Saturday, June 3, 2023

देहरादून नहरों के बाद बाग भी इतिहास बनने की ओर

अंग्रेज पहली बार 1815 में देहरादून आए। गढ़वाल के अपदस्थ राजा मानवेन्द्र शाह के अनुरोध पर अंग्रेजों ने गढ़वाल पर कब्जा किए बैठे गोरखों को कई जगहों पर परास्त किया। अंतिम लड़ाई देहरादून के पास खलंगा में हुई। कई दिनों के ऐतिहासिक युद्ध के बाद गोरखा सेनापति की हार हुई और इसी के साथ वर्तमान उत्तराखंड क्षेत्र 15 वर्षों की गोरखाणी से मुक्त हुआ। सिंगोली संधि के अनुसार उत्तराखंड के मौजूदा दो जिलों टिहरी और उत्तरकाशी वाला क्षेत्र मानवेन्द्र शाह को दे दिया गया, और पूरे कुमाऊं क्षेत्र के साथ ही मौजूदा पौड़ी, चमोली, रुद्रप्रयाग, हरिद्वार और देहरादून जिलों को अंग्रेजों ने अपने कब्जे में ले लिया।

अंग्रेजों ने देहरादून के डालनवाला इलाके में रहना पसंद किया। आज भी शहर के पूर्वी हिस्से में डालनवाला में अंग्रेजों के दौर की कई कोठियां हैं, जो सुरक्षित हैं और उनमें लोग रह भी रहे हैं। अंग्रेज ठंडे इलाकों के निवासी होने के कारण दून में गर्मी महसूस करते थे। उन्होंने इस स्थिति से बचने के लिए दो उपाय किये। पहला यह कि डालनवाला में अपनी कोठियों के आसपास कई-कई बीघा क्षेत्र में बगीचे लगाये। इनमें आम और लीची के पेड़ शामिल थे और साथ ही प्राकृतिक रूप से उगने वाले पेड़ों को पनपने का भी भरपूर मौका मिला। इससे डालनवाला क्षेत्र में एक-एक कोठी के चारों ओर कई-कई बीघा जमीन में जंगल तैयार हो गया।

20022022 Uttrakhand 01
देहरादून के बीचोबीच ऐसा है हराभरा डालनवाला (फ़ोटो- त्रिलोचन भट्ट)

इसके अलावा अंग्रेजों ने शहर के चारों ओर नहरों का जाल बिछाया। अंग्रेजों के देहरादून आने से पहले यहां एक नहर थी, जिसे राजपुर कैनाल कहा जाता था। इसे 17वीं शताब्दी में गढ़वाल की महारानी कर्णावती ने बनाया था। यह नहर रिस्पना नदी के कैचमेंट एरिया राजपुर गांव से देहरादून के गुरु रामराय दरबार तक बनाई गई थी। कहा जाता है कि इसी नहर से प्रेरणा लेकर अंग्रेजों ने गंग नहर का निर्माण भी किया। राजपुर नहर का भी अंग्रेजों ने जीर्णोद्धार किया। दिलाराम के पास से इस नहर से पूर्व की ओर एक और नहर बनाई गई, जिसे ईस्ट कैनाल कहा गया। इसी नहर के ऊपर वर्तमान में देहरादून शहर की ईसी रोड है। इसके अलावा अंग्रेजों ने दून में कई और नहरें भी बनवाई। इनमें खलंगा कैनाल, बीजापुर कैनाल और जाखन कैनाल जैसी बड़ी नहरों के साथ ही इन नहरों से कई छोटी नहरें अंग्रेजों के रिहायशी क्षेत्र डालनवाला तक निकाली गईं। बताया जाता है कि घने जंगलों और छोटी-छोटी जलधाराओं के बहने से डालनवाला क्षेत्र में अंग्रेजों की ये कोठियां खूब ठंडी रहती थी।

जब भारत में अंग्रेजी शासन का विरोध तेज हुआ तो इन कोठियों में रहने वाले अंग्रेज अपनी कोठियां भारतीयों को औने-पौने दामों में बेचकर वापस जाने लगे। बाद में जब अंग्रेजों की वापसी तय हो गई तो तब तक यहां रह गये अंग्रेजों ने मुफ्त में या बहुत कम दामों में कोठियां और उसके आसपास के बाग अपने भारतीय जानकारों के नाम कर दिए। आज भी इन कोठियों और बागों के मालिकों के पास उस दौर की कोठियों की सेल डीड मौजूद हैं।

