कर्पूरी ठाकुर को ‘भारतरत्न’ क्या संघ-भाजपा की राजनीतिक चाल है?

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देश के लिए यह गौरव की बात है कि भारत सरकार ने स्वतंत्रता सेनानी व बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर को उनकी जन्मशती की पूर्व संध्या पर भारत का सर्वोच्च सम्मान “भारतरत्न” देने की घोषणा की। कर्पूरी ठाकुर को इस सर्वोच्च नागरिक सम्मान से नवाजे जाने पर पूरे देश में स्वागत और प्रतिक्रियाओं का दौर चल पड़ा। कर्पूरी ठाकुर के राजनीतिक जीवन और कार्यों पर नया विमर्श उठ खड़ा हुआ। इस सम्मान से राजनैतिक नफे-नुकसान का आकलन किया जाने लगा। पिछड़ों की राजनीति करने वाले पक्ष-विपक्ष के नेताओं ने सरकार के फैसले का स्वागत किया, तो कुछ लोग मोदी सरकार की मंशा पर सवाल भी उठा रहे हैं।

24 जनवरी 1924 को जन्मे कर्पूरी ठाकुर 1940 में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद स्वतंत्रता आंदोलन का हिस्सा बन गए तथा वर्ष 1952 में सोशलिस्ट पार्टी से विधानसभा का चुनाव जीता। वर्ष 1967 में कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व में संसोपा बड़ा दल बनकर उभरी, जिसके परिणाम स्वरूप बिहार में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार की स्थापना हुई। इसी कार्यकाल में कर्पूरी ठाकुर उपमुख्यमंत्री बने और उनके हिस्से में बिहार का शिक्षा मंत्रालय आया।

शिक्षा के क्षेत्र में उन्होंने अंग्रेजी की अनिवार्यता को खत्म करके व आर्थिक रूप से कमजोर बच्चों के लिए शुल्क मुक्त शिक्षा का प्रावधान करके बिहार के गरीबों और वंचितों में शिक्षा की क्रांति कर दी। कर्पूरी ठाकुर के इस कार्य से चिढ़कर सामंती सोच वालों ने उनके कार्यकाल में पास हुए बच्चों को “कर्पूरी डिवीजन” कहकर उनका उपहास उड़ाया। अपने कार्यकाल में कर्पूरी ठाकुर ने पिछड़ों और अति पिछड़ों के अस्तित्व को स्थापित करने के लिए जो कार्य किया, उससे बिहार की सियासत में आमूल-चूल परिवर्तन हुआ और कर्पूरी सामाजिक न्याय का बड़ा चेहरा बनकर उभरे।

कर्पूरी ठाकुर को सिर्फ बिहार ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण देश की सियासत में सामाजिक न्याय की अलख जगाने वाले प्रथम नेता के रूप में याद किया जाता है। इसीलिए उन्हें जनता का आदमी, बिहार का गांधी, वंचितों का मसीहा जैसे उपनामों से भी सम्बोधित किया जाता है। आज के दौर में कर्पूरी ठाकुर के जीवन और उनके राजनैतिक उतार चढ़ाव से सीखना वर्तमान दौर के लिए प्रासंगिक है।

समाजवादी नेताओं में शुमार रहे कर्पूरी ठाकुर मंडल कमीशन लागू होने से पहले ही “मुंगेरी लाल कमीशन” की तर्ज पर पिछड़ों – अतिपिछड़ों की सोशल इंजीनियरिंग की, जो वर्चस्ववादी पिछडी जातियों को भी रास नहीं आयी। उनकी इस सियासी चाल के चलते, उन्हें सिर्फ सवर्णो से ही नहीं बल्कि वर्चस्ववादी ओबीसी जातियों के विरोध का भी सामना करना पड़ा। उनके खिलाफ गंदे एवं फूहड़ नारों की झड़ी लगा दी गयी।

कर्पूरी ठाकुर को भारतरत्न दिये जाने की मांग समाजवादी नेताओं द्वारा लंबे समय से उठायी जा रही थी। खुद कर्पूरी ठाकुर के बेटे राम नाथ ठाकुर लगातार इस मांग को उठा रहे थे। इस पुरस्कार की घोषणा होते ही उन्होंने इसका स्वागत किया और कहा कि हम तो लंबे समय से इसकी मांग कर रहे हैं लेकिन सरकार हमारी मांग को अनसुना कर रही थी, फिर भी हम सरकार के इस फैसले का स्वागत करते हैं और बिहार के 15 करोड़ लोगों की तरफ से भारत सरकार को धन्यवाद देते हैं।

भारतरत्न की घोषणा होते ही देश में विमर्श खड़ा हुआ कि मोदी सरकार इस घोषणा से अतिपिछड़ों का वोट साधना चाहती है। वैसे मोदी सरकार का रिकार्ड देखें तो उसका हर निर्णय बड़ी रणनीति का हिस्सा होता है जो सीधे चुनावी लाभ से जुड़ा होता है। फिलहाल, कर्पूरी ठाकुर को भारतरत्न देने के फैसले से भाजपा कितना राजनैतिक लाभ हासिल कर पायेगी, यह भविष्य के गर्भ में है।

(पुष्कर पाल राजनीतिक कार्यकर्ता हैं।)

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