पक्ष-विपक्ष की जीत से आम आदिवासियों की समस्याओं पर कोई फर्क नहीं पड़ता: सालखन मुर्मू

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देश में 18 वीं लोकसभा चुनाव 2024 का पांचवें चरण का मतदान संपन्न हो चुका है। चुनाव को लेकर सभी पार्टियां अपने-अपने तरीके से मतदाताओं को अपने पक्ष में मतदान करवाने की कोशिश में लगी रहीं और बाकी के दो चरणों के लिए लगी हुई हैं। पार्टियों के साथ-साथ उनके समर्थक भी अपने-अपने तरीके से अपने पसंद के उम्मीदवारों के पक्ष में मतदान के लिए मतदाताओं को समझाने में लगे हैं।

इस बीच पूर्व सांसद एवं आदिवासी सेंगेल अभियान के राष्ट्रीय अध्यक्ष सालखन मुर्मू की टिप्पणी कुछ अलग है, वे कहते हैं कि कोई भी पक्ष या विपक्ष वर्तमान चुनाव में जीते, आम आदिवासियों की जीवन शैली या उनकी समस्याओं पर कोई फर्क नहीं पड़ता, हर अवस्था में इनकी (आदिवासियों) ही हार निश्चित है। क्योंकि दोनों ही पक्षों के पास से आदिवासियों का पक्ष या एजेंडा नदारद है। आदिवासी केवल वोट बैंक बनकर रह गए हैं।

सालखन मुर्मू फिलहाल दिल्ली में हैं और बीमार हैं। वे कहते हैं कि फिलवक्त मैं बीमारी से उबर रहा हूं। मगर आदिवासियों के प्रति लगाव और प्रतिबद्धता के आलोक में 2024 के लोकसभा चुनाव पर खासकर झारखंड में आदिवासियों की राजनीतिक हालत पर एक टिप्पणी करना चाहता हूं। चूंकि अधिकांश मीडिया केवल एनडीए बनाम इंडिया की बात करती रही है। उनके पास आदिवासियों के लिए ज्यादा स्थान नहीं बचता है। अंततः कोई भी पक्ष वर्तमान चुनाव में जीते आदिवासियों की हार निश्चित है। क्योंकि दोनों ही पक्षों के पास आदिवासियों का पक्ष या एजेंडा नदारद है। आदिवासी केवल वोट बैंक बनकर रह गए हैं। खुद आदिवासी नेता भी आदिवासियों के सवाल पर ईमानदार नहीं दिखते हैं।

उनके अनुसार झारखंड, बंगाल, ओडिशा, बिहार, असम आदि प्रदेशों में कोई भी पार्टी 2024 का चुनाव जीते मगर आदिवासियों की हार निश्चित है। अतः सेंगेल किसी पार्टी को बचाने की जगह समाज को बचाने के लिए प्रयासरत है।

आदिवासी एजेंडा अर्थात हासा (भूमि,सीएनटी एसपीटी कानून बचाना), भाषा (झारखंड में संताली को राजभाषा बनाना) जाति (आदिवासी हितों के खिलाफ कुर्मी को ST बनाने पर रोक), धर्म ( सरना कोड और मरांञ बुरु को जैनों से मुक्ति) तथा रोजगार (डोमिसाइल, आरक्षण) और संवैधानिक अधिकार आदि बचाना है।

मानी लॉन्ड्रिंग के मामले पर जरूर अरविंद केजरीवाल और हेमंत सोरेन आरोपित हैं। मगर केजरीवाल की तुलना हेमंत सोरेन से करना ठीक नहीं प्रतीत होता है। क्योंकि जहां केजरीवाल गुड गवर्नेंस और भ्रष्टाचारमुक्त दिखते हैं। तब वहीं पूरा सोरेन परिवार लूट, झूठ और भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरा हुआ है। सोरेन परिवार ने झारखंड को भी बेचा, मरांञ बुरु को जैनों को बेचा। खुद संताली भाषा और ओल चिकि लिपि विरोधी हैं। सरना पर टाल-मटोल का रवैया, डोमिसाइल के नाम पर 1932 का झुनझुना थमा दिया है। CNT /SPT को तोड़ने का काम किया। पिता- पुत्र पांच बार मुख्यमंत्री बनने के बावजूद आदिवासी हितों के लिए कुछ भी ठोस नहीं किया है।

भाजपा के पास चूंकि आदिवासियों के लिए दिल में कोई जगह नहीं है। जबरन आदिवासियों को हिंदू बनाना चाहती है। इसीलिए सरना धर्म कोड नहीं दिया। अतः इसका लाभ हेमंत सोरेन की पार्टी को मिल सकता है। अन्यथा अब तक आदिवासियों का सर्वाधिक वोट लेकर जेएमएम ने आदिवासियों को ही सर्वाधिक छला है। आदिवासी समाज में व्याप्त नशापान, अंधविश्वास, डायन प्रथा, महिला विरोधी मानसिकता, वोट की खरीद बिक्री पर रोकने, मांझी परगना स्वशासन व्यवस्था में संवैधानिक और जनतांत्रिक सुधार करने आदि में इनका कोई योगदान नहीं है।

सालखन आगे कहते हैं कि राहुल गांधी ने चुनाव प्रचार में सरना धर्म कोड की मान्यता की घोषणा की है। अतः आदिवासी सेंगेल अभियान इसका स्वागत करता है। अंततः आदिवासी किसको वोट करें से ज्यादा चिंतनीय विषय है क्यों वोट करें।

(झारखंड से विशद कुमार की रिपोर्ट)

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