सीओपी-28 सम्मेलनः जलवायु परिवर्तन पर सिर्फ बहसबाजी नहीं, काम की दिशा भी तय हो

नई दिल्ली। जलवायु परिवर्तन अब सीधे हमारी जिंदगी में दखल दे रहा है। यह अब एक बड़ा संकट बनकर हमारे सामने खड़ा हो चुका है। अब वह समय भी नहीं रहा जब किसी औद्योगिक शहर का धुंआ उस शहर और आसपास की जिंदगी को धुंए से भर देता था। अब यह औद्योगिक धुंआ आसमान में जमा होते काफी ऊपर जा चुका है और अपना विस्तार करते हुए देश की चौहद्दियों को लांघने लगा है।

आज दुनिया के तापमान में वृद्धि का आंकड़ा 1.5 डिग्री सेल्सियस को पार कर गया है। इस साल अक्टूबर और नवम्बर के महीने की गर्मी ने पिछले 70 सालों का रिकॉर्ड तोड़ दिया है। अपने पानी और विशाल तट और लंबाई के नाम से जाना जाने वाली नदी अमेजन अपनी तलहटी तक सिमटती गई है, उसके पेटे में समाये हुए पत्थर तक दिखने लगे हैं। ब्राजील अब भी गर्मी की बेचैनियों से भरा मौसम झेल रहा है। जबकि भारत में असामान्य बारिश और ग्लेशियरों के पिघलने ने पहाड़ों में बाढ़ और भूस्खलन का ऐसा माहौल बना दिया, जिसने कई सालों का रिकॉर्ड तोड़ दिया।

दुनिया भर में जंगलों की आग में तेजी से वृद्धि दिखाई दे रही है। यूरोपीय देशों में इस साल की गर्मी ने वहां की जिंदगी को अस्त-व्यस्त कर दिया। पर्यावरण में बदलाव का अर्थ सिर्फ पहाड़ों के नंगे हो जाने या बारिश के कम या अधिक हो जाने तक ही सीमित नहीं रहा। यह अब रोजमर्रा की जिंदगी के पैटर्न में बदलाव लाने वाले एक दबाव तक आ पहुंचा है। यह प्रकृति और मनुष्य के बीच की चल रही जिंदगी को परिभाषित करने तक पहुंच रहा है।

ऐसा नहीं है कि इसे लेकर चिंताएं व्यक्त नहीं की गईं और इस दिशा में प्रयास नहीं हुए। उपनिवेशिक दौर में पर्यावरण का भयावह दोहन चला। खासकर एशिया, अफ्रीका और लातिन अमेरीकी वन और खनिज संपदा की खूब लूट हुई। पूंजीवादी साम्राज्यवाद ने इसी लूट को चरम पर पहुंचा दिया। 1970 के दशक में जाकर पर्यावरण की कुछ चिंताएं संयुक्त राष्ट्र और साम्राज्यवादी देशों में दिखाई देनी शुरू होती हैं।

1980 के दशक में ये साम्राज्यवादी देश जंगलों के संरक्षण के नाम पर विश्व पर्यावरण को बचाने की जिम्मेदारी कथित तौर पर तीसरी दुनिया के देशों के कंधों पर डालने की नीति की ओर बढ़ गये। इन्होंने भारत से लेकर अफ्रीका और ब्राजील जैसे देशों में वनसंरक्षण की नीति अपनाने के साथ साथ अभ्यरण्यों की नीति अपनाने के लिए दबाव डाला। यह एक अजीब विरोधभासी स्थिति थी। एक तरफ ये साम्राज्यवादी देश वन संरक्षण पर जोर दे रहे थे और वहीं दूसरी ओर कच्चे माल के दोहन के लिए प्रयास भी कर रहे थे।