20022022 Uttrakhand 02
बाग के बीच निर्माण सामग्री (फ़ोटो- त्रिलोचन भट्ट)

आजादी के बाद से हाल के वर्षों तक डालनवाला की कोठियां और उनके आसपास के बगीचों से किसी ने कोई छेड़-छाड़ नहीं की। राज्य बनने के बाद जब पहाड़ों और दूसरे राज्यों से बड़ी संख्या में लोग आकर देहरादून में बसने लगे तो भूमाफिया की नजर यहां की जमीनों पर पड़ी। शहर के आसपास की तमाम खेती की जमीन बेची जाने लगी, उन पर कंक्रीट के जंगल उगने लगे और शहर का दायरा बढ़ता रहा। लेकिन, डालनवाला के ज्यादातर बाग इस सबके बावजूद सलामत रहे। इन बागों में अब आम और लीची के अलावा बड़ी संख्या में प्राकृतिक तौर पर उगने वाले पेड़ भी हैं। कहना न होगा कि दून सिटी का ये हरा-भरा इलाका अब भी दून शहर को तरोताजा रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।

नहरें बनी इतिहास, अब बागों की बारी

राज्य बनने से ठीक पहले तक देहरादून की सभी नहरें अस्तित्व में थी। शहर के बीचो-बीच बहने वाली राजपुर नहर और उसकी शाखा ईस्ट कैनाल के किनारे रोड बनाई गई थी, लेकिन नहर मौजूद थी। बाद में इस पूरी नहर को पाइपों के जरिये भूमिगत कर दिया गया और ऊपर से चौड़ी सड़क बना दी गई। यही स्थिति बीजापुर कैनाल और खलंगा कैनाल की भी हुई। इन नहरों में पानी अब भी है, लेकिन पाइप लाइनों के जरिये यह पानी अब सड़कों के नीचे है। दून की नहरों को लेकर लगातार आवाज उठाने वाले सामाजिक कार्यकर्ता विजय भट्ट कहते हैं कि जब तक देहरादून में नहरें अस्तित्व में थीं, तब तक यहां की आबोहवा में प्रदूषण कम था। नहरों और उनके किनारों पर कई तरह के जीव-जन्तु, कीड़े-मकौड़े, चिड़िया, तितलियां और शैवाल पनपते थे, जो पर्यावरण की दृष्टि से बेहद उपयोगी होते थे। देहरादून जिले में पूर्वी हिस्से को परवादून कहा जाता है, जहाँ से बहने वाली एकमात्र जाखन नहर ही अब जमीन के ऊपर नजर आती है। इसे भोगपुर नहर भी कहा जाता है। यह नहर अब भी सैकड़ों हेक्टेयर जमीन की सिंचाई कर रही है।

20022022 Uttrakhand 04
देहरादून के बीचोबीच ऐसा है हराभरा डालनवाला

नहरों का अस्तित्व पूरी तरह से समाप्त हो चुका है और अब हाल के वर्षों में देहरादून में जमीनों के भाव आसमान छूने के साथ ही भूमाफिया की नजर डालनवाला के बागों पर भी है। ये बाग जिन लोगों के नाम हैं, वे भी जमीन की कीमतों को देखते हुए अब इन्हें बेचने का मन बना रहे हैं।  दरअसल 5 से 6 बीघा क्षेत्र में फैले इन बागों से इनके मालिकों को कुछ भी नहीं मिल रहा है। एक बाग स्वामी ने अपना नाम उजागर न करने की शर्त पर बताया कि उनके बाग में लीची और आम के करीब 20 पेड़ हैं। इसके अलावा सैकड़ों पेड़ प्राकृतिक वनस्पतियों के हैं। इनमें साल, बांस, अंजीर सहित कई तरह की प्रजातियां शामिल हैं। वे कहते हैं कि बगीचे से साल में बमुश्किल 15 से 20 हजार रुपये मिल पाते हैं, जबकि शहर का महत्वपूर्ण हिस्सा होने के कारण यहां जमीन की कीमत इन दिनों सबसे ज्यादा है। एक-एक बाग की कीमत कई करोड़ रुपये है। ऐसे में ज्यादातर लोग अपने-अपने बगीचे बेचने की फिराक में हैं।

