झुग्गी बस्ती में लगी आग, कचरा बीनने वाले 300 परिवार बेघर, प्रशासन और भू-माफिया का जमीन पर कब्जा

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रोहिणी, दिल्ली। मई का पहला पूरा सप्ताह मजदूरों के लिए समर्पित होता है, जगह-जगह अधिवेशन कार्यक्रम किए जाते हैं, जहां पर मजदूरों के अधिकार को लेकर आवाज बुलंद करने के आह्वान किए जाते हैं। यह होना भी चाहिए, आखिरकार सालों की लम्बी लड़ाई के बाद मजदूरों के बुनियादी हकों को स्वीकार किया गया।

अब सवाल यह है कि यह हक किन मजदूरों को मिले, कौन इन हक अधिकार को ले पा रहा है। किन मजदूरों के काम के घंटे सिर्फ 8 हैं, किन्हें सरकार द्वारा तय न्यूनतम मजदूरी या सामाजिक सुरक्षा के दायरे में माना जा रहा है। क्या हमारा समाज सभी मजदूर को एक समान नजरिए से स्वीकार करने मे सक्षम है, जैसे निर्माण मजदूर, मोची, बिजली का काम करने वाले असंगठित क्षेत्र के मजदूर, इस तरह के तमाम अन्य क्षेत्र है जहां पर मजदूरों को उनके काम के महत्व को समझते हुए उन मजदूरों के काम को स्वीकार किया गया है।

काम के महत्व को स्वीकारते हुये मजदूर की अहमियत को स्वीकार किया जाए, यह दृष्टिकोण कचरा बीनने वाले मजदूरों के संदर्भ में नगण्य हैं। इसका जीता-जागता उदाहरण दिल्ली शहर के रोहिणी सेक्टर 16 के नजदीक बसी कचरा मजदूरों की बस्ती है। इस बस्ती में 28 अप्रैल 2025 को सुबह बिजली का शार्ट-सर्किट होने के चलते पूरी बस्ती में आग लग जाती है। आग में 2 मासूम बच्चे जल कर राख हो गये, एक बच्चा तो ऐसा जिसकी सिर्फ हड्डियां ही मिली, बच्चों का पोस्टमार्टम करने के बाद बॉडी के नाम पर सिर्फ हड्डियां हाथों में थमा दीं। यह एक हृदय विदारक घटना थी। वहां रहने वाले मजदूरों से बातचीत के दौरान उन्होंने बताया की दमकल की गाड़ियां भी आग जब अपने चरम पर थी, उसके करीब एक से डेढ़ घंटे बाद दमकल की गाड़ियां आईं।

यह कचरा बीनने और फेरी लगाकर घर-घर से कूड़ा उठाकर अपना जीवन यापन करने वाले मजदूर करीब पिछले 20-25 सालों से यहां पर झुग्गियां बनाकर रहते थे। करीब-करीब 2000 से 2500 के बीच लोग यहां पर रहते थे, अगर परिवार की बात करें तो करीब 250-300 परिवार यहां रहते थे। यह मजदूर बंगाल के मुर्शिदाबाद से काम की तलाश में दिल्ली आये थे। यह मजदूर अशिक्षित हैं जिसके चलते इन्हें कोई अन्य काम नहीं मिल पाया, अतः ये मजदूर सड़क, गलियों और सार्वजनिक स्थानों पर फेरी लगाकर कबाड़ बीनने का काम करने में लग गए। 

जलकर राख हुई बस्ती

हमारा समाज आज भी जाति और धर्म के आधार पर ही चलता है और यह आज के भारत में कई उदाहरणों से स्पष्ट हो चुका है। इसी कड़ी में यह कचरा बीनने वाले मजदूरों की बस्ती आती है। दिल्ली शहर में कबाड़ बीनने वाले अधिकतर मजदूर मुस्लिम समुदाय से आते हैं। जिस बस्ती में आग लगी यहां करीब सभी मजदूर मुस्लिम समुदाय से संबंध रखते हैं।  पारिवारिक पृष्ठभूमि भी बहुत मजबूत नहीं है।

ये मजदूर रोजाना के आधार पर कमाते और अपने परिवार का भरण-पोषण करते हैं। इस भीषण आग में इन मजदूरों का सब कुछ जल कर खाक हो गया सिर्फ तन पर जो कपड़े थे वही इनके पास बचा रह गया है। जिस दिन आग लगी लोकल प्रशासन को यह भी जानकारी नहीं थी कि कितने लोग थे। स्थानीय प्रशासन को एक दिन लग गया इनके खाने की व्यवस्था करने में बावजूद प्रशासन के पास मजदूरों का सही-सही आंकड़ा नहीं है कि, कितने मजदूरों को खाने की आवश्यकता है।

इसके बाद जो कचरा बीनने वाले साथियों के साथ होता है, उसकी कल्पना करना ऐसी परिस्थिति में मुश्किल है, स्थानीय लैंड माफिया ने मजदूरों की बस्ती पर बुलडोजर चलवा दिया। वर्तमान स्थिति में कचरा बीनने वाले इन मजदूरों के पास ऐसा कोई स्थान नहीं है जहां पर शरण ले सकें। कुछ मजदूर थक हार कर वापस अपने गांव चले गए, कुछ कचरा बीनने वाले मजदूर अपने रिश्तेदारों के यहां चले गए जो वहीं आस-पास में बस्ती बनाकर रहते हैं। 

जलकर राख हुई बस्ती पर सरकार का कब्जा

इसे हमारे देश, समाज की विडम्बना ही कहेंगे कि, भारत का ही हिस्सा पश्चिम बंगाल है, वहां से रोजगार की तलाश में आए मजदूरों के साथ अछूतों जैसा व्यवहार किया जा रहा है। कचरा बीनने वाले यह मजदूर जो इस समय सड़क पर ही रह रहे हैं, उसमें चाहे महिला हो या फिर पुरूष उसे जबरन पकड़ कर पुलिस थाने लेकर जाया जा रहा है और उनसे उनके दस्तावेज जैसे आधार कार्ड, वोटर आई कार्ड आदि मांगा जा रहा है। कचरा बीनने वाले मजदूरों को प्रमाणित करना पड़ रहा है कि वह भारत के ही नागरिक हैं। इन्हें अपनी नागरिकता इसलिए प्रमाणित करनी पड़ रही है क्योंकि यह मुस्लिम समुदाय से संबंध रखते हैं। यह कबाड़ चुनने का काम करते हैं इनके काम को गंदा काम माना गया है, जबकि ये मजदूर शहरों को साफ रखने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे होते हैं।

खैर महत्वपूर्ण सवाल यह है कि इस समय जब इन मजदूरों को दोबारा अपना जीवन शुरू करना पड़ रहा है, उस समय यह व्यवस्था किस मानसिक गुलामी की जकड़न में बंधी है कि इनकी सवेंदनाएं समाप्त हो चुकी हैं, हम किस तरह के समाज का निर्माण कर रहे हैं? आने वाली पीढ़ियों के लिए विरासत में क्या हम इसी तरह की असंवेदनशील समाज छोड़कर विदा लेगें। 

(धर्मेंद्र यादव एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं।)

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