भारत की 140 करोड़ आबादी जहां इस समय पड़ोसी देश पाकिस्तान की बदले की कार्रवाई को लेकर हर घड़ी न्यूज़ अपडेट देख रहा है, ठीक उसी दौरान अमेरिकी राष्ट्रपति भारत के साथ ट्रेड डील का ऐलान भी कर सकते हैं। आम भारतीय के लिए यह नए अवसर और ख़ुशी का मौका होने जा रहा है, या एक और वज्रपात, यह तो डील पूरी होने के बाद ही समझ आएगा। लेकिन भारत की ओर से यह तत्परता निश्चित रूप से डोनाल्ड ट्रंप के लिए किसी बड़ी उपलब्धि से कम नहीं होगी।
कल रात डोनाल्ड ट्रंप ने अपने सोशल मीडिया हैंडल, ट्रुथ सोशल पर ऐलान करते हुए लिखा, “कल सुबह 10:00 बजे ओवल ऑफिस में एक बिग न्यूज़ कांफ्रेंस की जाएगी, जिसमें एक बड़े और बेहद सम्मानित देश के प्रतिनिधियों के साथ एक प्रमुख ट्रेड डील को लेकर चर्चा होगी। यह कई डील में से पहला है!!!”
यह बड़ा और बेहद सम्मानित देश (बकरा) कौन हो सकता है, इसको लेकर दुनियाभर में सभी की दिलचस्पी काफी बढ़ गई थी। अमेरिका में कई लोगों ने X पर Grok से जानना चाहा, तो उसका जवाब था, “अमेरिका की काफी आगे के स्तर पर हो रही वार्ता और ट्रेजरी सेक्रेटरी बेसेन्ट और राष्ट्रपति ट्रम्प जैसे अधिकारियों के सार्वजनिक बयानों को देखते हुए, यह भारत के साथ होने की संभावना लग रही है। दोनों देशों का लक्ष्य 2030 तक द्विपक्षीय व्यापार को 500 बिलियन डॉलर तक बढ़ाने का है। जापान और दक्षिण कोरिया भी बातचीत कर रहे हैं, लेकिन साक्ष्य इस ओर इशारा करते हैं कि 8 मई, 2025 की घोषणा के लिए भारत सबसे संभावित देश है।”
लेकिन Grok का अनुमान इस बार सही नहीं बैठा। 3 घंटे पहले राष्ट्रपति ट्रंप ने इंग्लैंड के साथ ट्रेड डील की घोषणा करते हुए अपने बयान में कहा है, “यूनाइटेड किंगडम के साथ यह समझौता एक पूर्ण और व्यापक समझौता है जो आने वाले कई वर्षों तक यूनाइटेड स्टेट्स और यूनाइटेड किंगडम के बीच संबंधों को मजबूत करेगा। हमारे लंबे समय के इतिहास और एक दूसरे के प्रति निष्ठा के चलते, यूनाइटेड किंगडम को हमारी पहली घोषणा के रूप में शामिल करना एक बड़ा सम्मान है। कई अन्य सौदे, जो बातचीत के गंभीर चरण में जारी हैं, आगे भी होंगे!”
लेकिन यह एकतरफा ट्रेड डील है, जिसे ब्रिटिश प्रधानमंत्री किएर स्टार्मर के साथ व्यापारिक समझौते में हस्ताक्षर कर ही हासिल किया जा सकता है। Grok का पूर्वानुमान भी अपनी जगह पर सही था, क्योंकि भारत-अमेरिकी ट्रेड डील को लेकर बातचीत काफी आगे बढ़ चुकी है। यदि पहलगाम आतंकी हमला और उसके बाद भारत में सुरक्षा व्यवस्था और इंटेलिजेंस इनपुट में चूक का मसला न गहराया होता, जिसके नतीजे में भारत-पाक युद्ध की आशंका गहरा गई है, तो निश्चित रूप से भारत सरकार की पूरी कोशिश थी कि यह मौका उसे ही मिले।
भारत-अमेरिका के बीच ट्रेड डील को लेकर कल सीएनबीसी-टीवी 18 ने खुलासा किया था कि भारत ने गेहूं, मक्का, चावल और डेयरी को छोड़कर अधिकांश उत्पादों पर संयुक्त राज्य अमेरिका के समक्ष जीरो टैरिफ की पेशकश की है। अमेरिका भारत पर टैरिफ को 10% पर रखना चाहता है, वार्ता काफी अच्छे तरीके से आगे बढ़ रही है और अधिकांश क्षेत्रों पर दोनों देशों के बीच में सहमति बन गई है। नॉन टैरिफ बैरियर पर अभी भी मतभेद बना हुआ है।
एक ऐसे दौर में जब अमेरिका के सबसे नजदीकी देश कनाडा सहित यूरोपीय संघ के देश अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की टैरिफ टेरर पर मुहंतोड़ जवाब देते हुए डटे हुए हैं, आखिर भारत को ऐसी क्या मजबूरी है, जो ट्रंप की घुड़कियों पर न्योछावर हो रहा है? मेक्सिको, कोलंबिया जैसे दक्षिण अमेरिकी देश भी इस मामले में पीछे नहीं हैं। फिर भारत के बारे में यह आम मान्यता है कि भारत अभी भी कमोबेश घरेलू खपत के आधार पर ही अपने विकास की रफ्तार को बनाकर इस मुकाम तक पहुंचा है। भारत का वैश्विक व्यापार भी चीन, विएतनाम और मेक्सिको की तरह इस हद तक वैश्विक नहीं हो चुका है, कि ट्रंप की धमकियों के आगे भारतीय अर्थव्यस्था तबाह हो सकती है।