विश्व व्यापार संगठन बनने तक इस विरोधाभासी स्थिति ने करवट बदलना शुरू कर दिया था। भारत जैसे देशों में एक ओर वनों को सीधे राज्य के संरक्षण में लाकर उस पर राज्य का एकाधिकार दिया जा रहा था, वहीं पूंजी निवेश को बढ़ाने के लिए इसी संरक्षण के नियमों को तोड़ा भी जा रहा था। यह अंतर्विरोध हर जगह दिख रहा था। पर्यावरण के संरक्षण को लेकर दावे, वादे एक दूसरे के खिलाफ खड़े हो रहे थे और बहुत से देश एक दूसरे के ऊपर पर्यावरण को नष्ट करने का आरोप भी लगा रहे थे।

खासकर, माल उत्पादन की प्रक्रिया में विश्व व्यापार संगठन ने जिस तरह के नियमों-प्रावधानों का सूत्र बना रखा था, उसका उलंघन कई देश कर रहे थे, इससे आयात और निर्यात को लेकर विश्व व्यापार में विवाद पैदा होना शुरू हो गया था। उत्पादन और व्यापार की इन वैश्विक प्रक्रियाओं ने कई सारे देशों के संगठनों को पैदा करना शुरू किया। जी-7 से लेकर जी-20 और ग्लोबल साउथ से लेकर नाफ्टा आदि ऐसे ही समूह थे, जो उत्पादन की लागत में पर्यावरण को एक हिस्सा और उसकी जिम्मेवारी निभाने को लेकर बहस में जुट गये थे।

जाहिर है, जो जितना पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रहा है, अपने कुल फायदों का एक हिस्सा इस खाते में डाले तभी नष्ट हो रहे पर्यावरण को कुछ हद तक बचाये जाने की दिशा में काम हो सकेगा। इस तरह के देशों वाले संगठनों की बैठकों के दौरान आम लोगों के विरोध प्रदर्शनों की संख्या में भी वृद्धि हुई। ये प्रदर्शनकारी बहुत सारी मांगों के साथ साथ पर्यावरण को भी बचाने की मांग करते होते थे। ऐसे सम्मेलनों और देशों की बैठकों का नतीजा फिलहाल भले ही कुछ खास न निकला हो, लेकिन पर्यावरण की स्थिति और खराब होती गई।

ऐसी ही एक बैठक का नाम है सीओपी-28। इसका सम्मेलन 30 नवम्बर, 2023 से, संयुक्त अरब अमीरात के अबू धाबी में शुरू होने जा रहा है। विभिन्न देशों के प्रतिनिधियों का यह 28वां सम्मेलन है, जिसकी तैयारी पिछले एक महीने से चल रही थी। संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों का यह वार्षिक सम्मेलन जलवायु परिवर्तन का आकलन, उसे ठीक रखने के संदर्भ में उपाय, उसके लिए कार्रवाई और खर्च आदि के संदर्भ में वार्ता को आयोजित करता है।

संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क सम्मेलन यानी काप की नींव तो पृथ्वी शिखर सम्मेलन, रियो में ही रख दी गई थी। लेकिन, इसकी औपचारिक शुरुआत 197 देशों की पुष्टि के साथ 1994 में ही हो सकी। 1997 में क्योटो प्रोटोकाल के तहत कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने और हरित क्षेत्र बढ़ाने की दिशा में काम करने और साथ ही पर्यावरण के कोष में हिस्सेदारी को लेकर नियम, निर्देश और हिदायतें बनाई गईं।

यह सम्मेलन सर्वाधिक जिम्मेदारी विकसित देशों के कंधों पर डाला था, जिसमें इन देशों को न सिर्फ कार्बन उत्सर्जन में कमी लाना था, इससे होने वाले नुकसान की भरपाई के मद में खर्च की भागीदारी भी करनी थी। लेकिन, 2015 में पेरिस में हुए सम्मेलन में विकसित देशों पर जो बाध्यकारी कार्य और निर्देश तय हुए थे, उसे स्वेच्छा के तहत ला दिया गया और इस दायरे में अब विकासशील और अल्पविकसित देशों को भी शामिल कर लिया गया। इस बार सभी देशों को अपनी कार्बन उत्सर्जन सीमा को तय करने का अधिकार भी दे दिया गया। अब बाध्यकारी स्थितियां हट जाने से प्रतिबद्धताओं का कोई अर्थ नहीं रह गया।

