विपक्ष के कुछ दलों का यह कहना कि परिषदीय विद्यालयों में पिछड़े और दलितों का हक मारा गया। यह इन अर्थों में सही है कि आरक्षित पदों में उनका प्रतिनिधित्व कम है, लेकिन यह भी सच है कि अनारक्षित यानी सामान्य श्रेणी में अन्य पिछड़ा वर्ग के 12630, अनुसूचित जाति के 1637 और अनुसूचित जनजाति के 21 अभ्यर्थियों का चयन हुआ है। इस तरह पिछड़े, दलित व आदिवासियों का 69000 सीटों में कुल 48699 पदों पर चयन हुआ है।

उत्तर प्रदेश सरकार का यह कहना कि पिछली सरकारों की तुलना में इस बार पिछड़ों, दलितों व आदिवासियों की नियुक्ति अधिक हुई है मायने नहीं रखता। मुख्य प्रश्न यह है कि आरक्षित पदों पर पिछड़ों, दलितों व आदिवासियों की नियुक्ति क्यों नहीं हुई। यही सवाल उच्च न्यायालय के सामने था और इसी सवाल पर शिक्षक अभ्यर्थी आंदोलनरत हैं। यही आंदोलन का मुख्य विषय भी है। हर हाल में आरक्षित पदों को भरा जाना चाहिए और जो शिक्षक अभी अध्यापन कार्य में लगे हैं उनका उचित समायोजन करना सरकार की जिम्मेदारी है।

इस पूरे प्रकरण को समग्रता में समझने के लिए कुछ महत्वपूर्ण नियम व अधिनियम पर गौर करने की जरूरत है। परिषदीय विद्यालयों में शिक्षकों की नियुक्ति बेसिक शिक्षा अधिनियम 1972 एवं शिक्षा सेवा नियमावली 1981 के आधार पर होती है। 1994 में आरक्षण अधिनियम व 2009 में शिक्षा अधिकार अधिनियम पारित किए गए। इन्हें लागू करने को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने शिक्षक आर्हता परीक्षा (टीईटी) होना अनिवार्य माना और सहायक अध्यापक भर्ती में परीक्षा कराने का निर्देश दिया था। स्वत: स्पष्ट है कि पुराने कानून आज के दौर के लिए उपयुक्त नहीं रह गए हैं। नयी परिस्थिति में नये अधिनियम व नियमावली बनाने की जरूरत थी लेकिन यह काम प्रदेश की किसी सरकार ने नहीं किया।

परिणामत: उत्तर प्रदेश में अभी तक जितनी भी नियुक्तियां हुई हैं वह अधिकांशतः विवादित रही हैं। इसका गहरा दुष्प्रभाव शिक्षा जगत पर पड़ा है। शिक्षा जगत में गुणवत्ता की कमी तो आई ही है साथ ही परिषदीय विद्यालयों व शिक्षकों की संख्या भी क्रमश: घटाई जा रही है। शिक्षा के निजीकरण और पतन में शासन में रहे सभी दलों की भूमिका रही है लेकिन इसमें भी भाजपा की सबसे बढ़कर भूमिका है। माध्यमिक व उच्च शिक्षा भी इसका अपवाद नहीं है। शिक्षा व स्वास्थ्य के बजट शेयर में लगातार गिरावट आई है।

शिक्षा अधिकार अधिनियम 2009 का सीधा मतलब है कि हर हाल में स्कूली बच्चों को अनिवार्य, निःशुल्क व गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की गारंटी सरकार करे। इसी अधिनियम के बाद देश भर में परिषदीय विद्यालयों में बड़े पैमाने पर शिक्षकों के पदों का सृजन किया गया। प्राथमिक विद्यालयों में छात्र शिक्षक अनुपात 30:1 उच्च प्राथमिक विद्यालयों में 35:1 का अनुपात रखा गया। शिक्षा अधिकार अधिनियम 2009 लागू होने के बाद प्रदेश के करीब 1.56 लाख परिषदीय विद्यालयों में शिक्षकों के 8.80 लाख पद सृजित किए गए। शासन में आने के बाद योगी सरकार ने पहला काम 1.26 लाख हेडमास्टर के पदों को खत्म करने का किया। इसके बाद 2021-2023 की अवधि में 1.39 लाख शिक्षकों के पदों को खत्म किया गया। इसकी जानकारी संसद सत्र में कार्मिक मंत्री द्वारा दी गई।

मीडिया रिपोर्टों में यह भी बताया गया है कि 30 बच्चों से कम संख्या वाले करीब 24 हजार परिषदीय विद्यालयों को बंद किया गया है। इसके अलावा अभी 50 बच्चों से कम संख्या वाले करीब 27 हजार स्कूलों को बंद करने का प्रस्ताव है। इतने बड़े पैमाने पर पदों को खत्म करने और स्कूलों को बंद करने के बाद भी विधानसभा में सरकार ने बताया कि प्राथमिक विद्यालयों में स्वीकृत पद 417886 के सापेक्ष 85152 पद रिक्त हैं और उच्च प्राथमिक विद्यालयों में स्वीकृत पद 162198 में से 41338 पद रिक्त हैं। अभी भी परिषदीय विद्यालयों में कुल रिक्त पद 126490 हैं। योगी सरकार ने छात्र शिक्षक अनुपात में शिक्षा मित्रों व अनुदेशकों को शामिल करते हुए रिक्त पदों को भरने से इंकार कर दिया। जबकि सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट तौर पर कहा है कि शिक्षा मित्रों व अनुदेशकों को सहायक अध्यापक नहीं माना जाएगा।

गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और खाली पदों को भरने, स्कूलों का मर्जर अथवा बंद करने पर रोक जैसे सवालों को लेकर तमाम संगठनों द्वारा खासकर युवाओं द्वारा अनवरत आवाज उठाई गई है। जाहिरा तौर पर सरकार की यह कार्रवाई शिक्षा अधिकार अधिनियम 2009 का उल्लंघन है और इसका उद्देश्य परिषदीय विद्यालयों का निजीकरण करना और शिक्षा माफियाओं को बढ़ावा देना है।

(आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट की प्रेस विज्ञप्ति)

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