इसके बावजूद भारत की यह कैसी मजबूरी है, जो उसे अभी तक के अपने संरक्षित बाजार, विशेषकर कृषि क्षेत्र को अमेरिकी बाजारों के लिए खोलने में कोताही महसूस नहीं हो रही। पश्चिमी समाचारपत्रों में इसको लेकर कई तरह के कयास लगाये जा रहे हैं। एक लेख में कहा गया है कि एक समय में अपनी “टैरिफ किंग” की प्रतिष्ठा के लिए मशहूर देश अब अपनी चौकसी को कम करने की तैयारी कर रहा है। इसकी कीमत क्या होगी? भारत के विनिर्माण आधार, स्थानीय उद्योगों और संभवतः आर्थिक विकल्पों पर संप्रभुता को भी भारी झटका लग सकता है।”
भारत को सबसे बड़ा झटका जेनेरिक दवा निर्माता के रूप में लग सकता है, जिसमें भारतीय दवा निर्माता कंपनियां पहले से ही बेहद कम मार्जिन पर काम कर रही हैं। इन्हें अमेरिका में निवेश कर उत्पादन के लिए बाध्य होना पड़ सकता है। इससे उनकी लागत बढ़ेगी और यह मॉडल बर्बाद हो सकता है। और यदि इस “नए सौदे” के तहत अमेरिका भारतीय जेनेरिक दवाओं के आयात में कटौती कर देता है, तो यह भारत के सबसे मजबूत निर्यात इंजनों में से एक को पंगु बना सकता है।
ऑटोमोबाइल क्षेत्र में भी फोर्ड और जनरल मोटर्स जैसी अमेरिकी कार निर्माता कंपनियां लंबे समय से भारतीय बाजार में पैठ बनाने की कोशिश में थीं, लेकिन भारी टैरिफ उनके लिए सबसे बड़ी बाधा बनी हुई थी। जीरो टैरिफ जीएम मोटर्स और फोर्ड ही नहीं टेस्ला जैसे इलेक्ट्रिक वाहन के लिए नए बाजार को खोल सकता है, वहीं भारतीय ऑटो सेक्टर जिसे आईटी सेक्टर के साथ भारत के ग्रोथ इंजन का सबसे मजबूत पाया माना जाता रहा है, को भारी खतरा पैदा हो सकता है।
इससे भी महत्वपूर्ण, कृषि क्षेत्र में जीरो ड्यूटी करोड़ों किसानों की आजीविका को तबाह कर सकती है। बहुत संभव है कि भारत गेंहू, चावल सहित चुनिदा खाद्य वस्तुओं पर जीरो टैरिफ न रखने पर अमेरिका को राजी कर ले, लेकिन सेव, सोयाबीन, काजू, वाइन सहित ऐसी तमाम वस्तुएं हैं जो भारतीय किसानों और शराब निर्माता कंपनियों सहित सरकार की आबकारी नीति को पूरी तरह से सिर के बल खड़ा कर दे।
लेकिन चूँकि, भारत-पाक युद्ध की आशंका के गहराते बादलों के बीच ट्रंप के साथ ट्रेड डील की घोषणा में देरी है, लेकिन देर-सवेर यह यक्ष प्रश्न 140 करोड़ के सामने बना रहने वाला है। हमारे देश की क्या प्राथमिकताएं हैं, हमें किन वस्तुओं को दुनिया के मुल्कों से आयात की आवश्यकता है और किस वस्तु के आयात से हमारे देश के किसानों और छोटे और मझौले उद्योगों के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लग सकता है, यह सोचना और फैसला लेना एक संप्रभु देश का मसला है। आज डोनाल्ड ट्रंप की घुड़की पर यदि भारत सरकार अपने दरवाजे खोलती है, तो हम किस मुहं से चीन और यूरोपीय संघ के देशों के लिए आयात पर ड्यूटी तय कर सकते हैं?
अगर भारत यह सोचता है कि ट्रंप के साथ ट्रेड डील कर प्रारंभिक आर्थिक नुकसान सहकर भी भारत चीन पर अपनी निर्भरता को भारत के हिस्से में डालकर अंततः लाभ में रहने वाला देश बन सकता है, तो हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारा अधिकांश निर्यात अभी भी चीन से आयातित कच्चे माल और इलेक्ट्रॉनिक्स गुड्स के आधार पर टिका है। कोई भी शक्तिशाली देश किसी भी अन्य राष्ट्र पर कृपालु नहीं होता, बल्कि हर डील में अपनी तरफ के पलड़े को झुका हुआ देखना चाहता है। अमेरिका से 500 बिलियन डॉलर ट्रेड का लक्ष्य हो या यूरोपीय संघ सहित दुनिया में रिकॉर्ड निर्यात का सपना, इसे आत्मनिर्भर, रिसर्च एंड डेवलपमेंट पर निवेश और व्यापक स्तर पर गुणवत्तापूर्ण शिक्षा को मुहैया कराकर ही हासिल किया जा सकता है, वर्ना लेने के देने पड़ सकते हैं।
(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)