खास बात यह है कि ऐसे कुछ बगीचों में हाल के दिनों में निर्माण जैसी गतिविधियां शुरू हो गई हैं। लेकिन, बाहर से यह अंदाजा लगा पाना मुश्किल है कि अंदर आखिर हो क्या रहा है। बगीचों की ईंटों वाली बाउंड्रीवाल के ऊपर कई मीटर ऊंची काले रंग की प्लास्टिक की पन्नियां लगाकर इस तरह के निर्माण किये जा रहे हैं। जनचौक संवाददाता ने ऐसे एक बाग की तस्वीरें लेने का प्रयास किया। बाग में कई जगहों पर खुदाई होने और निर्माण सामग्री पड़ी होने के संकेत मिले हैं।

20022022 Uttrakhand 03
एक पुरानी नहर की छवि

देहरादून में पर्यावरण और पेड़ों की सुरक्षा के लिए काम करने वाली संस्था सिटीजन फॉर ग्रीन दून के हिमांशु अरोड़ा कहते हैं कि डालनवाला के कुछ बगीचों में संदिग्ध गतिविधियां चलने की शिकायतें उन्हें भी मिली हैं। ऐसे एक बाग का उन्होंने जायजा लेने का भी प्रयास किया, लेकिन बाहर से कुछ अंदाजा लगाना मुश्किल है। हिमांशु अरोड़ा इन बागों को देहरादून की प्राणवायु मानते हैं और कहते हैं कि यदि ये बाग खत्म हो गये तो देहरादून की आबोहवा बुरी तरह से प्रभावित होगी। हिमांशु अरोड़ा इस स्थिति के लिए राज्य सरकार को जिम्मेदार मानते हैं। वे कहते हैं कि इस हरियाली को बचाने की जिम्मेदारी सरकार को लेनी चाहिए। इसके लिए या तो सरकार बागों के मालिकों से इन बागों को खरीदकर अपने कब्जे में ले या फिर शहर को पर्यावरणीय सेवाएं देने वाले इन बागों के मालिकों को ग्रीन बोनस के रूप में पेमेंट करे।

हिमांशु अरोड़ा कहते हैं कि आज देहरादून के दूर-दराज के क्षेत्रों में भी जमीन के दाम आसमान छू रहे हैं, तो डालनवाला जैसे इलाके में जमीन किस भाव बिकेगी, अंदाजा लगाया जा सकता है। ऐसी स्थिति में मुमकिन है कि डालनवाला के बाग जिन लोगों के नाम हैं, उनमें लालच आ जाए। वैसे में भूमाफिया उन्हें कई तरह के लालच दे रहा होगा। वे यह भी कहते हैं कि जरूरी नहीं कि ये बाग जिन लोगों के स्वामित्व में हैं, उनकी आर्थिक स्थिति आज भी बहुत अच्छी हो। वे आशंका जताते हैं कि बड़ा लालच और मोटा पैसा देकर भूमाफिया इन बागों को खरीद सकता है और केमिकल का इस्तेमाल कर सैकड़ों पेड़ों को खत्म कर सकता है। उन्होंने कहा है कि वे इस संबंध में अपनी संस्था के स्तर पर आवाज उठाएंगे और हो सके तो हाईकोर्ट का दरवाजा भी खटखटाएंगे।

(उत्तराखंड से वरिष्ठ पत्रकार त्रिलोचन भट्ट का लेख)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of

guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles

जलवायु परिवर्तन: बढ़ती गर्मी को थामने की जरूरत

जलवायु परिवर्तन के बारे में ताजा अध्ययनों और रिपोर्टों ने एक बार फिर चेतावनी...

आईआईईडी की रिपोर्ट: पर्यावरण की मार, मनरेगा से आस

इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फाॅर एनवाॅयरमेंट एण्ड डेवलपमेंट (आईआईईडी) ने अपने मई, 2023 की 'ब्रीफिंग' में...

मानसून के आगमन में विलंब की संभावना

इस वर्ष मानसून के थोड़ी देर से आने की संभावना है। मानसून देश में...