यूरोप और अमेरीका में दक्षिणपंथी ताकतों ने कई सारी प्रगतिशील नीतियों का विरोध करने का जो अभियान चलाया उसमें एक अभियान पर्यावरण को लेकर भी था। दुनिया के स्तर पर पेरिस सम्मेलन के आसपास ही ऐसे दक्षिणपंथी शासकों का उभार आया। अमेरीका में भी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप चुनाव जीतकर आए जो पर्यावरण के मसले को अमेरीकी हितों के खिलाफ मानते थे और उन्होंने इस संदर्भ में किसी प्राथमिकता से बंधने से खुद का मुक्त रखने की रणनीति का पालन किया।

दरअसल, वह ग्रीनहाउस उत्सर्जन के मामले में चीन का उदाहरण रख रहे थे और सस्ते श्रम को लेकर वह तीसरी दुनिया के देशों को कटघरे में खड़ा करना चाह रहे थे। साम्राज्यवादी अमेरीका का यह तथाकथित राष्ट्रवाद कुछ और नहीं, एक उभरते फासीवाद का चेहरा था जिसे जल्द ही अमेरीका ने नकार दिया लेकिन फिलहाल अमेरीका के पर्यावरण के प्रति नजरिए में कोई खास बदलाव नहीं दिख रहा है।

भारत ने पेरिस समझौते पर अप्रैल, 2016 में जरूर हस्ताक्षर कर दिए, जिसमें वह 2005 के स्तर की तुलना में 2030 तक ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में 33.35 प्रतिशत की कमी लाएगा। साथ ही, ढाई से तीन बिलियन टन कार्बन डाईऑक्साइड का पोषण कर लेने वाले वनों का विस्तार करेगा। इसी सम्मेलन में कार्बन टैक्स की भी बात हुई थी जो धनी देशों से 100 अरब डॉलर प्रतिवर्ष जमा करना था। इस संदर्भ में वास्तविक स्थिति क्या है, सीओपी-28 के बैठक में पेश किये गए दस्तावेजों से ही पता चल सकेगा।

ऐसे तो, कहने के लिए सीओपी का उद्देश्य 2070 तक शुद्ध शून्य उत्सर्जन है, लेकिन इसका वास्तविक अर्थ क्या है, समझना मुश्किल है। प्रतिवर्ष पर्यावरण की स्थिति बदतरीन होती जा रही है। जंगल का क्षेत्र घटता जा रहा है। कोयले के उत्पादन और पेट्रोल और डीजल की खपत में वृद्धि देखी जा रही है। सड़क परिवहन का विस्तार अपने पिछले सारे रिकॉर्ड को तोड़कर बढ़ता हुआ दिख रहा है। यह पहाड़ों को चीरते, छलनी करते हुए उसकी बर्फ की चोटियों तक जा पहुंचने के लिए बेकरार है।

देश की राजधानी क्षेत्र में बहने वाली साहबी नदी कब की मार दी गई, हिंडन मरने के कगार पर है और यमुना बस एक नाम भर की नदी रह गई है जबकि इस विशाल क्षेत्र में बसने वाले लोगों की सांसें घुट रही हैं। नीति और कार्यवाही के बीच कोई साम्य नहीं दिख रहा है। फिर भी, भारत बड़े दावे के साथ इस शिखर सम्मेलन की तैयारियों में शामिल था और कल से शुरू हो रहे सम्मेलन में शामिल होने जा रहा है।

भारत का इस सम्मेलन में भी ऊर्जा के क्षेत्र में काम करने और गैर-जीवाश्म ऊर्जा के प्रयोग पर जोर देना रहेगा। यहां निश्चित ही यह कहना जरूरी है कि पर्यावरण का मसला सिर्फ ऊर्जा के संरक्षण का सिद्धांत भर नहीं रह गया है। यह उससे अधिक प्रयास की मांग कर रहा है।

(अंजनी कुमार पत्रकार हैं।)

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